भाषा-साहित्य

यावज्जीवम् अधीते विप्रः

यावज्जीवम् अधीते विप्रः अर्थात् बुद्धिमान व्यक्ति जीवन भर अध्ययन करता है। 

ऊपर दिया गया कथन प्राचीन ऋषियों की प्रसिद्ध उक्ति है जो उनकी जीवन – दृष्टि का परिचायक है। मनुष्य और पशु में सबसे बड़ा अंतर उनके सीखने की क्षमता का है। कितना ही प्रयास क्यों न करें , पशुओं को हम एक सीमा से आगे नहीं सिखा सकते। पर मनुष्य के सीखने की क्षमता असीम है। शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य ही शिक्षार्थी को सीखने में सहायता देना है , पर आज हमारी शिक्षा बच्चों को सीखने के लिए उतना प्रोत्साहित नहीं करती जितना रटने के लिए। परिणामस्वरूप हमारे विद्यार्थी एक के बाद एक डिग्रियाँ प्राप्त कर लेते हैं , उनकी जानकारी बढ़ती जाती है , पर विचारशील मनुष्य के रूप में जीवन जीने की उनकी क्षमता में बहुत ही कम विकास होता है।
सर्वथा अशिक्षित मनुष्य भी कुछ न कुछ सीखते ही हैं। शिक्षा की प्रक्रिया उन्हें नई – नई जानकारी देने में मदद करती है। पर हमारी शिक्षा सीखने के लिए बच्चों को प्रोत्साहित नहीं करती , न उन्हें सीखने के लिए अवसर ही प्रदान करती है। कुछ उदाहरण लिए जा सकते हैं।

कलाएँ . अधिकतर विद्यालयों में माध्यमिक स्तर पर चित्रकला एक विषय के रूप में निर्धारित होती है , पर अन्य कलाओं के लिए वहाँ बहुत ही कम स्थान है। भारत में संगीत की बहुत प्राचीन और व्यापक परम्परा है। हमारी शिक्षा -संस्थाओं में इसकी उपेक्षा हो रही है। टीवी ने संगीत को और बिगाड़ दिया है। बड़े – बड़े इनामों के लालच में छोटे – छोटे बच्चों को संगीत – प्रतियोगिता के नाम पर फूहड़ गाने गाने और उन पर नाचने के लिए प्रोत्साहित किया जाता और उनके माता – पिता समेत आम जनता पूरी पीढ़ी को संस्कारहीन होते हुए देखकर तालियाँ बजाती है। महानगरों को छोड़कर कहीं भी संगीत के स्वतंत्र रूप से सीखने की व्यवस्था नहीं है।
हमारे गाँवों में लोक – कलाओं की लंबी और समृद्ध परम्परा रही है। उनमें से किसी को भी विद्यालयों में स्थान नहीं है। पहले हर लड़की ढोलक बजाना सीख लेती थी। आज घरों से ढोलक गायब होती जा रही है , इसी के साथ जीवन से लय भी।

भाषाएँ . भाषा मनुष्य के आन्तरिक जीवन और बाह्य जीवन को जोड़ती है , और जीवन को समझने के लिए माध्यम का काम करती है। मातृभाषा तो बच्चे अपने आप सीख लेते हैं यद्यपि उसके साहित्यिक पक्ष का ज्ञान उन्हें अधिकतर विद्यालय में ही होता है। मातृभाषा के बाद अंग्रे़ज़ी का स्थान है जो हमारी शिक्षा-व्यवस्था में सबसे प्रमुख भाषा बनती जा रही है। अंग्रेज़ी का ज्ञान शिक्षित होने का पर्याय बनता जा रहा है। भारतीय भाषाओं की उपेक्षा हो रही है और उन्हें हीन भाव से देखा जा रहा है। हम यह भूल जाते हैं कि अंग्रेज़ी जाननेवाला व्यक्ति भी मानसिक रूप से अविकसित मनुष्य हो सकता है। जब ऐसे लोगों के हाथ में देश का नेतृत्व आ जाता है तो राष्ट्रीय जीवन के सभी क्षेत्रों में गिरावट अवश्यंभावी है। आज हमारा देश सभी क्षेत्रों में नकलचियों का देश बनकर रह गया है। पचास – एक वर्ष पूर्व जे . कृष्णमूर्ति ने हताशा के स्वर में पूछा था , ” इस देश की सृजनशीलता को क्या हो गया हैय़ ” प्राचीन काल में जब संसार के अधिकांश देशों का अस्तित्व भी नहीं था , न विकास का कोई माडल विद्यमान था , हमारे पूर्वजों ने अपनी भाषा संस्कृत के माध्यम से मानव जीवन के गहनतम रहस्यों को खोज लिया था जो आज भी हमारे ही नहीं सारी मनुष्यजाति के मार्गदर्शक बननेवाले हैं। जैसेकि श्री अरविन्द अपनी पुस्तक भारतीय संस्कृति के आधार में कहते हैं , प्राचीन भारत में जीवन के प्रत्येक पक्ष पर गंभीर सृजनात्मक कार्य हुआ था जो आज भी हमारे लिए आदर्श है। एक विदेशी भाषा के अनुपातहीन महत्त्व ने हमारी अपनी भाषाओं की उपेक्षा की हुई है और परिणामस्वरूप भारतीय मेधा का विकास रुक गया है।

अंग्रेज़ी पर अधिकतम ध्यान केन्द्रित होने के कारण हम संसार की अन्य भाषाओं की उपेक्षा कर रहे हैं। किसी भी देश की संस्कृति को उसकी भाषा के माध्यम से ही समझा जा सकता है। अंग्रेज़ी के अलावा अन्य विदेशी भाषाएँ न जानने के कारण हम अन्य देशों से गहरे संबंध नहीं बना पा रहे हैं।

अनिल विद्यालंकार