धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

अग्निहोत्र-यज्ञ श्रेष्ठतम कर्म होने के कारण वैदिक धर्म का आवश्यक कर्तव्य

ओ३म्

प्रथम प्रश्न तो यह है कि वैदिक धर्म क्या है? इसका उत्तर इस प्रकार से दे सकते हैं कि मनुष्य के कर्तव्यों का ज्ञान व उसका पालन धर्म तथा अकर्तव्यों का ज्ञान व उसका सेवन व पालन न करना भी धर्म है और उनका करना अधर्म होता है। सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों को उत्पन्न करने के साथ सृष्टिकर्ता ईश्वर का यह कर्तव्य था कि वह सभी मनुष्यों को ज्ञान दे जिससे उन्हें अपने व दूसरों के प्रति कर्तव्यों व अकर्तव्यों का ज्ञान हो सके। ईश्वर ने सृष्टि को आरम्भ करने के साथ मनुष्यों को जो ज्ञान उपलब्ध कराया, उसी को वेद नाम से जानते हैं। सृष्टि को उत्पन्न हुए 1,96,08,53,117 वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। इतनी लम्बी अवधि बाद आज भी वेदों का ज्ञान अपने मूल स्वरूप सहित सत्य व यथार्थ वेदार्थ सहित उपलब्ध है। वेद वा वैदिक धर्म ही संसार के सभी लोगों का एक मात्र धर्म व कर्तव्य हैं। अन्य मत अविद्या से पूर्ण होने के कारण वह मनुष्य का कल्याण करने के स्थान पर लोक व परलोक में उनका अकल्याण ही करते हैं। अतः वेद ज्ञान ही मनुष्यों का सबसे बड़ा धन व पूंजी है व शरीर में नेत्रों के समान महत्वपूर्ण है। जो मनुष्य वेद ज्ञान व वेद परम्पराओं से हीन व रहित हैं वह वस्तुतः आंखें होते हुए भी ज्ञान की दृष्टि से अन्धे ही कहे जा सकते हैं।

वेदों में मनुष्यों को ज्ञान सहित उसके सभी कर्तव्यों से अवगत कराया गया है। इसमें जहां ईश्वर का ध्यान व चिन्तन करते हुए उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना का उपदेश हैं वहीं मनुष्यों के निमित्त से वातावरण में मुख्यतः वायु व जल में जो प्रदुषण होता है, जिससे मनुष्यों व प्राणियों को क्लेश वा दुःख होता है, उसे दूर करने के लिए मनुष्यों को प्रतिदिन अग्निहोत्र यज्ञ करने की वेद आज्ञा भी सम्मिलित हैं। प्रश्न होता है कि वस्तुतः अग्निहोत्र यज्ञ क्या है? इसका उत्तर है कि एक यज्ञ कुण्ड में अग्नि जलाकर वा प्रज्जवलित कर उसमें वायु व जल शोधक घृत व सोमलता आदि ओषधियां, मिष्ठ व पौष्टिक पदार्थों की आहुतियां देना और साथ ही स्तुति, प्रार्थना, उपासना सहित स्वस्तिवाचन व शान्तिकरण एवं यज्ञ के अनेकानेक मंत्रों से ईश्वर की उपासना भी करना यज्ञ कहलाता है। अब प्रश्न हो सकता है कि यज्ञ से वायु व जल कैसे शुद्ध होते हैं व इसके अतिरिक्त यज्ञ करने से यज्ञकर्ता को क्या क्या लाभ होते हैं? वायु में हमारे चूल्हे चौके के धुएं, हमारी श्वांसों के कारण, वाहन, उद्योग व अन्य अनेक प्रकार से भी प्रदुषण होता है। वायु अशुद्ध होगी तो हमारे शरीर में फेफड़ों को शुद्ध वायु न मिलने के कारण हमें अनेक प्रकार के रोग होकर हमें कष्ट होने के साथ हमारी आयु घटती है। अतः स्वस्थ व सुखी जीवन का मुख्य आधार हमारे आस पास स्वचछ व शुद्ध वायु का होना है। अतः हमारा कर्तव्य है कि हम अपने चहुं ओर दूषित वायु को शुद्ध करने के लिए प्रयत्न करें। यही कार्य वेद और ऋषियों के अनुसार अग्निहोत्र यज्ञ होता है। अब यज्ञीय पदार्थ व यज्ञीय विधि पर विचार करते हैं।

