सामाजिक

लेख– आधुनिक भारत में बच्चों के प्रति सरकारी उदासीन रवैया क्यों?

 देश की लोकतांत्रिक राजनीति गाहे-बगाहे किसानों, और अन्य लोगों की चर्चा कर लेती है। भले आखिरी में परिणाम हो, वहीं ढाक के तीन पात। ऐसे में पहला ज्वलन्त सवाल यही, क्या राजनीति ने कभी देश के भावी भविष्य को याद करने की भूल की? उत्तर नहीं है किसी के पास। ऐसे में सवालों की एक बड़ी कड़ी उत्पन्न होती है। क्या नौनिहाल देश के हिस्सा नहीं? क्या उनके स्वास्थ्य, शिक्षा और मूलभूत सुविधाओं की जिम्मेदारी सरकारों की नहीं? क्या बच्चों की दुनिया समाज से अलग है? जिनका ध्यान करती हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली दिखती नहीं। दुर्भाग्य से यही विचार मन को उधेड़ता है, कि बच्चों के प्रति इतना तटस्थता भरा रवैया क्यों? क्या उनके पास मताधिकार की ताक़त नहीं, इसलिए तो अनदेखी के शिकार तो नहीं? बच्चों की स्थिति हमारे देश में क्या है, वह किसी से छिपी नही, और सरकारी योजनाएं कितनी सिफ़र रहीं। वह भी ज्ञात है। पिछले कुछ महीनों में जो गोरखपुर जैसे स्थानों पर बच्चों के मौत का तांडव विश्व परिदृश्य ने देखा। उसने बच्चों के प्रति कर्तव्यपरायण लोकतांत्रिक व्यवस्था की कलई खोलने का काम किया है। आज के न्यू इंडिया और विकासवादी युग में बच्चों को कौन सी सुविधाएं मयस्सर हो पा रहीं हैं। यह सोचनीय विषय है।

बच्चों की नैसर्गिक आवश्यकता पोषक आहार, शिक्षा आदि है। क्या आज के दौर में इन मूलभूत आवश्यकताओं को हमारी व्यवस्था पूरी करने में सक्षम हो पाई है। तो उत्तर न में ही मिलेगा। जिस वक़्त देश में बच्चों को स्वास्थ्य सुविधाएं आवश्यक होती हैं, उस दौर में आक्सीजन की कमी बच्चों के मौत का कारण बनती है। जिस उम्र में बच्चों को सम्पूर्ण पोषण की आवश्यकता होती है, उस दरमियान उन्हें अपनों के द्वारा ही हवस का शिकार बनाया जाता है। जिस समय बच्चों के हाथों में कलम और किताब होनी चाहिए। तब उनके हाथ मजदूरी करने के लिए बांध दिए जाते हैं। फ़िर बचपन कहाँ सुरक्षित है? मात्र सरकारी काग़ज़ों के अलावा कहीं नहीं। बचपन रो रहा है, और राजनीति अपने ताक़त पर इतरा रहीं हैं। उसे तो फ़िक्र मात्र अपने मत से है। चुनाव जीतने की तरक़ीब से है। क्या अगर बच्चों के पास मत नहीं तो उनके जान की कोई कीमत नहीं? बच्चों के जीवन की मूलभूत कुछ आवश्यकताओं के बारे में हम चर्चा करते हैं। फ़िर हम ज़मीनी हकीकत से रूबरू हो जाएंगे, कि बच्चों का जीवन आख़िर किस मझधार में फंसा हुआ है।

