सामाजिक

लेख– जीवन अमूल्य है, इसे नशे में नाश न होनें दें

इस धरा पर मानव जीवन ही सर्वश्रेष्ठ माना जाता हैं। इस जीवन को नशे के द्वारा व्यर्थ नष्ट करना मूर्खता हैं। वर्तमान में हमारा परिवेश ऐसा बन चुका हैं , क़ि हम अनेक दिवस मानाते आ रहें हैं। इसी कड़ी में हम और हमारी सरकार नशे से लोगो को मुक्त कराने के लिए नशा मुक्ति दिवस और मद्य निषेध दिवस मानते हैं। लेकिन इन दिवसों का प्रभाव केवल कुछ दिन होता है। उसके बाद आया राम गया राम हो जाता हैं। वर्तमान समय में नशा विश्व के समकक्ष ऐसी बुराई का रूप ले चुकी है। जिससे इंसान का अनमोल जीवन समय से पहले काल का अकाल शिकार हो रहा हैं। नशा एक ऐसी बुराई है। जो समूल जीवन पीढ़ी को नष्ट कर देती हैं। नशे की लत से पीड़ित व्यक्ति परिवार के साथ समाज पर बोझ बन जाता हैं। वैसे लत किसी भी चीज की लोगों को पागल बना देती है। फिर नशे की बात ही अलग हैं। कल की कर्णधार और आज की युवा पीढ़ी भारत में सबसे ज्यादा नशे की लत से पीड़ित है। सरकार इन पीड़ितों को नशे के चुंगल से छुड़ाने के लिए नशा मुक्ति अभियान चलती है। शराब और गुटखे पर रोक लगाती है, लेकिन हकीकत जमीनी स्तर पर कुछ और दिखती है। इसमें सरकार का दोष नही, बल्कि दोष उन ठेकेदारों का भी है, जो अपने खज़ाने भरने के लिए चोरी- छुपे इनका कारोबार करते है।

नशे के रूप में लोग आजकल शराब, गाँजा, जर्दा, ब्राउन, शुगर, कोकीन, और स्मैक आदि मादक पदार्थों का प्रयोग करते है। जो स्वास्थ्य के साथ सामाजिक और आर्थिक दोनों लिहाज से ठीक नहीं है। नशे का आदी व्यक्ति समाज की दृष्टि से हेय हो जाता है, और उसकी सामाजिक क्रियाशीलता और उपदेयता शून्य के बराबर हो जाती है। फिर भी व्यक्ति व्यसन को नहीं छोड़ता हैं। सरकार के प्रयास के बावजूद लोग अपनी जीवन लीला के साथ खेल खेलते हैं। जब सरकार ने गुटखा पाउचों पर खुले तौर पर तम्बाकू जानलेवा है, लिखवा रही है। फिर भी लोग समझने को तैयार नहीं है। एक और जहां ध्रूमपान से फेफड़े में कैंसर होता है, वहीँ कोकीन, चरस, अफीम लोगों में उत्तेज़ना बढ़ाने का काम करती है।जिससे समाज में अपराध और गैरकानूनी हरकतों को बढ़ावा मिलता है। जो श्रेष्ठ समाज की अवहेलना ही कही जा सकती है। इन नशीली वस्तुओं के उपयोग से व्यक्ति पागल और सुप्तावस्था में चला जाता है। तम्बाकू के सेवन से तपेदिक, निमोनिया, साँस की बीमारियों से सामना करना पड़ता हैं। इसके सेवन से जन और धन दोनों की हानि होती है, परन्तु लोग सचेत नहीं हो रहे हैं।

एक आंकड़े के मुताबिक अधिकतर घरेलू झड़पें और हिंसा नशे की वजह से ही होती हैं। ग़रीब आदमी भी अपने बच्चों की शिक्षा पर पैसे न खर्च कर अपने नशे पर करता है। समाज के लिए इससे बुरा क्या हो सकता हैं। गुजरात में जहां शराब बन्द है। वहाँ तम्बाकू और गुटखे से मरने वालोँ की संख्या 30 हजार प्रतिवर्ष हैं। भारत में केवल एक दिन में 11 करोड़ सिगरेट फूंके जाते है। इस तरह देखा जाय तो एकवर्ष में 50 अरब का धुआँ उड़ाया जाता हैं। आज के दौर में नशा फैशन बन गया है। सरकार द्वारा लोगों को नशे से छुटकारा दिलवाने के लिए 30 जनवरी को नशा मुक्ति संकल्प और शपथ दिवस, 31 मई को अंतरराष्ट्रीय ध्रूमपान निषेध दिवस, 26 जून को अंतरराष्ट्रीय नशा निवारण दिवस और 2 से 8 अक्टूबर तक भारत में मद्य निषेध दिवस मनाया जाता है, लेकिन इन सब का व्यापक असर नहीँ मालूमात होता, क्योंकि ये सब दिवस दिखावट के साबित होते हैं। दूसरे दिन से ही इन मुद्वो को सरकार द्वारा भी ठंडे बस्ते में ड़ाल दिया जाता है। और जनता भी इस और ध्यान नहीँ देती। कल देश के भविष्य बनने वाले 90 फीसदी युवा नशे की लत से ग्रसित है। जिस देश के युवा इस जानलेवा राह पर भटक गए हो। उस देश की कल्पना कैसी हो सकती है? लोग ख़ुद सोच सकते है।

आंकड़ों के मुताबिक 0.02 फीसदी शराब से मन में परिवर्तन होता है, और 0.50 मात्रा शराब की लेने पर लोगों की मौत हो जाती है। पंजाब जैसे राज्यों में नशा मुक्ति पर 180 करोड़ रूपये खर्च किये जाते है, लेकिन वहाँ नशे की लत युवाओं पर इसकदर हावी है, क़ि चुनाव में विपक्षी दल उसे मुद्वा बनाकर रण विजय करने की फ़िराक में लग रही है, और विजय प्राप्त भी करती है। फ़िर यह समझ में आता है, कि देश के भीतर नशा कितना भयानक विषय बन चुका है। सरकार की नीति मद्य निषेध और नशा मुक्ति के लिए क़ैसी है, यह इसी बात से पता लग जाती है कि, नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक शराब से सबसे ज्यादा मौत महाराष्ट्र, उसके बाद मध्यप्रदेश में होती हैं। गुजरात, केरल, लक्षद्वीप, नागालैंड और हाल ही में बिहार सरकार ने जनता की भलाई के लिए शराब बन्द कर दी है, लेकिन जिन राज्यों में बिहार से पहले शराब बन्दी लागू है। वहां वह बन्दी कारगर साबित नही हुई है। सरकार को इन दिवसों को मानाने के साथ व्यवस्था में अमूलचुल परिवर्तन करना होगा, जिससे शराब बंदी जैसे क़ानून सफल हो सके, और राज्य सरकारों के साथ केंद्र को भी अपने राजस्व को बढ़ाने की न सोचकर गहन विमर्श के बाद ऐसा नियम बनाना चाहिए जिससे इन वस्तुओं पर प्रतिबंध लगाया जा सके, और लोगों को नशा से होने वाले प्रभाव के बारे में शिक्षित और जागरूक किया जाय। तभी इन दिवसों का सही अर्थ लोगों के सामने आ सकेगा।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896