सामाजिक

लेख– आधुनिक भारत का कहीं ख़्याली पुलाव तो तैयार नहीं हो रहा?

 न्यू इंडिया के तहत विकास का नया पैमाना सरकार द्वारा जिस वक़्त तैयार किया जा रहा है। उस वक़्त न्यू इंडिया के कोरे वादे और सपनों की हकीकत से पहले रूबरू होने की आवश्यकता है। अनियंत्रित जनसंख्या वृद्धि, प्रतिभाओं का अवमूल्यन, विस्फोटक बेरोजगारी, शिक्षा का सत्तानाश होता स्तर, न्यायालय में कुंद पड़ी न्याय दिलवाने की चाल, गुणवत्ता विहीन निचले दर्जें की चिकित्सा व्यवस्था, बढ़ती ग़रीब की मार, ऊपर से महंगाई का जिन्न, सत्तालोलुप होता लोकतंत्र, राष्ट्रीय समस्याओं की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर उपेक्षा हो, उस देश का भगवान ही मालिक हो सकता है। अभी तक कहा जाता रहा, कि आज का वर्तमान कल का भविष्य होगा। अब राजनीतिक सियासतदानों ने परिभाषा और परिपाटी दोनों ही रूपान्तरित कर दी है, कि भविष्य की सोचकर वर्तमान को क्यों बर्बाद किया जाएं। जो सरकारी तंत्र कुछ दिनों पहले जीएसटी में बदलाव के मूड में नहीं थी। वहीं अब तीन राज्यों की राजनीतिक बिसात पर कमल खिलाने के लिए अपने पैंतरे बदल रहीं है। फ़िर स्थितिवश क्या नई राजनीतिक पृष्ठभूमि तैयार की जा रहीं है। उसका पूर्वानुमान लगाया जा सकता है।

तीन राज्यों का चुनाव सियासतदारों के लिए अपने सितारों को भांपने का एक तरीका हो सकता है, क्योंकि भारतीय राजनीति वर्तमान दौर में बड़े राजनीतिक वाक युद्ध का सिरमौर बन चुका है। जिसमें अगर कोई मुद्दा गायब है, तो वह रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य का विषय, जो फ़िर से राजनीति का हिस्सा बनता नही दिख रहा। भले ही विपक्ष नोटबन्दी, जीएसटी और बेरोजगारी के बढ़ते स्तर पर सरकार को घेरने की गोलबंदी करती दिख रही है। लेकिन वास्तविकता का परिदृश्य इससे काफ़ी अलग मामूल पड़ता है। जिसको स्पर्श करते हुए बदलते भारत को जानना लोकतांत्रिक अधिकार है। जिस स्वच्छ भारत को सरकार अपने महत्वाकांक्षी सूची में रखती है, उस दौर में क्या लोकतंत्र को शर्मिंदा होने के लिए उत्तर प्रदेश के पीलीभीत का सरकारी फरमान काफ़ी नहीं। जिसमें खुले में शौच करने वाले साथ में खुरपी लेकर जाएं और शौच के बाद मल पर मिट्टी डालने का फरमान आता है। यह बदलते भारत की कैसी तस्वीर दिख रही है।

वहीं हाल चिकित्सा तन्त्र का भी है। जिसकी बानगी ओडिशा के गंजाम जिले में इंसानियत को शर्मसार करने वाली ख़बर से होता है जहां पर 80 वर्ष की मां का शव बांस में लटका कर ले जाना पड़ा। इसके अलावा चमकीली दिल्ली से सटे फरीदाबाद में अस्पताल प्रशासन द्वारा एम्बुलेंस न मुहैया कराए जाने पर एक व्यक्ति को अपनी नौ वर्षीय पोती का शव कंधे पर ले जाने को मजबूर होना पड़ा। उसके अलावा चमकदार इंडिया में अभी भी करोड़ों लोग खुले आसमान के नीचे भूखे पेट सोने को विवश हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार 2001 में सिर्फ स्लम में रहने वालों की संख्या 9.31 करोड़ थी , और यह 2017 तक 10.5 करोड़ हो जाना अनुमानित थी। यह देश का दुर्भाग्य ही नही, बल्कि देश मे लोकतंत्र के तले जनता कहाँ गुम हो गई, उसकी बानगी पेश करती है। आधुनिक भारत मे राजनीति भले अपने यौवनावस्था पर इतरा रही हो, लेकिन लोकतंत्र का पाया अभी भी कमजोर है, क्योंकि उसके मूल का शब्द जन की समस्याओं को हरने वाला लोकतांत्रिक सियासतदां कोई दिखता नही। बात भले राजनीतिक दल किसी बड़े महापुरुष की बात कर ले, उनके विचारों से आज की राजनीति का दूर-दूर तक कोई तालमेल नही। तभी तो स्वस्थ से लेकर शिक्षा, कृषि से लेकर सामाजिक सुधार सबकी हालत कुपोषित अवस्था जैसी है।

आजादी के 70 बरस बाद भी जिस देश में 36 करोड़ लोग गरीबी की रेखा से नीचे हैं। 6 करोड़ से अधिक रजिस्टर्ड बेरोजगार है। जहां सिंचाई मात्र 23 फ़ीसद खेतो तक पहुंच पायी है । उसके साथ जिस देश की आबादी में लगभग 65 फ़ीसद हिस्सा युवाओं का हो, और उच्च शिक्षा महज साढे चार फ़ीसद युवाओं को मयस्सर हो। साथ ही स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाएं मात्र ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर हो। फ़िर यह तय है, राजनीति भले कुछ भी करके अपने पर नाज़ करें, लेकिन उसके बहीखाते में आम जन की कोई रजिस्ट्री नहीं दिखती। नए होते भारत का काला सच इतना ही नहीं। जिस परिस्थिति में देश में सबको घर उपलब्ध कराने की बात सरकारें कह रही हैं। उस दौर में देश की आबादी का अधिकांश हिस्सा जेल में एक कैदी के लिए तय की गई मानक जगह से भी कम में गुजारा करने को मजबूर है। फ़िर बढ़ती जनसंख्या को क़ाबू करने पर भी विचार करना होगा? मॉडल प्रिजन मैनुअल 2016 के मुताबिक जेल की कोठरियों के लिए 96 वर्ग फुट जगह तय की गई है, ऐसे में अगर देश के लगभग 80 फ़ीसद लोग शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में औसतन 94 वर्ग फीट या उससे कम जगह में जीवन बीता रहे हैं। वैसी स्थिति में विकास के सारे वायदे धरे के धरे रह जाते हैं। औऱ बाकी का आंकलन राजनीति और आम जन खुद कर सकते हैं। कि कहीं सपने सुहाने लड़कपन वाली स्थिति देश की तो नहीं?

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896