सामाजिक

लेख– लोकतंत्र, चुनाव और मीडिया

आज के दौर की सामाजिक स्थिति को देखकर लगता है। क्या आज़ादी बाद चुनाव मात्र सिंहासन बदलने भर की रवायत बनकर रह गया है, क्योंकि जो असन्तुलन की खाई समाज और राजनीति के बीच पनप रही है। उसको भरने की बात लोकतंत्र में होती दिखती नहीं। वहीं
देश में मुख्यधारा की मीडिया में बाज़ारवाद की परिकल्पना बढ़ी है, लेकिन चिंता कि बात यह है, कि हमारे समाज और सियासतदारों के बीच कड़ी का काम करने वाली मीडिया अब टीआरपी पर ज्यादा टिकी हुई दिखती है। तभी तो जनसरोकार के विषय अब बाबाओं और चटपटेदार खबरों ने ले लिया है। आज देश की मीडिया में भी राष्ट्रवाद और राष्ट्रदोह का खटमल लग गया है। समाज को स्वतंत्र विचारों से रूबरू कराने की चाबी अब चैनल के मालिक की गोद से उठकर सत्ता के करीब जा रही है। फ़िर जनसरोकार की बात करना शायद संभव हो सके। देश की मीडिया जनसरोकार की खबरों से कन्नी कटती हुई दिखती हैं। जो कि एक स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी नहीं हो सकती। एक ओर आज भी देश में जाति-धर्म की राजनीति जनसरोकार के मुद्दों पर हावी है। वही विषय प्राइम टाइम के बहस का हिस्सा भी बन रहें हैं।

फ़िर चुनावी रणभेरी का कोई औचित्य नजऱ आता नहीं। ये सारे सवाल इसलिये क्योकि लोकतंत्र में चुनी सरकार का कार्य शिक्षा, स्वस्थ, बिजली पानी आदि जरूरी सुविधाओं को मयस्सर कराना होता है। मात्र सत्ता की चाबी हथियाना नहीं। और अगर सरकार भटक जाए, तो उसे रास्ता दिखाने का काम मीडिया का। लेकिन वास्तविकता के धरातल पर ये काम होते दिखते नहीं। आज की मीडिया भी भौतिकवाद के बाज़ार में अपने उद्देश्यों से समझौता करती दिखती है, जो स्वस्थ लोकतंत्र को कमजोर करने की बानगी बनने वाली है।  अगर लोकतंत्र में चुनाव जीतकर जनसरोकार की बात और मीडिया में सामाजिक मुद्दों पर बहस होती । तो श्रम व रोजगार मंत्रालय की  2016 की रिपोर्ट के मुताबिक देश में बेरोजगारी दर 12.90 फ़ीसद न होती। लगभग नौ करोड़ किसान परिवारों की आय देश की औसत आय से भी कम नही होती। लोकतंत्र में सड़कों पर घुमते बच्चों को क्या नाम दे दें, लेकिन यह भी एक बदलते भारत की तस्वीर है, जिस ओर एसी में बैठी हमारी लोकतांत्रिक राजशाही व्यवस्था शायद देखना नहीं चाहती।

