सामाजिक

लेख– राष्ट्रवादी भावना से पहले समुचित विकास की बात हो

आजादी के सात दशक गुजरने के बाद भी अनगिनत देशवासी रोटी, कपड़ा और मकान की जद्दोजहद में हैं। कुछ इतने भूखे हैं कि उन्हें रोटी का जुगाड़ पहले, औऱ धर्म-सम्प्रदाय बाद में दिखता है, लेकिन दुर्भाग्य देखिए लोकतांत्रिक सिंहासन का, वह धर्म और राष्ट्रवाद को पहले भूख से देखती है। लाखों लोग बेघर हैं, सड़क फुटपाथों पर खुले आसमान के नीचे ज़मीन को बिस्तर समझने को मजबूर हैं। लेकिन लज्जा और चिढ़ तो जब आती है, कि जिन पर इनके उत्थान और सामाजिक न्याय दिलाने की जिम्मेदारी होती है, वे धर्म, जाति की राजनीति से अपने सियासी चेहरे को चमकाने की कोशिश करते हैं। देश की वर्तमान राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था में बहुत से अंतर्विरोध देखने को मिल जाएंगे। सियासतदां बात महापुरुषों के विचारों की करते हैं, लेकिन उनके विचारों का अनुसरण शायद लोकतंत्र में हो रहा है, क्योंकि जो सामाजिक असमानताओं का पहाड़ दिखता है। उसकी निगहबानी तो यहीं स्थिति बयां करती है। हालिया स्विट्जरलैंड के मुख्य बैंक यूबीएस और पीडब्ल्यूसी की साझा वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार एशिया में कुल अरबपतियों की संख्या विश्व के लगभग 75 फ़ीसद हिस्से को ढकती है। इन अरबपतियों में अधिकांश चीन और भारत से हैं। जो देश को विकसित अवस्था की ओर बढ़ने का एहसास कराते हैं, लेकिन सिक्के के दूसरे पहलू को पलट कर देखें, जिसको देखने की आदी इस विकास पर इतराती हमारी सियासी व्यवस्था नहीं है, तो आजादी के 70 साल बाद भी देश की तस्वीर में वहीं मुंशी प्रेमचंद के उपन्यासों में वर्णित भारतीय परिवेश दिख जाएगा।

ऐसे में सवाल यहीं क्या सामाजिक असन्तुलन दूर करना लोकतंत्र का उद्देश्य नहीं रहा? क्या चुनावी जुमलेबाजी ही लोकतंत्र का आधार बचा है? क्या लोहिया, गांधी और दीनदयाल उपाध्याय के विचार मात्र वोट बनाने की मशीन बनकर रह गए हैं? उनके सपनों का भारत कहाँ है? जिसमें समाज के अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति का ज़िक्र होना चाहिए था। वह विचार कहीं धूल तो नहीं फांक रहा? अरबपतियों की संख्या बढ़ रही है यह अच्छी बात है, लेकिन क्या देश समुचित दिशा में आगे चहल-कदमी कर रहा है? भुखमरी अपने चरम पर है लाखों लोग आज भी फुटपाथ पर जिंदगी का गुजर बसर करने के लिए और स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए आज़ादी के सत्तर बसंत दिवस मनाने के बाद भी विवश और लाचार हैं। उनकी सुध क्यों नहीं ली जा रहीं है? स्वच्छ भारत में अभी भी शौचालय उपलब्ध नहीं हैं, युवा रोजगार की तलाश में भटक रहे हैं। फ़िर क्या माना जाए, लोकतांत्रिक व्यवस्था में अंतिम व्यक्ति तक विकास की हवा पहुचाने की इच्छाशक्ति कहीं लोकतंत्र से गुम तो नहीं गई? वर्ष 2015 में जहां दुनिया भर में 77.7 करोड़ लोग भूख के शिकार थे, वहीं 2016 में यह संख्या बढ़कर 81.5 करोड़ पहुंच गई। इस साल के वैश्विक भूख सूचकांक पर एक निगाहबानी करें, तो पता चलता है , भारत तीन पायदान नीचे लुढकर उत्तर कोरिया से भी पिछड़ गया है। यह दुखद स्थिति है, 119 देशों के आंकड़ों के सूचकांक में भारत 100 वें स्थान पर है और इसे गंभीर श्रेणी में रखा गया है। सबसे बड़ी चिंता इस बात की है, कि भारत भूख से लड़ने के मामले में दक्षिण एशिया में पाकिस्तान को छोड़कर अन्य देशों से काफी पिछड़ रहा है।

