सामाजिक

बेफिक्रा बचपन और सयानी समझदारी

खुदा ना करे लेकिन भारतीय राजनीति की “जेल्टा” भी आज नहीं तो कल सुलट ही लेगी। आप लोग नहीं जानते हो तो मैं बता दूं की ये होने को तो बहुत बड़ी हस्ती है लेकिन मृत्यु परम् सत्य है और हर हस्ती से बड़ी भी लेकिन हर कोई झुक जाता है इसके सामने और जो नहीं झुकता है उसको ये ठोकर मार के झुका लेती है। तो सवाल ये है की बड़े होने के पैमाने क्या है, जब हम किसी के आगे झुक रहे है तो बड़ा तो वो हुआ ना, जिसके सामने हम झुक गये। जब हमको पता है की हम बड़े नहीं है, बड़ा तो कोई और ही है और ना हम उस से बड़े हो सकते है क्योकी बड़ा वो है और वो ही बड़ा रहेगा तो क्यो कोशिश करे जबरदस्ती में बड़ा बनने की।

यहाँ सबको बड़ा हो जाना है, बड़ा होना परिपक्वता का पर्याय माना गया है और परिपक्वता समझदारी का। ये सारी चूतिया चीजे एक दूसरे से गुँथी हुई सी है। छोटे बन के रहने में क्या समस्या है जब हम छोटे या सही अर्थों में बच्चे बन कर रह सकते है तो क्या चुळ मच रही है बड़े बन के समझदारी का तमगा छाती पे टांगने की। भाईयों और बहनो मेरे अनुसार तो बच्चा बन के ही रहने में भलाई है। क्योकी समझदारी का बोझ बहुत भारी होता है, इस समझदारी के चक्कर में कई बार वो काम भी करने पड़ जाते है जिनके लिये आपका दिल गवाही नहीं दे रहा होता है। वैसे समझदार हो जाने के कुछ विशेष फायदे भी नहीं है बस होता इतना है की जब अाप अपना समझ दारी का तमगा छाती पर टांग कर निकलते है तो कुछ बड़े वाले लोग जिनके पास समझ दारी अतिरेक में होती है आपकी पीठ पर एक दो धौल जमाते हुऐ आपके हल्के कंधो पर “शाबाशी” और टांग देते है।

अब सम्हाळो, समझदारी का बोझ कम था जो अब शाबाशी का वजन और लटकवा लिया। असली समस्या यहां से शुरू होती है छाती पे टंगे तमगे का सारे दिन ख्याल रखना पड़ता है और इस चक्कर में आपके ‘मजे’ और पुरसुकुन में चल रहे जीवन के “आनन्द” की माँ बहन होना शुरू हो जाती है और समय बीतने के साथ आप अनजान और समझदार से दिखने वाले अजनबी लोगो का भी ध्यान रखना शुरू कर देते है की वो क्या चाहते है। ठीक से नौ माह भी नहीं बीते होते है तथा समझदारी के सम्पर्क में रहने से हमको पता ही नहीं चलता है की जीवन के साथ कब क्या हो गया और सातवें महिने के आसपास ही ‘आनंद की माँ’ एक नयी और मेरे अनुसार बिल्कुल नाजायज सी अवधारणा का जन्म दे डालती है। जिसका नाम है,”लोग क्या कहेंगे”।

अब वजन बढ़ता ही जा रहा होगा ना। क्योकी अब आपको समझदारी, शाबाशी के साथ इस का भी ख्याल रखना पड़ता है की “लोग क्या कहेंगे”। समझदारी के साथ रहने पर आनंद जिसका दूसरा नाम” बचपन” भी है की लगातार माँ बहन होती रहती है और परिणामस्वरुप यहां धन दौलत मान सम्मान जैसी और भी भारी पैदाइशे इक्ट्ठा होती चली जाती है और जैसे जैसे समझ दारी ओर बड़ी होती चली जाती है परित्यक्त बचपन खुद को अकेला सा महसूस करने लगता है और एक दिन आपको छोड़ कर चला जाता है क्योकी आपका सारा ध्यान तो समझदारी मान सम्मान धन दौलत आदी के पालन पोषण में ही रह जाता।

फिर होता ये है की एक दिन किसी तन्हा से माहोल में आपकी समझदारी को कम्पनी देने अकेलापन और आ जाता है फिर आप जैसे बड़े लोग परेशान होकर कुछ इस तरह से बचपन को पुकारते उठते है….
“ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन
वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी”

लेकिन तब तक देर हो चुकी होती है क्योकी आपका बचपन पूरा ध्यान नही दिये जाने से नाराज हो चुका होता है। आप समझदारी और परिपक्वता को दूध पिला पिलाकर बड़ा करने में लगे रहते है और आपका बचपन आपको छोड़ कर जा चुका होता है।

यहाँ जितना जिया उसमें इतना ही समझ आया की बचपन और मृत्यु दोनो शाश्वत् सत्य है और सबको एक बार ही मिलते है। मुझे मेरा बचपन प्यारा है और मैं इसे खोना नहीं चाहता हूँ जब तक मृत्यु खुद आके इसे ना ले जाये। शायद आप आपकी बड़ी समझदारी के साथ उतने खुश हो ना हो जितना मैं अपने नादान बचपने के साथ बहुत खुश हूं। मेरी दौलत मेरा बचपन है और आपकी दौलत आपकी समझदारी है। जब तक बचपन बचा हुआ है मेरी दौलत बची हुई है और मैं किसी भी कीमत पर मेरी दौलत लुटने नहीं दूँगा। आपका आप जाने…. लगे रहो। “समझदारी की चूतियीपंती से नादानी का बचपना भला …..!”

राज सिंह

राज सिंह रघुवंशी

बक्सर, बिहार से कवि-लेखक पिन-802101 raajsingh1996@gmail.com