धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

क्या मेरी व्यथा सुनोगे!

स वर्ष भी तुमने मेरे पुतले का दहन कर ही दिया;आखिर कब तक मुझे जलाने का ढ़ोंग कर अपने दम्भ की तुष्टी करते रहोगे और आम जन को भरमाते रहोगे?क्या मेरे गुनाह इतने थे!क्या मेरे अपराध की इतनी सजा है कि सदियों तक मेरे पुतले को जलाकर तुम खुश होते रहो,उत्सव मनाते रहो!अगर तुम्हें उत्सव ही मनाना है तो स्वयं अच्छे बनों,भगवान श्रीराम जैसा चरित्रवान बनकर दिखाओ।मैं बुराईयों का प्रतीक बनकर रह गया हूँ लेकिन दुनियाभर में मुझसे ज्यादा बुराई समेटे हुए लोग हैं।मैं अपने दस शीश के कारण दशानन कहलाया ;मेरे अपने दस मुख थे और सभी उजागर थे।मैंने कभी कुछ नहीं छुपाया लेकिन तुम लोग तो दिन-रात अपने चेहरे बदलते हो।यदि महसुस करोगे तो सैकड़ो मुखौटे मिलेंगे।मेरे बारे में तो सभी को सब कुछ ज्ञात था ;हाँ,हो सकता है कि मैं तुम सब लोगों की नजर में खलपात्र ही होऊं लेकिन मुझे एक सच्चा शिवभक्त होने के साथ ही राजनीति का ज्ञाता,,महापराक्रमी ,बलशाली ,शास्त्रों का ज्ञाता ,विद्वान पण्डित,महाज्ञानी माना जाता रहा है।मेरे शासन काल में लंका का वैभव भी चरम पर था और इसी कारण लंका नगरी को सोने की लंका कहा जाता था लेकिन मेरी भूलों का खामियाजा मेरे सम्पूर्ण कुल को भुगतना पड़ा।भूल तो हर किसी से होती है, तात्कालिक कारणों को आज मैं गिनाना नहीं चाहता किन्तु क्या तुमने कभी सोचा है कि आज तुम क्या हो!तुम कुछ न होते हुए भी कितना अनाचार-दुराचार,अत्याचार कर रहे हो।यह मेरी भूल थी कि मैं अपने मातहतों पर नियंत्रण नहीं रख पाया और उनके अनाचार और अत्याचारों का परिणाम सम्पूर्ण राक्षस कुल का सर्वनाश था लेकिन यहाँ फिर भी मैं अपनी तुलना तुम से करता हूँ तो पाता हूँ कि मैं तुमसे कई मायनों में बेहतर ही था ।

तुम तो अपने आप पर ही नियंत्रण नहीं रख पा रहे हो।तुमने तो इतने मुखौटे पहन रखे हैं कि तुम्हारे असली स्वरुप में ही पहचानना मुश्किल है।मैंने जो भी काम किये हैं वे सब अपनी स्वयं की पहचान के साथ किये हैं, छुपकर नहीं किये हैं किन्तु तुम तो राम का मुखौटा पहन कर वे सब काम करते हो जिन्हें मैंने स्वयं भी कभी नहीं किया बल्कि मैं स्वयं भी ऐसा करना पाप समझता था।देवी सीता का भले ही मैंने साधु वेश में हरण किया था किन्तु उनके सतीत्व का कभी हरण नहीं किया।तुम लोग तो इतने चरित्रहीन और पतित हो चुके हो कि कितनी ही स्त्रियों के सतीत्व हरण का पाप तुम्हारे सिर है लेकिन तब भी तुम्हें राम का मुखौटा धारण करते शर्म महसूस नहीं होती!

क्या तुम्हें मेरा पुतला दहन करने का अधिकार है और यह अधिकार तुम्हें दिया किसने!क्या भगवान राम से तुमने इसकी अनुमति ली है!एक बार उनके सामने खडे़ होकर ईमानदारी से अपने अंतर्मन में झांककर पूछ तो लेना कि मेरे पुतले को दहन करने का अधिकार क्या किसी को है! उत्सवप्रियता तो ठीक है और इस बार भी तुमने मेरे पुतले को जलाकर उत्सव मना लिया लेकिन जब अगली बार अगले साल आओ तो भगवान राम की आज्ञा लेकर आना और उनके सच्चे अनुसरणकर्ता बनकर आना ताकि तुम्हारे हाथों मेरे पुतले के दहन होने पर मुझे भी कोई अफसोस न हो।

 तुम्हारे जैसा नहीं लेकिन तुम्हारा शुभचिन्तक

                         रावण

*डॉ. प्रदीप उपाध्याय

जन्म दिनांक-21:07:1957 जन्म स्थान-झाबुआ,म.प्र. संप्रति-म.प्र.वित्त सेवा में अतिरिक्त संचालक तथा उपसचिव,वित्त विभाग,म.प्र.शासन में रहकर विगत वर्ष स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ग्रहण की। वर्ष 1975 से सतत रूप से विविध विधाओं में लेखन। वर्तमान में मुख्य रुप से व्यंग्य विधा तथा सामाजिक, राजनीतिक विषयों पर लेखन कार्य। देश के प्रमुख समाचार पत्र-पत्रिकाओं में सतत रूप से प्रकाशन। वर्ष 2009 में एक व्यंग्य संकलन ”मौसमी भावनाऐं” प्रकाशित तथा दूसरा प्रकाशनाधीन।वर्ष 2011-2012 में कला मन्दिर, भोपाल द्वारा गद्य लेखन के क्षेत्र में पवैया सम्मान से सम्मानित। पता- 16, अम्बिका भवन, बाबुजी की कोठी, उपाध्याय नगर, मेंढ़की रोड़, देवास,म.प्र. मो 9425030009