सामाजिक

यदि पर्यावरण के लिए सही हो तो कोई समस्या नहीं

दीपावली पर आतिशबाजी हमारी परंपरा रही है, लेकिन समाज और देशहित में अगर कोई पहल हो। तो उसपर सामाजिक और धार्मिक स्तर पर मतभेद उत्पन्न होना सही नहीं। दीपावली के पहले जिस तरीके से पटाखों पर पाबंदी की बात की गई। उससे सवाल वाकई कई खड़े होते हैं। पहला सवाल क्या किसी एक चीज पर पाबंदी लगा देने से उस समस्या का समूल विनाश हो सकता है? और उत्तर अगर हां में है, तो ऐसे में फिर पटाखे बेचने पर महज दिल्ली और एनसीआर में ही पाबंदी क्यों? क्या देश के अन्य शहर प्रदूषण मुक्त हैं क्या? क्या देश के अन्य शहरों में आतिशबाजी से होने वाले प्रदूषण से लोगों को परेशानी नहीं होती होगी? क्या पटाखों की बिक्री पर रोक से ही प्रदूषण पर दिल्ली के आस-पास के क्षेत्रों में काबू पाया जा सकता है? प्रदूषण का कारक तो सीमित समय के लिए है, लेकिन हरियाणा और दिल्ली के आस-पास के वायुमंडल में धुएँ का कारण पराली जलाना भी है। क्या आज तक उसके निपटान का कोई कुछ तरीका ईज़ाद किया जा सका? पराली जलाने के कारण दो मुख्य समस्याओं से जूझना पड़ता है। पहला प्रदूषण का स्तर बढ़ता है, वहीं दूसरा जमीन का उपजाऊपन भी नष्ट होता है। और वास्तव में अगर पटाखे पर पाबंदी ही हर समस्या की मर्ज है? तो क्या बाद में यह घोषणा कि जाएगी, कि यह पाबंदी कितनी कारगर साबित हुई? या फ़िर ओड-ईवन की भांति इसके भी सार्थक नतीजों से आम जन अनजान रहेंगे।

सुप्रीम कोर्ट के सामने इसके पहले वर्ष 2015 में आतिशबाजी पर प्रतिबंध लगाने की सिफारिश की गई थी। तब अदालत ने इसे नकार दिया था। उसके बाद दीपावली के समय जब दिल्ली की हवा ज़हरीली हो गई, तो अदालत ने इसे गैस का चैंबर कहा था। उसके बाद 2016 में अदालत ने पहली बार दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों में पटाखों की बिक्री पर पाबंदी लगाई थी। इसके साथ ही अदालत ने केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को तीन महीने के भीतर इस पाबंदी से दिल्ली की आबो-हवा में होने वाले परिवर्तन की रिपोर्ट सौपने को कहा था। रिपोर्ट आज तक नहीं आ सकी। फ़िर मात्र पटाख़े को प्रदूषण के लिए दोष देना उचित नहीं। सुधरने को तैयार तो आज के दौर में हमारी राजनीतिक व्यवस्था और लोकतांत्रिक व्यवस्था के लोग नहीं। जो अधिकार के प्रति समर्पित और वातावरण के प्रति अपने दायित्वों को भूल जाते हैं। सबसे बड़ी समस्या यही है। सुप्रीम कोर्ट ने पटाख़े पर प्रतिबंध की बात की, तो उसमें भी कहीं न कहीं सम्प्रदायिक भाव पैदा हो रहा है। अगर देश की यह स्थिति है, फ़िर सुधार की उम्मीद धूमिल नज़र आती है।
रही बात परम्परा की तो अगर सुप्रीम कोर्ट भी मान रहा है, कि पटाखों पर पाबंदी अनिश्चित काल के लिए नहीं बल्कि इसे एक प्रायोगिक रूप से पटाख़ों से होने वाले अध्ययन के रूप में लिया जाए। फ़िर जनमानस का विरोध नहीं होना चाहिए।

