सामाजिक

लेख– कैसा समाज बना रहें हम, जिसमें बहन-बेटियां सुरक्षित नहीं

कैसा समाज बना रहें हैं। जिसमें न दुर्गा स्वरूपा मां सुरक्षित है, न कन्यापूजन के लिए घर हर घर में नवरात्रि में पूजी जाने वाली कन्या। यहां तक हिंदू मान्यता के अनुसार कहते हैं, मासूमों के ह्रदय में ईश्वर का निवास होता है। समाज की दरिन्दगी से पीड़ित वो मासूम बच्चियां भी हैं। फ़िर क्या हमारे समाज ने आधुनिक दौर में अपनी लोक-लाज और सामाजिक मर्यादाओं को खूंटी पर टांग दिया है। ऐसे में तो हमारी पुरातन स्थिति ही बेहतर थी, जिसमें इतनी गिद्ध दृष्टि से हमारा समाज पीड़ित तो नहीं था। इस कलुषित और अमर्यादित होती मानसिकता के लिए हर बार दोष तो न्यायिक व्यवस्था को दिया नहीं जा सकता। सामाजिक स्थिति की मनोदशा और संतुलन तो समाज का बिगड़ गया है। मेरठ में बीते दिनों एक दिल दहला देने वाली घटना सामने आई , जिसके बारे में सुनकर समाज के लोगों को सोचने पर मजबूर होना चाहिए, कि आखिर हम किस तरह के समाज में रह रहे हैं। या ताना-बाना बुन रहें हैं। जहां एक वहशी दरिंदे ने 100 वर्ष की बुजुर्ग महिला के साथ कथित तौर पर बलात्कार किया। वहीं ईलाज के वक़्त बुजुर्ग महिला की मौत हो गईं। यह हमारे बिगड़ते, नैतिक मूल्यों को खाक करते समाज की एक ज्वलंत घटना है। अंत नहीं। आज समाज का स्तर इतना गिर गया है, कि देश भर से प्रति दिन दो-चार घटनाएं कानों को भेदती रहतीं है, लेकिन समाज की सामाजिकता शायद कुम्भकर्णी नींद में है, जिसको इन असामाजिक कृत्यों की आवाज़ भेद नहीं पा रही है। ऐसे में जेहन में बहुत सारे सवाल कौंध उठते हैं, लेकिन शायद कोई सार्थक और कठोर पहल शुरु होती नहीं दिखती।

पहला सवाल यही ज़ेहन को कौंधता है, कि क्या इंसानी बस्तियों में वहशी दरिंदे बसने लगे हैं? क्या आधुनिक भारत में पराई बहनों और महिलाओं का यही भविष्य है? अगर यहीं वर्तमान आधुनिक भारत का भविष्य होने वाला है, तो ऐसी आधुनिकता से समाज को हाय- तौबा कर लेनी चाहिए। और क्यों नहीं इन घटनाओं के आरोपियों को ऐसी सजा न्याय व्यवस्था दे पाती, कि उसके बाद किसी की महिलाओं के साथ छेड़छाड़ करने की बात सोचने से पहले रुह कांप जाए। उपरोक्त घटना तो रात के अंधेरे में हुई, लेकिन अगर दिन के उजाले में समाज और नंगा उसके साथ जंगली हो रहा है, फ़िर यह वह भारत देश नहीं हो सकता। जिसके वेदों और पुराणों में माँ को देवी की प्रतिमूर्ति कहा जाता रहा है, क्योंकि समाज के द्वारा आज उसी मां की अस्मिता और आबरू के साथ अगर खिलवाड़ हो रहा है, फिर यह वह स्थिति है। जिसमें सामाजिक मानसिकता की धार कुंद पड़ गई है। फ़िर यह वह आधुनिक भारत है, जो पश्चिमी विचारधारा और अपने ऋषि-मुनियों की नैतिकता और सभ्यता को पैरों तले कुचलकर सभ्यता से फ़िर जंगली हो चला है। पिछले दिनों आंध्र प्रदेश के विशाखापट्टनम में दिनदहाड़े सड़क के फुटपाथ पर चल रही एक महिला के साथ रेप किया गया। इसमें सबसे ह्रदय-विदारक और दिल को दहला देने वाली बात यह रहीं, कि महिला का सरेआम दिनदहाड़े रेप होता रहा और लोग तमाशबीन बने रहे। दरिंदे से बचाने के लिए न तमाशबीन समाज के लोग सामने आए , न बचाने का कोई प्रयास किसी समाज के असामाजिक होते प्राणी ने किया। ऐसे में हमारा देश किस संस्कृति और सामाजिक उन्नति पर
आज के दौर में इठला रहा है, यह समझ नहीं आता।
बर्बरता और समाज की नैतिकता को करारा झटका तो तब लगा, जब मदद के लिए एक भी व्यक्ति सामने नहीं आया। और तो और समाज के रक्षक और समाज को न्याय के डंडे से सुधारने वाले महकमें को सूचित करने के बजाय सिद्दत से वीडियो बनाते रहे। वीडियो वायरल होने के पश्चात भले दरिंदे को गिरफ्तार किया गया हो, लेकिन मौके पर तमाशबीन लोगों की क्या पहली प्राथमिकता यही होनी चाहिए थी? यह उत्तर समाज को अपने-आप खोजना होगा।