वायु को शुद्ध करने के लिए, वायु के अशुद्ध पदार्थों को दूर कर उसमें शुद्ध व सुगन्धित पदार्थों की मात्रा में वृद्धि करना होता है। यह कार्य गाय के शुद्ध घृत, सोमलता, गिलोय आदि ओषधियां, मिष्ठ व पौष्टिक  अन्न व शुष्क फलों की अग्नि-होत्र में आहुतियां देकर होता है। इस अग्निहोत्र-हवन-यज्ञ-होम की क्रिया से वायु के दूषित पदार्थ नष्ट होकर घृत व यज्ञीय सामग्री के प्रभाव से वह मनुष्य आदि प्राणियों के लिए लाभकारी हो जाते हैं। यह अपने आप में विज्ञान हैं। हमारे वैज्ञानिक प्राचीन ऋषियों ने इस अग्निहोत्र-यज्ञ को वायु को शुद्ध करने में सबसे अधिक प्रभावशाली व उत्तम पाया और इसे सभी गृहस्थी द्विज मनुष्यों के लिए अनिवार्य कर दिया था। मध्यकाल में अज्ञान बढ़ने से यज्ञों का प्रभाव कम हुआ, यज्ञ में मांसाहार की कुप्रथा भी जुड़ गई थी परन्तु महर्षि दयानन्द का देश की क्षितिज पर आविर्भाव होने से यज्ञ पर छाये अज्ञान के सभी आवरण दूर हो गये और यह पुनः एक पूर्ण अहिंसायुक्त प्राणीमात्र का सबसे अधिक हितकारी कार्य बन गया। जो लोग इसे करते हैं वह इसे करके अनेक लाभ प्राप्त करते हैं। यह यज्ञ एक प्रकार से कामधेनु गाय के समान है जिससे यज्ञकर्ता की समस्त समस्याओं का निदान होता है। सन्तानहीन घरों में सन्तान, परिवार के रोगियों का रोग दूर होने के साथ परिवार में रोग आते ही नहीं, परिवार में एक दूसरे के प्रति निःस्वार्थ भावना रखने में वृद्धि होती है तथा सभी प्राणीमात्र यज्ञ से लाभान्वित होते हैं। ईश्वर द्वारा वेदों में दी गई आज्ञाओं व ऋषियों द्वारा प्रचलित परम्पराओं का पालन होता है। ऐसे अनेक लाभ अग्निहोत्र यज्ञ करने से यज्ञकर्ता को होते हैं।

यज्ञ करने से सबसे बड़ा लाभ तो घर की प्रदुषित वायु यज्ञ कुण की अग्नि से गर्म होकर बाहर निकल जाती है और बाहर की शुद्ध व स्वास्थ्यप्रद वायु घर के भीतर प्रवेश करती है। इससे परिवार के सभी लोग स्वस्थ व सुखी होते हैं। वायु के शुद्ध होने से वर्षा का जल भी शुद्ध होता है। वर्षा जब होती है तब उसमें वायु के प्रदुषित पदार्थ घुल कर कृषि की उपज के भीतर पहुंच कर मनुष्यों को रोग आदि उत्पन्न करते हैं। यज्ञ की शुद्ध वायु से वर्षा का जल प्रदुषित नहीं होता जिससे वह शुद्ध व पौष्टिक अन्न को उत्पन्न करने में सहायक होता है। यही कारण है कि प्राचीन काल में आयुर्वेदिक चिकित्सा के द्वारा ही लोग 100 व 300 वर्ष की आयु का स्वस्थ जीवन व्यतीत करते थे। ऐसे कुछ उदाहरण महाभारत आदि में भी पाये जाते हैं।

