कविता

शुक्रिया मेरी कलम

जब मैं छोटी थी बच्ची थी
चोक से सिलेट पर लिखा करती थी
कभी पेंसिल से लिख रब़र से मिटाया करती थी
कभी स्केच से रंगीन चित्रों को सजाया  करती थी
जब कलम मेरे हाथ आई तो समझी
अब बड़ी हो चुकी हूँ परिपक्व हो चुकी हूँ!

खुशी का कोई ठिकाना ना रहा
काले,ब्लू और लाल कलम से
कॉफी के पन्नों को गंदा कर डाला
मास्टर जी ने दाँट खुब लगाई
मम्मी भी गुस्से में आई तो
दिमाग में सारी बात समझ आई
कैसे मिटाऊँ इन आरी तिरछी रेखाओं को
क्योंकि बार बार कुछ भी लिखने पर
कॉपी गंदी हो जाती थी
दुकानदार से जाकर पूछा तो
वो बोला मिटाने की कोई दवा नहीं!

जब बड़ी होकर घर से बाहर गई तो
इरेजर भी कुछ होता है जाना
इसे लगा कर अपनी गतलियों को
छुपाया
विश्वास की कमी  सदा थी मुझमें!

कलम से कागज पर
कागज को कलम पर खुब़ लिखा
मैं चंचल भी और बड़बोल भी थी
मुझसे पाठ जल्दी याद नहीं होता था
कलम पर ढकन लगाना अकसर भूल जाया करती थी
आदत मेरी रूटिंग में अब तो बन गई
कलम यूँ ही जहाँ तहाँ बिखरी रहती थी
कभी बिस्तर के अंदर तो कभी बाहर
कभी किताबों के पन्नों में तो
कभी कॉपी के अंदर
ढ़कन का हाल तो बिन पेंदी के लोटे का था
झाडूँ के सहारे घर से बाहर निकल जाती थी
तो कभी कहीं खो जाती थी
कलम भी मेरे मुँह की तरह खुली रहना चाहती
ना मैं मुँह पर कभी जीप लगाती
ना कलम के ऊपर ढकन!

दोनों को खुली हव़ा बहुत भाती है
आज़ाद पक्षी जैसी रहना चाहती है
जब बोलती हूँ मै सच उगलती हूँ
जब लिखती हूँ कलम सच बकोरती है
वो मेरे अनुसार ढल चुकी है
जब कभी जो सुखने लगती है
मैं बच्चपन की तरह झाड़ फूंक कर इसे
फिर से चला देती हूँ
और वो भी चल देती है!

वो मेरी भावनाओं को समझती है
मैं भी उसे निर्जीव नहीं सजीव समझती हूँ
अपनी मुशीब़त की साथी समझती हूँ
कलम से कागज के लिखने के शौक़ ने
मुझे कवयित्री बना दिया है
अब और क्या कहूँ कलम ने
मुझे अपना दिवाना बना दिया है!

कुमारी अर्चना

कुमारी अर्चना

कुमारी अर्चना वर्तमान मे राजनीतिक शास्त्र मे शोधार्थी एव साहित्य लेखन जारी ! विभिन्न पत्र - पत्रिकाओ मे साहित्य लेखन जिला-हरिश्चन्द्रपुर, वार्ड नं०-02,जलालगढ़ पूर्णियाँ,बिहार, पिन कोड-854301 मो.ना०- 8227000844 ईमेल - kumariarchana720.ka@gmail.com