वीडियो बनने में मशगूल सामाजिक व्यवस्था हमें यह बताती है, कि हम और हमारा समाज अपने समाज और परिवेश में घट रही घटनाओं के प्रति कितने तटस्थ और असंवेदनशील हो गए हैं। हमें अब आधुनिकता और स्वार्थी होते समाज में सामाजिकता का ख्याल शायद तभी आता है, जब मुसीबत का पहाड़ ख़ुद के परिवार या अपने ऊपर होता है। ऐसे में हम कैसे मान लें, कि हम आज भी उसी समाज में जी रहें हैं। जिसका वर्णन संविधान लिखते वक्त हम भारत के लोग, या फ़िर हिन्द देश के निवासी सभी जन एक हैं का जिक्र होता है। फ़िर समझ यही नही आता है। आधुनिकता के साथ शिक्षित होते समाज ने नैतिकता से मुंह मोड़ लिया है। जो चिंता की लकीर बौद्धिक समाज के समकक्ष होना चाहिए। आंध्रप्रदेश की घटना से दो बातें वास्तविकता के धरातल से निकलती दिखती हैं, पहली कि महिलाओं की अस्मिता और आबरू बड़े शहरों में भी सुरक्षित नहीं। दूसरी कि अब महिलाओं को अपनी आन-मान की रक्षा के लिए शक्ति का रूप ख़ुद को धारण करना होगा, क्योंकि समाज कितनी भी उन्नतशील और विकसित हो जाए। पुरुष की नज़र में शायद स्त्रियों की दशा नहीं बदल रही। अगर देश में निर्भया कांड के बाद भी महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं हो पा रहीं तो यह चिंता का विषय है, क्योंकि दिल्ली की घटना के बाद कई नये दिशा-निर्देश जारी किए गए थे। नाबालिग अपराधी से निपटने को लेकर बहस चर्चा का विषय बना था। कानूनी प्रावधान में बदलाव भी हुए थे।

राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2015 में महिलाओं के साथ रेप के 34651 मामले सामने आये थे। चिंता की बात है कि ऐसे मामलों में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। छेड़खानी के मामलों में तो काफी वृद्धि हुई है। वर्ष 2015 में महिलाओं से छेड़खानी के 82,422 मामले दर्ज हुए जबकि वर्ष 2011 में 42,968 छेड़छाड़ के मामले दर्ज किए गए थे। इससे साबित होता है, कि निर्भया कांड के बाद कानूनी प्रावधान में बदलाव भी महिलाओं को समाज में स्वछंद और स्वतंत्रतापूर्वक चलने की आज़ादी नहीं दिला सका है। बड़े दुःख और शर्मिंदगी का विषय यह है, कि आधुनिक होते भारत का वर्तमान महिलाओं के अधिकारों और अस्मिता के प्रति जागरूक नहीं दिख रहा। शिक्षा का स्तर भले बढ़ गया है, शहरीकरण बढ़ रहा है, लेकिन नीच मानसिकता और महिलाओं के प्रति घृणा भरी सोच को को पुरुष प्रधान समाज नहीं त्याग पा रहा है। इससे बड़ी शर्मिंदगी और सोचने को मजबूर करती बात है, कि किस दिशा में समाज भटक गया है, जो किसी महिला पर सरेआम अत्याचार हो और उसकी जिंदगी बर्बाद हो जाए, और अपने को सामाजिकता का बाप बोलने वाले देश के लोग मूकदर्शक बने रहें। समाज की ओर से कोई हस्तक्षेप , कोई उद्देलितपन न दिखे, कोई सामाजिक न्याय के लिए अन्याय के खिलाफ आवाज़ बुलंद न कर सके। यह सामाजिकता की निशानी नहीं। फ़िर तो समाज जंगली होता जा रहा है। यह रवायत जब तक समाज से दूर नहीं होगी, स्थिति औऱ नाज़ुक होती चली जाएगी।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896