इस सूचकांक में पाकिस्तान जहां 106 वें स्थान पर है, तो चीन 29 वें, नेपाल 72 वें, म्यांमार 77 वें, श्रीलंका 84 वें और बांग्लादेश 88 वें स्थान पर। पिछले वर्ष भारत इस सूची में 97वें स्थान पर था। पिछले 12 वर्ष पहले 2006 में जब पहली बार यह सूची बनी थी, तब हम 97 वें स्थान पर थे। आज जब देश 100वें स्थान पर पहुँच गया है। तो सरकारी विकास की पोल भी खुल रही है। 2011 की जनगणना के दौरान देश में बेघरों की संख्या तकरीबन 17 लाख आंकी गई थी। रोटी कपड़ा और मकान के लिए देश की एक बड़ी आबादी संघर्ष कर रहीं है , तो दूसरी तरफ अमीर- गरीब की खाई लम्बी होती जा रहीं है। फ़िर विकसित होते भारत को एक खुशहाल और समृद्ध भारत कैसे मान लिया जाए? सियासत के बहुत से पन्ने बदलते देखें हैं, महापुरुषों का नाम लेकर संसद तक पहुँचते दल को देखा है। नहीं देखा तो देश की बदलती तस्वीर को । दर्द किसानों और गरीबों के दिल में है, तो चुनावी महफ़िल में उन्हीं को नेताओं द्वारा छले जाते हुए देखा है। आज़ादी के सात दशक बाद भी देश स्वास्थ्य के क्षेत्र में अभी लड़खड़ा रहा है। संक्रामक बीमारियों तपेदिक, मलेरिया, काला-अजार, डेंगू बुखार, चिकनगुनिया, जल जनित बीमारियां जैसे हैजा और डायरिया भारत में आज नवाचार और आधुनिक होते समाज को सता रही हैं। भारत में बीमारियों से होने वाली कुल मौतों में एक चौथाई मौतें डायरिया, सांस संबंधी दिक्कत, तपेदिक और मलेरिया से अगर हो रहीं हैं, फ़िर कारण साफ़ है, आधुनिक होने और विकसित होने के दिखावटी खाल ओढ़ लेने से स्थितियां बदलने वाली नहीं। देश में बढ़ता सामाजिक और आर्थिक असमानता भी बीमारियों का अहम कारण बनी हुई हैं। देश को आजाद हुए लगभग 70 वर्ष हो गए परंतु आज भी चिकित्सा के क्षेत्र में जरूरी सुविधाएं न होना, और ग़रीब तबके के लोगों का सरकारी व्यवस्था से महरुम होना समस्या को औऱ दुखदायी बना देता है।

देश के सियासतदां विकसित होने का रास तो रचते हैं, लेकिन वास्तविकता में देश में अब तक तीसरी दुनिया की कही जाने वाली अनेक बीमारियां व्याप्त हैं, जो काफी पहले ही विकसित देशों से विलुप्त हो चुकी हैं। फ़िर सरकारी नीति-नियंताओं की नीति और नीयत दोनों पर सवाल उठना शिद्दत से आवश्यक हो जाता है। यह आज़ाद देश की देशी राजनीतिक गुलामी ही है, कि समानता और बराबरी के हक की बात करने वाले संवैधानिक देश में आबादी का बड़ा हिस्सा बीमारियों से जूझता है और अस्पतालों में लंबी कतारों के साथ सुविधाओं का अभाव है। जहां अनेक परीक्षण उपकरण पुराने पड़ गए हैं। अपने देश में अस्पतालों और डॉक्टरों की उपलब्धता जनसंख्या के घनत्व के हिसाब से कम है और सरकारी अस्पतालों में स्वास्थ्य सुविधाओं, आधारभूत संरचना, चिकित्सकों, कमरों, दवाइयों, कुशल व प्रशिक्षित नर्सिग स्टाफ एवं अन्य सुविधाओं की कमी है। फ़िर स्वास्थ्य भारत की उम्मीदों पर पानी फ़िरता ही नज़र आता है। सरकारी तंत्र की सुस्त चाल कहें, या सामाजिक व्यवस्था के प्रति लापरवाही भरी रवायत कि, देश में स्वास्थ्य क्षेत्र को लेकर आज़ादी के बाद से नीति पर नीति बन रहीं है, लेकिन समाज के अंतिम तबके में खड़ा व्यक्ति समस्या के समाधन से महरूम ही रहा है।

राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 1983, राष्ट्रीय पोषण नीति 1993, राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति, भारतीय चिकित्सा, होम्योपैथी, दवा पर राष्ट्रीय नीति 2002, गरीब स्वास्थ्य बीमा योजना 2003, सरकार के सामान्य न्यूनतम कार्यक्रम 2004 में स्वास्थ्य को शामिल करना है। इनके अतिरिक्त राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन और सार्वभौमिक स्वास्थ्य योजना भी बारहवीं पंच वर्षीय योजना में शामिल हैं। 2017 में भी राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति लागू की गई है जिसका मुख्य उद्देश्य सरकार की भूमिका को स्वास्थ्य व्यवस्था के हर आयाम को प्रतिमूर्ति प्रदान करना है, लेकिन किसी न किसी कारणवश देश की स्वास्थ्य व्यवस्था की हालात मलिन ही है। इन सब बातों पर गहनता से विचार करने के बाद मंत्रियों और शीर्ष अधिकारियों को भी स्वयं वीआईपी संस्कृति से मुक्त होने के बारे में विचार करना चाहिए, क्योंकि आज भी देश की व्यवस्था उन्नति की चाहें जितनी ढींगे मार ले। वास्तविक धरातल तो बुंदेलखंड जैसे स्थान की ख़बर देख़कर लोकतंत्र एक बार फ़िर शर्मिंदा हुआ। उसके साथ मानवतावादी दृष्टिकोण की धज्जियां हवा में तार-तार हो गई। जब एक बेटा अपने पिता की मौत के बाद मानवता के नाते एम्बुलेंस के लिए चीख़ लगाई, लेकिन आधुनिक होते लोकतांत्रिक व्यवस्था और आम जनमानस को उसकी आवाज़ छू नहीं पाई। ऐसे में उसे अपने पिता की लाश को गोदी में उठाकर ढोना पड़ा। यह कोई हमारे समाज की पहली घटना नहीं है। अस्पताल प्रशासन मौत के बाद एम्बुलेंस की व्यवस्था लाश को घर ले जाने के लिए करता है। लेकिन जब समाज इस तरीके की घटनाओं से जर्जर होता है। तो मानवता को तार-तार कर देने वाली घटना सभ्य समाज के चौखट पर दस्तक देती है, कि वास्तविक स्थिति पर तो लोकतांत्रिक व्यवस्था में पर्दा डाला जा रहा है। डेंगू और स्वाइन फ्लू से विधायक और पूर्व मंत्री की मौत की खबर चिकित्सा व्यवस्था पर सवाल खड़े करती है। अपनी मृत पत्नी को 10 किलोमीटर कंधे पर लादकर ले जाने की खबर यह साबित करता है, कि विकास और समृद्ध होते भारत की दास्तान अधूरी है। जिसमें समाज का अंतिम व्यक्ति शामिल नहीं।

स्थितियां इससे भी बदत्तर मालूम होता है। जब पता चलता है, कि बचपन भी आज़ाद देश में गुमनाम होकर अपने होने पर लज्जा रहा है। सड़कों पर घुमते बच्चों को क्या नाम दे दें, लेकिन यह भी एक बदलते भारत की तस्वीर है, जिस ओर एसी में बैठी हमारी लोकतांत्रिक राजशाही व्यवस्था शायद देखना नहीं चाहती। इनका अपना कोई ठिकाना भी नहीं होता, कभी कोई फुटपाथ जिन बच्चों का बिस्तर, फ्लाईओवर जिनका छत और किसी तरह भूख शांत करना जिनका दैनिक उद्देश्य होता है, उनकी तरफ शायद हमारी व्यवस्था ने कानून बनाने के बाद कभी झांकने की कोशिश की ही नहीं। यह बदलते देश का नया वर्तमान औऱ बिता लोकतांत्रिक भूत रहा है। इन सडक़ के बच्चों की संख्या मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार दस लाख, तो वहीं गैर सरकारी संगठनों डॉन बॉस्को नैशनल फोरम और यंग एट रिस्क की ओर से देश के 16 शहरों में 2013 में कराए गए सर्वेक्षण के अनुसार महानगरों में सबसे ज्यादा बच्चे फुटपाथों पर रहते हैं। जिनके अनुसार दिल्ली में सबसे ज्यादा 69976 बच्चे ,मुंबई में 16059, कोलकाता में 8287 ,चेन्नई में 2374 और बेंगलूरु में 7523 बच्चे फुटपाथ पर रहते हैं। ये चंद उदाहरण हैं, यह स्थिति पूरे देश की शायद ऐसी ही हो सकती है। क्या इनको अपने अधिकारों के हिस्से का 5 फ़ीसद भी हक़ देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के मूल्यों की बात करने वाली रहनुमाई व्यवस्था दिला पाई। अगर यहीं समुचित विकास का लोकतांत्रिक पैमाना है, फ़िर यह समाज के अंतिम व्यक्ति के साथ सीधा लोकतांत्रिक छलावा है, जिसको दूर किए बिना और सबको समान रूप से दो वक्त की रोटी का इंतजाम किए बिना स्वस्थ और खुशहाल लोकतांत्रिक राष्ट्र की परिभाषा अधूरी ही लगेगी।

           

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896