पहले बात बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराधों की करते हैं। एक रिपोर्ट्स के मुताबिक 2015 के आंकड़ों के अनुमान के तहत मध्यप्रदेश में 12, 859,  बिहार 12,420 और  उत्तर प्रदेश में 11,420 बाल अपराध के मामले दर्ज किए गए । इसी के अंतर्गत केंद्रीय महिला एवं बाल विकास विभाग ने एक अध्ययन में पाया कि बच्चों के खिलाफ यौन शोषण के मामले बढ़े रहे हैं , तो उसके साथ देश का माहौल ऐसा भी नहीं कि मात्र बच्चियां इन हरक़तों से पीड़ित हो। इस कलुषित और हवसीपन ने समाज के लड़के और लड़कियों दोनों का भक्षण करने की कोशिश की है, जो एक आदर्शवादी देश की छवि को कलंकित और अमर्यादित करने का काम कर रही है। भारत में हर साल अकेले कुपोषण से 10 लाख ज्यादा से ज्यादा बच्चों की मौत होती है । इसके इतर विभिन्न कारणों से लगभग 10 करोड़ बच्चे स्कूल  का मुँह देखने से मोहताज़ रह जाते हैं। फ़िर सवाल तो बहुतेरे फ़न काढ़कर खड़े होते हैं, परन्तु उत्तर देने वाला कोई प्रकट नहीं होता। अगर मात्र मध्यप्रदेश सूबे की बात हो। तो यहां पर बच्चों को स्वास्थ्य सुविधाएं और शिक्षा रूपी मूलभूत सुविधाएं अभी भी तक अच्छे से मयस्सर नहीं हो पाई हैं। स्वास्थ्य सुविधाओं से सूबे का ग़रीब तबका वंचित है। यह इस बात से ज़ाहिर होता है, कि यूनिसेफ द्वारा जारी रिपोर्ट-2016 में कहा गया कि यहाँ पाँच वर्ष से कम उम्र के 69 बच्चे मौत के मुंह में समा जाते हैं। ‘दुनिया में बच्चों की स्थिति’ के अंर्तगत पेश की गई यूनिसेफ की रिपोर्ट बताती है कि राज्य में शिशु मृत्यु दर प्रति हजार 52 है। वहीं जन्म के एक माह के भीतर प्रति हजार में से 36 बच्चे मौत का शिकार हो जाते हैं। इसी तरह पांच वर्ष की आयु तक के 42.8 प्रतिशत बच्चों का वजन औसत से कम है। इसके साथ 42 फ़ीसद बच्चे नाटे हैं। वहीं दूसरी तरफ पंजाब के मात्र 5.9 फ़ीसद, उत्तर प्रदेश के 5.3 प्रतिशत, राजस्थान में बच्चों को 3.4 फ़ीसद और गुजरात के 5.2 प्रतिशत बच्चों को ही समुचित मात्रा में आहार मिल पा रहा हैं। अगर ऐसे में  गौर करें, तो इन सभी राज्यों में भाजपा की ही सरकार हैं। ऐसे में जब केंद्र और राज्य सरकारों में समन्वयन न होने के कारण केंद्र की योजनाओं में गड़बड़ी होने का रोना रोया जाता हैं। ऐसे में अगर पांडुचेरी  के 31. 2 फ़ीसद बच्चों को सबसे ज्यादा पर्याप्त मात्रा में आहार दे पा रहा हैं। जैसा  राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2015-16 खुलासा करता हैं। फिर सरकारी योजनाओं को देखकर ऐसा लगता हैं, कि केवल खानापूर्ति और दिखावट की दुकान के रूप में इन्हें नियंत्रित किया जा रहा हैं।

                  कुपोषण की कमी बच्चों में अन्य रोग की भी वाहक बनती हैं। जिसका सीधा सबूत यह हैं, कि देश के 58 फीसदी  बच्चे बच्चों खून की कमी की गिरफ्त में हैं। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे 2015-16 के आंकड़े दिखाते हैं कि भारत के सात करोड से अधिक बच्चे एनीमिया के शिकार हैं। इसके साथ देश के बच्चों में स्वच्छता के प्रति उदासीनता भी कुपोषण के लिए कुछ हद तक जिम्मेदार होती हैं। फिर ऐसे में सवाल लाजिमी हैं, कि  बच्चों को स्वास्थ्य और स्वच्छता के प्रति सजग क्यों नहीं बनाया जा रहा? देश में अवैध मानव व्यापार का गोरखधंधा जैसे संगठित अपराध इतनी तेजी से पांव पसारने लगा है कि एशिया में भारत मानव तस्करी के गढ़ के रूप में पहचाना जाने लगा है।

मसलन पिछले पांच वर्ष में देश के भीतर मानव तस्करी के मामलों में चार गुणा से भी ज्यादा बढ़ोतरी दर्ज हुई है। वर्ष 2017 के पहले पांच माह में ही सामने आए मानव तस्करी के मामलों की संख्या वर्ष 2012 के पूरे वर्ष के मामलों से भी कहीं ज्यादा है। इन सब के बीच सरकार का मानव तस्करी पर लगाम कसने के लिए सख्त कानून वाला एक विधेयक संसद में लंबित है। तो यहाँ बात बच्चों की हो रहीं है। तो समझ में यही आता है, कि बच्चे तस्करी के दंश से भी पीड़ित हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के हवाले से बताया गया है, कि वर्ष 2017 में मई माह तक मानव तस्करी के 3939 मामले सामने आए हैं, जबकि 2012 में कुल 3554 मामले ही इस अपराध में दर्ज हुए थे। चिंतित करने वाली बात यह है, कि 2012 के मुकाबले 2016 में चार गुणा से भी ज्यादा 15379 मामले सामने आए , जिनमे सबसे अधिक संख्या 9034 बच्चों की मानव तस्करी में रही।
2016 के आंकड़े के मुताबिक 25 बच्चे प्रतिदिन मानव तस्करी के शिकार हुए। जब हमारे देश का संविधान बच्चों को 14 वर्ष तक निःशुल्क शिक्षा का अधिकार देता है। ऐसे में उनके अधिकारों के साथ खिलवाड़ क्यों? उनको समाज में भयमुक्त जीवन क्यों जीने का अधिकार हमारी व्यवस्था उपलब्ध नहीं करवाती है? क्या कल का भविष्य आज के अंधकार में जीने को विवश हो गया है। लोकतांत्रिक व्यवस्था की अनदेखी तो यही साबित करती है।

