कहानी

मन का डर

उमेश रोज प्रिया से निधि की बड़ाई करता और हर बार की तरह उसकी आँखों में ईर्ष्या देखने की कोशिश करता था। पर अफ़सोस कि प्रिया की आँखों में कहीं कुछ नजर नहीं आता था। जैसे मेरी पिछली जिन्दगी कोई मायने ही न रखती हो उसके लिए। मैं जिस लड़की के बारे में बता-बता कर उसे उद्धेलित करने की चेष्टा करता, वह पलटकर उसका नाम तक नहीं पूछती थी कभी भी।

सुना था स्त्रियाँ बहुत ईर्ष्यालु होती हैं। शायद गलत सुना था मैंने। कभी कभार तो वह मेरी बातों पर खिलखिला पड़ती और तुनककर कहती, “उसी से शादी करके उसे अपने घर ले आते ? तब आटे-दाल का भाव पता चल जाता तुम्हें।”

हर पल, हर जगह नाम लेते ही हाज़िर रहती प्रिया। माँ तो मेरी हँसी उड़ाते हुए कहती, “पत्नी नहीं यह, तेरी परछाई है, परछाई। कितनी सुघड़ और संस्कारी बहू है मेरी।” माँ को देखकर, पत्नी का मुस्कराना मुझे जैसे चुभ जाता। लगता जैसे प्रिया जता रहीं हो कि माँ मुझसे ज्यादा उससे प्यार करतीं है।

दिन ऐसे ही हँसते-खिलखिलाते हुए बीत रहे थे, एक दूजे के गुण-अवगुण गिनाते। जो बीत गया सो बीत गया। दस साल का समय बहुत होता है घाव भरने के लिए। सूखी पौध अब मेरे जीवन में पुनः हरी-भरी होकर नहीं लौट सकती। ऐसा लग रहा था, अपना जीवन शांत नदी की तरह बीत जाएगा। इसमें ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी चाहे तो तूफ़ान क्या थोड़ी हलचल भी नहीं ला सकतें। अपने खुशमय संसार के बारे में सोच-सोचकर उमेश हमेशा गदगद होता रहता था।

आँफिस से लौटते वक्त उमेश ने फिल्म की दो टिकट ले ली। सोचा प्रिया को बहुत दिन हो गए कोई भी फिल्म नहीं दिखायी| टिकट देखते ही वह खुश हो जाएगी |
घर पहुंचते ही सामने निधि को सोफ़े पर बैठा पाया। उसको देखते ही उसके साथ बीता समय जैसे आँखों के सामने से क्षण मात्र में ही गुजर गया। एक अजीब सा डर घर कर गया उसके मन में। ऐसा लगा मानों पैरों के नीचे से सहसा किसी ने जमीन खींच ली हो| निधि के साथ बैठी हुई प्रिया मुझे देखकर मुस्करा रही थी। लगा वह मुस्करा नहीं रही बल्कि कह रही हो अच्छा बच्चू, “तुम तो बड़े छुपे रुस्तम निकले | बड़े-बड़े गुल खिलाएं हैं तुमने तो|” उन पलों में मैं खुद को एक ऐसा चोर महसूस कर रहा था, जिसकी दाढ़ी में तिनका ही तिनका हो।

अब तक तो मैं अपनी पत्नी की अच्छाई का फायदा उठाते हुए हँस-हँसकर उसे निधि के बारे में कुछ सच बता रहा था तो बहुत कुछ छुपा रहा था। परन्तु लगा कि अब तो पोल पूरी तरह खुल ही जाएंगी। उस समय मुझे निधि किसी खतरनाक आतंकवादी सी लग रही थी। पुरानी प्रेम-कहानी कहीं हवा हो गयी थी।

प्रिया ने आवाज़ दे कर कहा, “अरे, आओ न, आकर बैठो भी। क्या आज आँफिस से आने पर थकान नहीं हो रही क्या ? खड़े-खड़े ही मिलोगे निधि से?”

