उपन्यास अंश

इंसानियत – एक धर्म ( भाग – बयालिसवां )

मुनीर ने भी मौके की नजाकत को देखते हुए समझदारी से काम लिया और उसे पुचकारते हुए दुलार करते हुए बोला ” नहीं मेरी नन्हीं परी ! अब मैं तुमको और तुम्हारी मम्मा को भी छोड़कर कभी नहीं जाऊंगा । ”
इतने में रिक्शेवाले को डपटते हुए वह नेता सरीखा आदमी भी आकर मुनीर को सरकाकर रिक्शे पर बैठ गया । रिक्शेवाला भी अपनी सीट पर सवार होकर रिक्शे के पैडलों से जूझने लगा । रिक्शा तेजी से अस्पताल की तरफ बढ़ने लगी । साथ बैठे उस आदमी को देखकर नन्हीं परी ने नाक सिकोड़ लिया था । कुछ पल वह असमंजस में रही और फिर तेज स्वर में चिल्ला उठी ” रिक्शेवाले अंकल ! रिक्शा रोको ! ”
रिक्शेवाले ने तुरंत रिक्शे को हल्का सा ब्रेक लगाते हुए पूछा ” बोलो बिटिया ! क्या हुआ ? ”
” ये रिक्शे में आपने किसको बैठा दिया है ? ये पूरी रिक्शा तो हमारे लिए ही रहती है न ? ” उस नेता सरीखे आदमी का रिक्शे में बैठना उसे नागवार गुजर रहा था ,यह स्पष्ट दिख रहा था ।
” कोई बात नहीं बिटिया रानी ! ये अंकल आपके साथ अस्पताल जाएंगे । आपका इलाज कराएंगे और फिर अपने घर चले जायेंगे । ” रिक्शेवाले ने परी को समझाना चाहा था ।
” हमें किसी के मदद की जरूरत नहीं है । क्या तुम देख नहीं रहे हो हमारे पापा हमारे साथ हैं । इन अंकल से कह दो सीधी तरह से उतर जाएं हमारे रिक्शे से । नहीं तो हम अभी शोर मचा देंगे और आपकी भी शिकायत मम्मा से कर देंगे । ” नन्हीं परी ने स्पष्ट धमकी दी थी ।
अब तक खामोश रहा वह व्यक्ति अचानक कड़कदार आवाज में बोल पड़ा ” ऐ रिक्शेवाले ! खड़ी कर अपनी रिक्शा । उतरने दे हमें । हम भी कोई फालतू नहीं हैं । मदद ही करने जा रहे थे लेकिन अब तो जैसे भलाई का जमाना ही नहीं रह गया है । ”
रिक्शे के रुकते ही वह रिक्शे से उतरा और रिक्शेवाले से बोला ” बेटा याद है न तुझे ? तुझसे कुछ पुछताछ करनी है । आ जइयो इज्जत से मेरी ऑफिस पे । अगर हमें तुझे खोजना पड़ा तो फिर समझ जइयो । ”
रिक्शेवाले की घिग्घी बंध गयी थी । तुरंत ही उसने जवाब दिया ” नहीं साहब ! बस बिटिया रानी को अस्पताल से दवाइयां दिलाकर इनको घर छोड़कर सीधे आपके ऑफिस पर ही आता हूँ । ”
कहने के साथ ही रिक्शेवाले ने पैडल मार दिया था । लगभग पांच मिनट में ही रिक्शा डॉक्टर रस्तोगी की क्लिनिक के सामने रुकी ।
रिक्शेवाला रिक्शा सड़क के किनारे लगाकर सीधे क्लिनिक में घुस गया । मुनीर भी परी को गोद में लिए हुए क्लिनिक में दाखिल हुआ ।
क्लिनिक में सामने के हिस्से में मरीजों के बैठने के लिए बेंच रखी हुई थी । कुछ मरीज अपनी बारी की प्रतीक्षा में बैठे हुए थे । कमरे में एक कोने में एक लड़की जो शायद रिसेप्शनिस्ट थी एक गोल मेज के पीछे बैठी हुई थी । उसके पीछे के हिस्से में डॉक्टर साहब का कक्ष था । रिक्शेवाले ने कमरे में घुसते ही डॉक्टर के कक्ष से एक मरीज को निकलते हुए देखा फिर रिसेप्शनिस्ट की तरफ देखा और सीधे डॉक्टर रस्तोगी के कक्ष में प्रवेश किया । उसे देखते ही डॉक्टर साहब के चेहरे पर मुस्कान खिल गयी ” आओ बिरजू ! कैसे आना हुआ ? सब ठीक तो है ? ”
रिक्शेवाला बिरजू जो शायद थोड़ा पढ़ालिखा था बोला ” नमस्ते साहब ! आप भी न कमाल का सवाल पुछते हैं । ये बताइए सब ठीक रहेगा तो कोई आपके पास क्यों आएगा ? परी बिटिया को थोड़ी चोट लग गयी है । आप देख लीजिए । ” बिरजू की हाजिरजवाबी से मुस्कुराते हुए डॉक्टर साहब ने पुछा ” हां हाँ ! क्यों नहीं ! लेकिन है कहाँ ‘ परी ‘ बिटिया ? ”