मनुष्य को ईश्वर ने मनुष्य जीवन शुभ कर्म करने व अशुभ कर्मों का त्याग करने के लिए दिया है। यज्ञ न केवल शुभ कर्म है अपितु सर्वश्रेष्ठ कर्म भी है। इसे करने से जो पुण्य अर्जित होता है वह इसके प्रभाव की दृष्टि से अन्य कर्मों से कहीं ज्यादा होता है। यहां तक कहा जाता है कि यज्ञ में डाले गये 10 ग्राम शुद्ध गो घृत से 1 टन वायु की शुद्धि होते हैं। इस वायु का जितने मनुष्य आदि प्राणी सेवन करते हैं उसका पुण्य यज्ञ करने वाले यजमानों को मिलता है। प्रतिदिन दो बार यह अनुष्ठान करने से यजमान का शुभ कर्मों का खाता यज्ञ न करने वालों से कहीं अधिक होता है। यज्ञकर्ता का यह जीवन भी सुखों से भरा होता है और पारलौकिक जीवन भी श्रेष्ठ होता है। दर्शन ग्रन्थों में इसे अनेकानेक तर्क देकर समझाया गया है। यह भी जानने योग्य है कि मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष है। मोक्ष हमारे शुभ कर्मों, ईश्वर साक्षात्कार व जीवनमुक्त अवस्था प्राप्त होने पर होता है। यज्ञ मोक्ष में सबसे अधिक सहायक होता है। कारण कि यज्ञ करते हुए ईश्वर उपासना भी होती है और विश्व व प्राणियों का कल्याण भी होता है। ऐसे ही व्यक्तियों को परमात्मा के द्वारा सुख व मोक्ष प्राप्त हो सकता है। यज्ञ के कारण ही वैदिक धर्म श्रेष्ठ धर्म माना जाता है। वेदों का धर्म यज्ञीय धर्म है। वेद व यज्ञ के द्वारा सबको परोपकार करने की प्रेरणा मिलती है। विश्व में जितने भी जड़ देवता है वह सब अपने गुणों से यही सन्देश देते हैं कि सभी मनुष्यों को परोपकारी होना चाहिये जैसे कि सभी 32 जड़ देवता परोपकार करते हुए दिखाई देते हैं।

यज्ञ अनेक प्रकार के होते हैं। महाराजा दशरथ का पुत्रेष्टि यज्ञ प्रसिद्ध है। स्वास्थ्य लाभ करने के लिए भी यज्ञ किया व कराया जाता है और आशानुकूल परिणाम प्राप्त होते हैं। प्राचीन काल में राजसूय यज्ञ, राष्ट्रमेध यज्ञ आदि भी किये जाते थे। शास्त्र व आप्त प्रमाण के अनुसार स्वर्ग वा सुख की कामना करने वाले मनुष्यों को यज्ञ करना चाहिये। यज्ञ करने वाले मनुष्यों के जीवनों में अनेक चमत्कार होते देखे गये हैं। वैदिक विद्वान श्री उमेशचन्द्र कुलश्रेष्ठ जी कहते हैं कि जिस परिवार में दो समय यज्ञ होता है वहां दरिद्रता व निर्धनता होने का प्रश्न ही नहीं होता। हमारे सामने ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहां कुछ वर्ष पहले के निर्धन लोग आज धनपति हैं। कारण उनका व उनके परिवारों का वेद प्रेम और यज्ञ प्रेम ही है। संसार में यज्ञ ही एक मात्र ऐसा कर्म है कि जिससे सहस्रों व लाखों प्राणी तो लाभान्वित होते ही हैं, यज्ञकर्ता के शत्रु भी यज्ञ से लाभ प्राप्त करते हैं। हमारा तो मत है कि यज्ञ करने वाले के शत्रु होते ही नहीं है ओर यदि कोई मूर्ख शत्रुता करता है तो वह नष्ट हो जाता है। अतः सच्चे यज्ञप्रेमी से किसी को भी शत्रुता नहीं करनी चाहिये।

हमने यज्ञ पर कुछ संक्षिप्त विचार प्रस्तुत किये हैं। हो सकता है आपको अच्छे लगे। शास्त्र यज्ञ को श्रेष्ठतम कर्म बताते हैं। हमें इस पर विश्वास कर अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिये जिससे हम तो लाभान्वित हों ही, हमारे आस पास के लोग भी हमसे लाभ ले सकेंगे। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य