उमेश आकर सोफ़े पर धम्म से बैठ गया तो प्रिया निधि से बोली, “निधि, ये मेरे पति उमेश हैं। और उमेश, ये निधि है, हमारी नयी पड़ोसन। दो घर छोड़ कर तीसरा जो खाली मकान था न, उसमें रहने आई है |”

उमेश के दिल का चोर अपनी पत्नी से आंखे चुराने पर मजबूर कर रहा था। उमेश के मन में डर बैठा था कि कहीं निधि ने बता तो नहीं दिया प्रिया को सब कुछ। ऐसा हुआ होगा तो प्रिया बाद में मेरी खूब ख़बर लेगी।

निधि जल्दी ही चली गई। उसके जाने के बाद उमेश थोड़ा सामान्य हुआ। प्रिया ने अगले दस-पन्द्रह मिनट तक कुछ नहीं कहा। सोते समय प्रिया पलंग के साइड टेबल पर रखी हुई फिल्म की टिकट देखकर बोली, “अरे, मेरी पसंदीदा फिल्म की टिकट लाये और बताए भी नहीं। फालतू चार सौ रुपए बर्बाद हो गए। तुम भी न बहुत लापरवाह हो।” कहकर वह उमेश की बाँहों में झूल गयी। परन्तु उमेश अभी भी गहरे ख़यालों में खोया हुआ था। उसे अपनी बांहों में कोई शरारती बच्चा झूलता सा महसूस हो रहा था जो कभी भी काट सकता था | थोड़ी देर तक साँस रोके वह उस घड़ी का इंतजार करने लगा | लेकिन हरकत न देख डरते हुए प्रिया पर नजर दौड़ाई तो वह सुकून से उसके बाँहों के आगोश में सो चुकी थी |

प्रिया जब-जब पूछती, “तुम्हें क्या हुआ है ? आजकल बुझे-बुझे से रहते हो !” उमेश आँफिस की टेंशन का बहाना बनाकर टाल जाता था।

एक हफ्ते ऐसे ही गुजर गए। हर दिन उमेश डरा-डरा सा रहने लगा था। जब-जब वह निधि को प्रिया के साथ देखता, अपने अपराधबोध से सहम जाता।

एक दिन दरवाजे पर ही निधि से उसका सामना हो गया। निधि उसकी ओर देख मुस्करा कर निकल गयी। उसे निधि का मुस्कराना ऐसा लगा जैसे वह कह रही हो, बच्चू आज भी बच गए हलाल होने से। पर कब तक बचते रहोगे ? या फिर उमेश के मन का चोर था, जो उसे चैन से रहने ही नहीं दे रहा था।

महीनों बाद जब उमेश ने चेहरे पर ख़ुशी की चमक लिए घर में प्रवेश किया तो उसके चेहरे पर रौनक़ देख प्रिया भी मुस्कराती हुई पूछ बैठी, “क्या बात है जनाब, आज तो दमक रहे हो ?” उमेश खुश होते हुए बोला, “जानती हो, मेरा ट्रांसफर हो गया है यहाँ से बहुत दूर, बैंगलूर के लिए। दो दिन के अंदर ही वहां जाकर ज्वाइन करना है।”

ट्रांसफर की बात सुनकर प्रिया के चेहरे की ख़ुशी काफूर हो गयी। उसे ऐसा लगा मानो तूफ़ान आ गया हो | उसकी बसी-बसाई गृहस्थी तहस-नहस होती हुई महसूस हुई। उसने जैसे अपने आप से ही पूछा, “दो दिन में ? दो दिन में कैसे हो पायेगा सब ? यहाँ जमी-जमाई गृहस्थी, मिंटी का स्कूल , माँ जी के डाक्टर…और तो और निधि जैसी सहेली और अच्छी पड़ोसन।”

पड़ोसन शब्द सुन उमेश ने मन ही मन सोचा- ‘वही तो मूल कारण है इस ट्रांसफर की। हमारी गृहस्थी में भूचाल भले आए पर हमारे संबंधों में भूचाल न आने पाए। इसीलिए यह ट्रांसफर बहुत जरुरी था मेरे लिए। मेरे सुखी संसार के लिए | निधि को लेकर मजाक करना अपनी जगह था, पर उसको सामने पाकर हर बार लगता कि मेरे चेहरे का मुखौटा अब उतरा कि तब उतरा।