बिरजू ने पीछे मुड़कर देखा लेकिन पीछे मुनीर को न पाकर उसने डॉक्टर के कमरे का दरवाजा खोलकर देखा । मुनीर परी को गोद में लिए हुए पहले कमरे में ही रुक गया था । बिरजू ने मुनीर को अंदर आने का ईशारा किया । कुछ सकुचाते हुए से मुनीर ने डॉक्टर के कक्ष में प्रवेश किया और इशारे से ही डॉक्टर का अभिवादन किया । मुनीर पर नजर पड़ते ही डॉक्टर रस्तोगी बुरी तरह चौंक गए । एक साथ कई सारे सवाल उनके दिमाग में बिजली की सी गति से कौंध गए । आंखों पर चढ़े चश्मे को निकालकर साफ करते हुए उनके चेहरे पर हैरानी का भाव स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा था । उनके चेहरे के बदलते भावों को देखकर बिरजू भी हैरान था लेकिन वह कुछ समझ नहीं सका । अपने मन के भावों को जज्ब करने का प्रयास करते हुए भी आखिर डॉक्टर साहब के मुख से अपुष्ट स्वर निकल ही पड़े ” ऐसा कैसे हो सकता है ? अमर की अन्त्ययात्रा में मैं भी तो साथ ही गया था और उसका दाहसंस्कार भी मेरे सामने ही हुआ था । फिर ये कौन है ? इसकी तो शक्ल सूरत ,कद काठी हूबहू अमर से मिल रही है । हे भगवान ! तेरे खेल निराले ! तेरी लीला तू ही जाने प्रभु ! ”
अगले ही पल मस्तिष्क में गूंज रहे विचारों को झटककर डॉक्टर साहब ने हल्के से सिर हिलाकर मुनीर के अभिवादन का उत्तर दिया और कुर्सी से उठकर मेज के पीछे से बाहर आ गए । परी को वहीं मेज पर बिठाकर डॉक्टर साहब ने पहले तो प्यार से उसके गालों पर थपकी देते हुए उसे दुलार किया और फिर पुछा ” बताओ बेटा ! कहाँ कहाँ चोट लगी है ? ”
परी जो अब सामान्य व खुश नजर आ रही थी , तपाक से बोल पड़ी ” डॉक्टर अंकल ! अब मेरे पापा आ गए हैं न तो मैं बहुत खुश हूं । बस आप ये समझ लो मुझे कुछ नहीं हुआ है । थोड़ी सी चोट लगी है ,ठीक हो जाएगी । ”
डॉक्टर साहब उसकी मनोदशा से अनजान न थे सो पुछ बैठे ” अच्छा ! बेटा ! यह तो बताओ ! आपको चोट कहाँ लगी है ? हम भी तो देखें ज्यादा लगी है कि थोड़ी ? ”
परी की सहमति के बाद डॉक्टर रस्तोगी ने उसके घुटने व कोहनियों में लगे जख्मों को अच्छी तरह साफ कर दवाइयां लगा दी । दवाइयां लगाने के बाद डॉक्टर ने एक सुई एहतियातन लगा दिया था । बड़ी मुश्किल से तैयार हुई थी परी सुई लगवाने के लिए ।
किसी तरह समझा बुझाकर परी का मलहम पट्टी करवाकर बिरजू और मुनीर क्लिनिक से बाहर आये । बाहर आकर मुनीर ने राहत की सांस ली । अब उसकी कोशिश थी किसी तरह परी को समझाबुझाकर बिरजू के साथ रवाना कर दे और फिर तो वह आजाद था । अंधेरा होने को था । अब बिरजू को अपने बारे में भी चिंता होने लगी थी । कहाँ जाएगा ? क्या खायेगा ? कहाँ सोएगा ? कुछ भी तो निश्चित नहीं था । बाहर निकलकर मुनीर ने अपनी गोद से उतारकर जैसे ही परी को रिक्शे में बिठाया वह थोड़ी सी कसमसाई और अगले ही पल आगे सीट पर आगे सरक गयी । मुनीर को अपने साथ बैठने का ईशारा किया था परी ने । मुनीर ने सोच रखा था कि परी को अस्पताल से दवाइयां दिलाकर बिरजू के साथ उसे घर भेज कर उससे अपना पीछा छुड़ा लेगा । लेकिन परी के ईशारे के साथ ही उसे अपना दांव उल्टा पड़ता दिखने लगा । उसने परी को पुचकारते हुए प्यार से समझाया ” परी बेटा ! आप बिरजू अंकल के साथ घर चलो ! हम एक जरुरी काम है निबटा कर आते हैं । ”