ऐसे में इन चुनावों द्वारा कौन सा नव भारत का निर्माण हो रहा है पता नहीं। या फ़िर मात्र सत्ता परिवर्तन के साथ दलों का कुर्सी पर बैठने का क्रम चुनाव द्वारा बदल दिया जा रहा है। जिसके सारथी मीडिया भी बन रही है, जो पैसों के ख़ातिर चुनाव के पहले नेताओं का चरित्र निर्माण का काम कर रहीं है। यह देश का दुर्भाग्य है, कि  हर पांच वर्ष बाद नेताओं की अमिरियत आसमान छूती है, और ग़रीब और ग़रीब होता जाता है। चुनावी खर्च बढ़ जाता है, नहीं बढ़ता तो ग़रीब की आमदनी। यानी दुनिया में सबसे ज्यादा भूखे, मकान को तरसते लोगों के देश में चुनाव पर कैसे रुपयों की गंगा बहाई जाती है। उसका आंकड़ा हैरान करने वाला है। 
देश के पहले आम चुनाव 1951-52 में 10 करोड 45 लाख , तो आर्थिक सुधार की नीतियों के लागू होने से पूर्व से 1991 के आम चुनाव में 3 अरब 59 करोड 10 लाख रुपये खर्च हुए। वहीं पिछले चुनाव 2014 के चुनाव में 34 अरब 26 करोड 10 लाख रुपये खर्च हुए। इन आंकड़ों को अगर कोई जोड़ने बैठ जाए, तो शायद देश की गरीबी इतने रुपयों से दूर हो जाती। शायद सभी के सिर पर छत होता। शायद भुखमरी से निपटने में यह पैसा लग जाता, तो देश कुपोषण से कब का मुक्त हो जाता। विश्व स्तर पर भूख को लेकर शर्मसार नहीं होना पड़ता। यह देश का दुर्भाग्य ही है, कि यह पैसा मात्र चुनावी लोकतंत्र को जिंदा रखने पर बह गए, जो मात्र जुमलेबाजी और आपसी सत्तालोलुप हो चले हैं। और सच्चाई से रूबरू करने के बजाय देश में गोदी मीडिया में सत्ता साधना और मसालेदार ख़बरों की तस्दीक बढ़ रही है, तो फ़िर पंडित माखनलाल जैसे महान पत्रकारों के विचारों का क्या होगा? क्या पत्रकारिता का यही उद्देश्य था?

आज के दौर में ग़रीबी, और भुखमरी क्यों समाचार चैनलों का हिस्सा नहीं बन पा रही? आज वैश्विक खाद्य भंडार 72.05 करोड़ टन के साथ रिकॉर्ड तेजी से बढ़ रहा है। ऐसे में संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन का आकलन है कि पिछले 15 वर्षों में पहली बार भूख का आंकड़ा बढ़ा है। जो चिंता की लक़ीर सिकन पर लाने वाला होना चाहिए, लेकिन न सियासतदां को इस बात से कोई लेना-देना नज़र आता है, न ही समाज और सरकार के बीच संवाद स्थापित करने वाली मीडिया को। यह बड़ी अजीब बात है, जो मीडिया अपने को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहती है, वहीं सामाजिक मुद्दों पर बहस को तैयार नहीं दिखती। जब देश और समाज के लिए प्रोपेगैंडा और जनमत तय करने का काम मीडिया ही करती है। फ़िर जनसरोकार के विषय पर भी न्यूज़ रूम में लंबी-चौड़ी डिबेट होनी चाहिए। अब जुमलेबाजी के चुनावी लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए गुजरात और हिमाचल प्रदेश चुनाव के लिए तैयार खड़े हैं।

इनमें सिर्फ गुजरात में ही चुनाव कराने में ढाई अरब रुपये से ज्यादा देश के खर्च होगें । और चुनाव प्रचार में जब हर उम्मीदवार को 28 लाख रुपये खर्च करने इजाजत है , तो क्या सत्ता परिवर्तन की ताकत को ही लोकतंत्र मान लिया गया है। क्या सस्ते में चुनाव नहीं जीता जा सकता? इस रवायत को लोकतंत्र में बदलना होगा, क्योंकि यह रवायत समाज के अंतिम व्यक्ति के साथ सीधा लोकतांत्रिक छलावा है, जिसको दूर किए बिना और सबके लिए समान रूप से दो वक्त की रोटी का इंतजाम किए बिना स्वस्थ और खुशहाल लोकतांत्रिक राष्ट्र की परिभाषा अधूरी ही लगेगी। भारत भूख से लड़ने के मामले में दक्षिण एशिया में पाकिस्तान को छोड़कर अन्य देशों से काफी पिछड़ रहा है। इस सूचकांक में पाकिस्तान जहां 106 वें स्थान पर है, तो चीन 29 वें, नेपाल 72 वें, म्यांमार 77 वें, श्रीलंका 84 वें और बांग्लादेश 88 वें स्थान पर। पिछले वर्ष भारत इस सूची में 97वें स्थान पर था। पिछले 12 वर्ष पहले 2006 में जब पहली बार यह सूची बनी थी, तब हम 97 वें स्थान पर थे। आज जब देश 100वें स्थान पर पहुँच गया है। तो सरकारी विकास की पोल भी खुल रही है। और जनसरोकार से दूर होती पत्रकारिता के भी।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896