सोच से बाहर आकर प्रिया से उमेश बोला, “अरे डार्लिंग, तुम चिंता क्यों करती हो। सब कुछ अरेंज कर दूंगा, तुम्हें जरा भी दिक्कत नहीं होगी। वहां तो स्कूल और डाक्टर सब यहाँ से अच्छे ही मिल जाएँगे।”

निधि को जब पता चला तो वह प्रिया से मिलने आई, परन्तु उसे मिल गया अकेला उमेश। दोनों ही एक दूजे को एक टक थोड़ी देर तक देखते रहे। दोनों के ही ख्यालों में पुराने मीठे दिनों की रिमझिम फुहार सी हुई। जल्दी ही निधि सहज होती हुई बोली, “उमेश, मैं तुमसे जबसे दुबारा मिली हूँ, देख रही हूँ तुम मुझसे कटे-कटे से रहते हो। क्या मुझे देख तुम्हें पुराने हसीन लम्हें ज़रा भी याद नहीं आते ? तुम्हारी आँखों में मैंने हमेशा डर ही देखा है, जबकि मैं प्यार देखना चाहती हूँ अपने लिए | मुझे लगा था कि तुम मुझसे मिलकर बहुत खुश होगें। पर नहीं, मैं गलत थी।

मुझे पता चला तुम अपनी पत्नी के साथ बहुत खुश हो। तुम्हारी पत्नी बता रही थी तुम हमेशा उसे हँसाते रहते हो। परन्तु मैंने महसूस किया है कि मुझे देख कर तुम्हारी हँसी विलुप्त सी हो गयी है। मैं समझ सकती हूँ। तुम डर रहे होगे कि कहीं मैं तुम्हारा राज फ़ाश न कर दूँ ?”

उमेश मंत्रमुग्ध सा सुनता रहा। वह न रो सकता था न अपनी सफाई में कुछ कह सकता था। बस सिर झुकाए सुन रहा था निधि की बातों को बड़े गौर से।

उमेश की तरफ देखती हुई निधि फिर बोली, “तुम मुझे समझे ही नहीं, उमेश ! यदि सबकुछ कहना होता तो कब का कह देती। जब तुम्हें देखा, उसी दिन बता देती कि तुम ही मेरे पति हो| जिसने मंदिर में मुझसे शादी की थी। तुमने ही मुझे छला है।
मैं तुम्हारें परिवार और ख़ासकर प्रिया के व्यवहार के कारण चुप रह गयी। सोचा जैसे दस साल तुम बिन अकेले बिता दिए, वैसे बाक़ी भी बिता दूंगी। तुम्हारी हँसती-खेलती गृहस्थी में आग नहीं लगाउंगी। पहले दिन तो तुम्हें देखकर बहुत क्रोध आया था, क्योंकि तुम बिना बताये ही मुझे मझधार में छोड़ आए थे। सोचा उसका बदला ले लूँ।”

उमेश ने भयभीत नजरों से निधि की ओर देखा, ओंठ बुदबुदाये| लेकिन आवाज नहीं निकली| वह फिर सिर झुकाकर बैठ गया |

“परन्तु बातों-बातों में माँ जी से पता चला कि तुम्हारी मज़बूरी थी प्रिया से शादी करना। तुमने अपने माता -पिता के सम्मान के लिए हमारे प्यार को ही भुला दिया था। माँ के कहने पर तुमने उनकी दूर की गरीब रिश्तेदार की बेटी से शादी कर ली। माँजी और प्रिया के अपनेपन के कारण मैं अपना बदला भूल चुकी थी। तुम्हारी मज़बूरी समझ में आ गयी थी मुझे। बस एक ही शिकायत थी कि कम से कम एक ख़त ही डाल देते मेरे नाम का।” आँसू कोर तक आकर जब्ज हो गये| अपने रुमाल से उसने आँखों कीनमी को सुखा लिया|

“उमेश, जहाँ कहीं रहो, खुश रहो। अच्छा हुआ तुमने जानबूझकर ट्रांसफर ले लिया। हो सकता था मेरे सब्र का बांध एक न एक दिन टूट जाता और तुम्हारी गृहस्थी बह जाती।”