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।

6 thoughts on “इंसानियत – एक धर्म ( भाग – बयालिसवां )

  • विजय कुमार सिंघल

    बढ़िया रोचक कहानी !

    • राजकुमार कांदु

      आपका बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय !

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    राजकुमार भाई , बहुत ही दिलचस्प कहानी बन गई . नावल का मज़ा ही सस्पेंस से आता है किः आगे किया होगा .अब मुनीर विचार अजीब दुभिदा में फंस गिया किओंकी मुनीर की शकल परी के पिता जी से मिलती है .बहुत बदीया .

    • राजकुमार कांदु

      आदरणीय भाईसाहब ! आपकी यही शानदार प्रतिक्रियाएं मेरा उत्साहवर्धन करती हैं और फिर अगली किश्त तैयार हो जाती है । कृपा बनाये रखें । प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद ।

  • लीला तिवानी

    प्रिय ब्लॉगर राजकुमार भाई जी, हमेशा की तरह यह कड़ी भी बहुत सुंदर, रोचक व सटीक लगी, पिछली कड़ी के घटनाक्रम को देखते हुए हमें कहानी में यही ट्विस्ट आने का अंदाज़ा था. हमेशा की तरह एक-एक बारीकी पर नज़र रखते हुए भाषा-वैविध्य से इस कड़ी में रोचकता आ गई है. यथार्थ के दर्शन तो आपकी रचनाओं की विशेषता है ही. इंसानियत के प्रति जागरुक करने वाली, सटीक व सार्थक रचना के लिए आपका हार्दिक आभार.

    • राजकुमार कांदु

      आदरणीय बहनजी ! यह जानकर खुशी हुई कि आपकी पारखी नजरों कहानी में आनेवाले ट्विस्ट का बखूबी अंदाज लगा लिया था । कहानी में एकरसता से बचने के लिए कभी कभी तड़के नुमा ट्विस्ट की भी जरूरत होती है । फिलहाल कहानी इसी दौर से गुजर रही है । सुंदर व उत्शाहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद ।

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