सामाजिक

लेख– क्या लोकतंत्र में चुनाव का मतलब सिर्फ़ सत्ता की चाबी हो गया है?

आज के दौर की सामाजिक स्थिति को देखकर लगता है। क्या आज़ादी बाद चुनाव मात्र सिंहासन बदलने भर की रवायत बनकर रह गया है, क्योंकि जो असन्तुलन की खाई समाज और राजनीति के बीच पनप रही है। उसको भरने की बात लोकतंत्र में होती दिखती नहीं। आज भी देश में जाति-धर्म की राजनीति जनसरोकार के मुद्दों पर हावी है। फ़िर चुनावी रणभेरी का कोई औचित्य नजऱ आता नहीं। ये सारे सवाल इसलिये क्योकि लोकतंत्र में चुनी सरकार का कार्य शिक्षा, स्वस्थ, बिजली पानी आदि जरूरी सुविधाओं को मयस्सर कराना होता है। मात्र सत्ता की चाबी हथियाना नहीं। लेकिन वास्तविकता के धरातल पर ये काम होते दिखते नहीं।

होता तो श्रम व रोजगार मंत्रालय की 2016 की रिपोर्ट के मुताबिक देश में बेरोजगारी दर 12.90 फ़ीसद न होती। लगभग नौ करोड़ किसान परिवारों की आय देश की औसत आय से भी कम नही होती। लोकतंत्र में सड़कों पर घुमते बच्चों को क्या नाम दे दें, लेकिन यह भी एक बदलते भारत की तस्वीर है, जिस ओर एसी में बैठी हमारी लोकतांत्रिक राजशाही व्यवस्था शायद देखना नहीं चाहती। ऐसे में इन चुनावों द्वारा कौन सा नव भारत का निर्माण हो रहा है पता नहीं। या फ़िर मात्र सत्ता परिवर्तन के साथ दलों का कुर्सी पर बैठने का क्रम चुनाव द्वारा बदल दिया जा रहा है। यह देश का दुर्भाग्य है, कि हर पांच वर्ष बाद नेताओं की अमिरियत आसमान छूती है, और ग़रीब और ग़रीब होता जाता है। चुनावी खर्च बढ़ जाता है, नहीं बढ़ता तो ग़रीब की आमदनी। यानी दुनिया में सबसे ज्यादा भूखे, मकान को तरसते लोगों के देश में चुनाव पर कैसे रुपयों की गंगा बहाई जाती है। उसका आंकड़ा हैरान करने वाला है।

देश के पहले आम चुनाव 1951-52 में 10 करोड 45 लाख , तो आर्थिक सुधार की नीतियों के लागू होने से पूर्व से 1991 के आम चुनाव में 3 अरब 59 करोड 10 लाख रुपये खर्च हुए। वहीं पिछले चुनाव 2014 के चुनाव में 34 अरब 26 करोड 10 लाख रुपये खर्च हुए। इन आंकड़ों को अगर कोई जोड़ने बैठ जाए, तो शायद देश की गरीबी इतने रुपयों से दूर हो जाती। शायद सभी के सिर पर छत होता। शायद भुखमरी से निपटने में यह पैसा लग जाता, तो देश कुपोषण से कब का मुक्त हो जाता। विश्व स्तर पर भूख को लेकर शर्मसार नहीं होना पड़ता। यह देश का दुर्भाग्य ही है, कि यह पैसा मात्र चुनावी लोकतंत्र को जिंदा रखने पर बह गए, जो मात्र जुमलेबाजी और आपसी सत्तालोलुप हो चले हैं। अब उसी जुमलेबाजी के चुनावी लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए गुजरात और हिमाचल प्रदेश चुनाव के लिए तैयार खड़े हैं। इनमें सिर्फ गुजरात में ही चुनाव कराने में ढाई अरब रुपये से ज्यादा देश के खर्च होगें । और चुनाव प्रचार में जब हर उम्मीदवार को 28 लाख रुपये खर्च करने इजाजत है , तो क्या सत्ता परिवर्तन की ताकत को ही लोकतंत्र मान लिया गया है। क्या सस्ते में चुनाव नहीं जीता जा सकता? इस रवायत को लोकतंत्र में बदलना होगा, क्योंकि यह रवायत समाज के अंतिम व्यक्ति के साथ सीधा लोकतांत्रिक छलावा है, जिसको दूर किए बिना और सबके लिए समान रूप से दो वक्त की रोटी का इंतजाम किए बिना स्वस्थ और खुशहाल लोकतांत्रिक राष्ट्र की परिभाषा अधूरी ही लगेगी।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896