यह कहते-कहते निधि की आँखों में आंसू आ गए। वह चाहते हुए भी उमेश से अपने आंसुओं को छुपा न सकी।

उमेश का मन ग्लानि से भर उठा | वह मरियल सी आवाज में बोला, ” कितना गलत था मैं औरतों के बारे में । सच है, औरतों को समझ पाना, मर्दों के बस की बात नहीं। समुद्र से ज्यादा गहरी होती हो तुम औरतें।

तभी बाहर से प्रिया आ गयी। माँ को सोफ़े पर बिठा कर निधि से गले लग कर बोली, “तुम कब आई ? मैं जरा डाक्टर के पास चली गयी थी माँ को दिखने। सॉरी यार, तुम्हें छोड़ कर जाना पड़ रहा है। पर मैं फ़ोन करती रहूंगी और जब भी दिल्ली आउंगी, तुमसे जरुर मिलूंगी। पक्का, क्यों उमेश ?”
उमेश ने भी मुस्करा कर हामी भरते हुए कहा, “हाँ, बिलकुल पक्का।”

अब उमेश के दिल से डर खत्म हो चुका था। वह कभी निधि को पहले प्यार करता था, अब उसका सम्मान करने लगा था। उसके दिल में औरतों के प्रति इज्जत बढ़ गयी थी। एक तरफ माँ, जो कि उसकी नजरो में सबसे अच्छी और प्यारी माँ थी। एक प्यारी पत्नी जो उसकी हर सही-गलत बात को भी हँसी में उड़ाकर खिलखिलाती रहती थी। एक प्रेमिका जो उसकी नजरो में पत्नी ही थी, भले समाज की नजर में न हो। जिसकी अच्छाई अब वह ताजिंदगी भूल ही नहीं सकता था।

और हाँ, एक नन्ही बेटी जो उसे दुनिया का सबसे अच्छा पिता बताते हुए, अपनी सहेलियों से लड़ पड़ती थी। आज उमेश खुद को दुनिया का सबसे ख़ुशनसीब इन्सान समझ रहा था।

नियत समय पर निधि से पूरा परिवार अनमने स्नेहिल शब्दों से विदा ले निकल पड़ा अपने नए गंतव्य बंगलौर की ओर। प्रिया और निधि दोनों उदास थीं। उमेश ने भी महसूस किया कि निधि से बिछड़ते हुए वह भी भीतर से बहुत उदास था।

 

*सविता मिश्रा

श्रीमती हीरा देवी और पिता श्री शेषमणि तिवारी की चार बेटो में अकेली बिटिया हैं हम | पिता की पुलिस की नौकरी के कारन बंजारों की तरह भटकना पड़ा | अंत में इलाहाबाद में स्थायी निवास बना | अब वर्तमान में आगरा में अपना पड़ाव हैं क्योकि पति देवेन्द्र नाथ मिश्र भी उसी विभाग से सम्बध्द हैं | हम साधारण गृहणी हैं जो मन में भाव घुमड़ते है उन्हें कलम बद्द्ध कर लेते है| क्योकि वह विचार जब तक बोले, लिखे ना दिमाग में उथलपुथल मचाते रहते हैं | बस कह लीजिये लिखना हमारा शौक है| जहाँ तक याद है कक्षा ६-७ से लिखना आरम्भ हुआ ...पर शादी के बाद पति के कहने पर सारे ढूढ कर एक डायरी में लिखे | बीच में दस साल लगभग लिखना छोड़ भी दिए थे क्योकि बच्चे और पति में ही समय खो सा गया था | पहली कविता पति जहाँ नौकरी करते थे वहीं की पत्रिका में छपी| छपने पर लगा सच में कलम चलती है तो थोड़ा और लिखने के प्रति सचेत हो गये थे| दूबारा लेखनी पकड़ने में सबसे बड़ा योगदान फेसबुक का हैं| फिर यहाँ कई पत्रिका -बेब पत्रिका अंजुम, करुणावती, युवा सुघोष, इण्डिया हेल्पलाइन, मनमीत, रचनाकार और अवधि समाचार में छपा....|