इसके साथ क्या पटाखों पर बैन ही हर मर्ज का इलाज है? अगर यहीं आखिरी रास्ता है, तो उस पर अमल होना चाहिए। लेकिन दिल्ली के आसपास के वातावरण में वायु प्रदूषण में बढ़ोतरी का कोई एक कारण नहीं। गाड़ियां, और पराली जलाना भी समस्या को बढ़ाते हैं। त्यौहार में गाड़ियों की संख्या सड़कों पर बढ़ती है, जो भी समस्या को बड़ी बनाती है। फ़िर मात्र पटाख़े पर लगाम से ही प्रभाव नही पड़ने वाला। दिल्ली में दीपावली के इतर शादी-ब्याह में पटाखों का जमकर इस्तेमाल किया जाता है। फ़िर इस रोक से सवाल भी काफ़ी उठेगें, क्योंकि इससे एक ओर जहां लोगों की पटाखा जलाने की आज़ादी पर प्रहार हो रहा है, वहीं पटाखों की बिक्री पर रोक से करोड़ों की पटाखा इंडस्ट्री से जुड़े हजारों लोगों की आजीविका पर भी संकट पैदा हो जाएगा। आखिर नोटबन्दी और जीएसटी जैसे दंश तो देश के कारोबारी पहले से झेल रहें थे। ऐसे में अगर यह फैसला कुछ समय पहले लिया जाता, तो ज्यादा सार्थक हो सकता था।

पटाखों से निकलने वाले धुएं में हानिकारक गैसों के साथ भारी धातुओं जैसे लेड, क्रोमियम, जिंक आदि के छोटे-छोटे कण होते हैं। जो हवा में घुलकर उसे जहरीला बना देते हैं। पटाखों के जलाने से वातवारण में सल्फर डाई ऑक्साइड की मात्रा भी बढ़ जाती है। इससे श्वास नलिकाएं सिकुड़ने लगती हैं और सांस लेने में तकलीफ होती है। जो पुरूष और महिलाएं सांस संबंधी समस्याओं जैसे अस्थमा, साइनोसाइटिस, एलर्जी, सर्दी, न्यूमोनिया या एलर्जिक ब्रोंकाइटिस से पीड़ित हों उनके लिए यह स्थिति ज्यादा विकटता उत्पन्न करती हैं। सिर्फ धुंआ ही नहीं पटाखों से निकलने वाली तेज आवाज़ भी हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होती हैं। डॉक्टरों के मुताबिक 80 डेसिबल से अधिक की ध्वनि हमारे कानों को नुकसान पहुंचाती है। ऐसे में कई पटाखों की ध्वनि लगभग 140 डेसीबल तक होती है। जो मानव शरीर के लिए थकान, सिरदर्द, धुंधला दिखाई देना, भूख कम लगना जैसी समस्याओं की वाहक बन सकती हैं।

आज के दौरे में प्रदूषण एक गंभीर समस्या है, लेकिन क्या सिर्फ दिवाली के पहले पटाखों पर बैन करने से पर्यावरण शुद्ध हो जाएगा? इसके अलावा सवाल उठने की गुंजाइश तो फैसले से ही होती है, कि जब मात्र खरीदने पर प्रतिबंध है, फ़िर बाहर से लाकर या पहले से खरीदे पटाखों से दिल्ली को कौन बचाएगा, क्योंकि दिल्ली में पटाखों का कारोबार हफ्तों पहले से चालू हो जाता है, और दिल्ली से उत्तरप्रदेश ज्यादा दूर नहीं। जहां से पटाखें लाया न जा सके। फिर क्या यह फैसला कहीं कम सकारात्मक असर वाला तो नही होगा? और अगर फैसला आया भी, तो पूरे देश से ही नए इतिहास की कथा लिखी जाती तो ज्यादा बेहतर होता, क्योंकि प्रदूषण से अछूता कोई प्रदेश तो है नही। तो क्या अब इस बात का इंतजार होगा, कि दिल्ली की स्थिति अन्य राज्यों में निर्मित हो, और लोग प्रदूषण से मरे, फ़िर हम चेतेंगे? आज प्रदूषण वैश्विक समस्या बन गई है, इसलिए इसके सभी कारणों को खोज कर एक स्वच्छ और स्वास्थ्य समाज बनाने के लिए हमें तत्पर रहना होगा। बेजा के बवंडर उत्पन्न करने से कोई फायदा नहीं, और वैसे भी दीपावली दीपों का त्यौहार है, जो प्रकाश फ़ैलाने का काम करता है, किसी के जीवन में अंधकार नहीं।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896