जिन बच्चों के हाथों में किताब और कलम होनी चाहिए, वे अपना और अपने परिवार के जीवन यापन के लिए काम की भट्ठी के झोंके में सुलग रहें हैं। आज के वक़्त में अगर सरकार और मानवाधिकार के कार्यकर्ता बच्चों के अधिकारों के प्रति अपनी आंखें मूंदे हुए हैं, तो इसका सीधा अर्थ यही है, कि  सरकार और मानवाधिकार दोनों का इस विषय से कोई लेना देना नहीं हैं। वे तो मात्र अपनी झोली भरने का काम कर रहें हैं। वर्तमान परिवेश में विश्व परिदृश्य के समतुल्य देश की तुलना करें, तो सबसे ज्यादा बाल मजदूर देश के भीतर हैं। फ़िर बचपन और चौदह वर्ष जो स्कूली शिक्षा के लिए निर्धारित की गई है, वह कहां तक बच्चों को महफ़ूज वातावरण जीने के लिए दिला पा रही है, उसकी पोल-पट्टी खुलती हुई नज़र आती है। एक अनुमान के मुताबिक विश्व के बाल मजदूरों का एक तिहाई से ज्यादा हिस्सा भारत में है। वहीं एक अन्य आंकड़े के मुताबिक देश के  लगभग 50 प्रतिशत बच्चे अपने बचपन के अधिकारों से वंचित हैं। न उनके पास शिक्षा की ज्योति पहुँच पा रही है और न ही समुचित पोषक तत्व। देश का नौनिहाल केवल बाल मजदूरी का दंश नहीं झेल रहा, बल्कि कुपोषण और स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव भी झेल रहा हैं। तो क्या यह आधुनिक होते भारतीय व्यवस्था का पिछड़ता बचपन है।

एक रिपोर्ट के मुताबिक देश के सार्वजनिक स्वास्थ्य पर सबसे ज्यादा बोझ उन बीमारियों का है, जो पर्याप्त पोषक आहार न मिलने से पैदा होती हैं। देश की 46 फीसदी आबादी आयरन, विटामिन या प्रोटीन आदि समुचित मात्रा में न मिलने के कारण घातक बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं। वहीं देश की 39 फीसदी आबादी टीबी जैसी बीमारी की गिरफ्त में है, जिसको उजाड़ फेंकने का सरकारी वर्ष भी निर्धारित हो चूका है। फ़िर सवाल यही जब गरीबी उन्मूलन का सपना साकार हुआ नहीं, और गरीब परिवार अपने बच्चे का बचपन बाल मजदूरी की भट्टी में झोंकने को विवश हैं, फ़िर आधुनिक भारत की बाकी परिकल्पनाएं कोरी लगती हैं। अन्य आंकड़ों के समंदर में गोते लगाए, फ़िर बच्चों के लिए स्थितियां बिल्कुल विपरीत नज़र आती हैं, और विकास के कितने ही सरकारी दावे हो। बच्चों के प्रति सब फ़साना ही लगता है। आंकड़े के मुताबिक देश में प्रत्येक 21 बच्चों में से एक बच्चा अपने पांचवें जन्मदिन तक पहुँचते-पहुँचते मर जाता है। इसके साथ उच्च माध्यमिक आयु के 47 लाख युवा विद्यालय का मुंह किसी कारणवश नहीं देख पाते। वहीं दूसरी तरफ़ जो 14 वर्ष अनिवार्य सरकारी शिक्षा के लिए निर्धारित उम्र है, उस उम्र के भीतर के सबसे ज़्यादा बाल मजदूर भारत में हैं। फ़िर बच्चों की स्थिति न्यू इंडिया में कहाँ है, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है, और आधुनिक होते भारत की सरकारें बच्चों के प्रति कितनी संवेदनशील इसका सहज आंकलन किया जा सकता है।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896