सामाजिक

लेख– लोकतंत्र में जनता जनप्रतिनिधियों से प्रश्न क्यों नहीं करती?

लोकतंत्र में लोक और तंत्र के बीच में गहरी खाई पनपती जा रही है। लोकतंत्र के सारथी धनपति बनते जा रहें हैं, और समाज की अंतिम पंक्ति में खड़ा व्यक्ति आज भी मूलभूत सुविधाओं के लिए सिसक रहा है। ऐसे में क्या कभी हमारी सामाजिक व्यवस्था ने अपने अधिकारों और कर्तव्यों को तरजीह दी क्या। शायद दे देती, तो लोकतंत्र में व्याप्त कुछ समस्याएं जड़ से समूल नष्ट हो जाती। आज के दौर में दागी सांसदों की सदस्यता को लेकर सवाल उठ रहें हैं। यह समस्या कोई आज लोकतंत्र के समक्ष उत्पन्न हुई नहीं। ऐसे में शायद कुछ संकल्प हमारी सामाजिक व्यवस्था लोकतंत्र को मजबूत करने के साथ अपने कर्तव्यों को देखते हुए न सही, अपने अधिकारों के लिए लेती। तो आज लोकतंत्र सशक्त और मजबूत होता। जिससे संवैधानिक स्तर पर वर्णित समानता, और अवसर की समता की भावना भी बढ़ जाती।

                    दुनिया में वर्तमान समय में लगभग तीस से अधिक देश हैं, जहां मताधिकार का उपयोग करना कानूनी रूप से जरूरी है। जिसमें शुमार देश ब्राजील, सिंगापुर, ऑस्ट्रेलिया, अर्जेंटीना, इजिप्ट और साइप्रस जैसे देश हैं। बेल्जियम में 1892 में मताधिकार करना जहां कानूनी अधिकार बना। वहीं बोलिविया में मताधिकार नहीं करने वालों का तीन महीने का वेतनमान रोक लिया जाता है। फ़िर हमारे देश के नीति-नियंत्रणधारी ऐसा कोई कानून क्यों नहीं लाते, जिससे मतदान के दिन को छुट्टी का दिन आवाम न समझे। राजनीतिकर्ता द्वारा शायद इसलिए कोई कठोर कानून नहीं लाया जाता, क्योंकि इससे उनके सत्ता में आने के मौके कम हो सकते हैं। जब अनिवार्य मतदान वाले देशों में इस नियम की वजह से मत फ़ीसद चुनावों में बढ़कर 80 से 90 फ़ीसद हो जाता है। फ़िर देश में भी कठोर पहल की शुरूआत तो होनी चाहिए, क्योंकि मत प्रतिशत बढ़ने से जातिवादी मसीहा, और धर्म-सम्प्रदाय के बीज बोने वालों की दाल चुनावों में नहीं गल सकेगी। आज देश में स्थिति यह है, कि किसी राज्य-विशेष में चुनाव के वक़्त 65-70 फ़ीसद मत पड़ता है, जिसमें अगर किसी जाति-धर्म विशेष की संख्या अधिक है। फ़िर जनता के असल मुद्दे गायब हो जाते हैं, और 25-30 फ़ीसद मत पाकर बंदरबांट की राजनीति में दल अपने को सरताज़ समझ लेते हैं। यह व्यवस्था लोकतंत्र के लिए मीठा ज़हर है, जो लोकतंत्र को धीरे-धीरे वेंटिलेटर पर भेज रहा है। इससे बचने के लिए कड़वी दवा चुनावी तंत्र को पिलानी होगी। तभी लोकतंत्र में जनमहत्व के विषय शायद चर्चा के विषय बन सकें।

एसोसिएशन ऑफ डेमॉक्रेटिक रिफॉर्म्स की 2009 की रिपोर्ट के मुताबिक 2009 में 30 फीसदी सदस्य लोकसभा में ऐसे पहुंचे थे, जिनके खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज थे। वहीं 2014 में यह आंकड़ा बढ़कर 34 फ़ीसद के क़रीब पहुंच गया। वहीं आपराधिक प्रवृत्ति के प्रत्याशियों के जीतने की सम्भावना 13 फ़ीसद, और स्वच्छ, नैतिक छवि के प्रत्याशियों के चुनाव जीतने की सम्भावना मात्र पांच फ़ीसद रही। फ़िर लोकतंत्र के साए में अपने कर्तव्यों और अधिकारों से विमुख तो जनतंत्र ही हो चला है, जो एक तो मताधिकार का प्रयोग करता नहीं, और करता है, तो लालच या डरवश आपराधिक और मावली प्रवृत्ति के नेताओं को ही मत देता है। फ़िर गरीबी-अमीरी की खाई कहाँ से पट सकती है? आज देश का ग़रीब-मजदूर 32 रुपए दिन में गुजरा करने को विवश है। 19 करोड़ लोग जिस लोकतंत्र में भूखे, कुपोषित हैं। 17 फ़ीसद हिस्सा जीडीपी को देना वाला अन्नदाता किसी दल के घोषणा-पत्र की प्राथमिकता में नहीं। फ़िर कुबेरनाथ बनती सियासत पर लोकतंत्र क्यों इठलाता है। यह सोचनीय विषय हो जाता है। पिछले चुनाव 2014 में 34 अरब 26 करोड 10 लाख रुपये खर्च हुए। वहीं अब होने जा रहे, गुजरात और हिमाचल चुनाव में जब चुनाव आयोग ने तय कर दिया है, कि 28 लाख तक प्रत्याशी खर्च कर सकता है। तो लगता यही है, लोकतंत्र में अमिरियत तो दलों के सिर चढ़कर ही बोल रही है, जिसमें ग़रीब-मजदूर कहीं टिकता दिखता नहीं।

ऐसे में सवाल उठता है, क्या अब लोकतंत्र में अपने अधिकारों के लिए अलख जगाने के लिए जनता जागरूक होगी, और वह दरवाजे पर आए, नेता से सवाल कर पाएगी, कि भुखमरी, स्वास्थ्य विहीन, मूलभूत सुविधाओं से वंचित, जिस समाज में 58 फ़ीसद देश की संपत्ति कुछ हाथों में ही है। फ़िर इतने लाख रुपए बेजा खर्च क्यों? गुजरात में ही चुनाव कराने में अगर ढाई अरब रुपये से ज्यादा देश के खर्च होगें । तो सिर्फ चुनाव बाद जुमलों के लिए इतने रुपए खर्च क्यों किए जा रहें हैं? यह सवाल पूछने की हिम्मत समाज के लोगों को संगठित होकर राजनीतिक दलों से करनी चाहिए। इसके साथ अब जब गुजरात और हिमाचल चुनाव सिर पर है, तो जनमानस को अपने दरवाजे पर मत प्राप्त करने के उद्देश्य से आए जनप्रतिनिधियों और राजनीतिक दलों से नई रवायत के तहत कुछ सवाल पूछने चाहिए, तभी कमजोर होता लोकतंत्र, और पिछड़ते सामाजिक धारा को मुख्यधारा के सापेक्ष खड़ा कर सकते हैं। महिलाओं की सुरक्षा के दावे करने वालों में कुछ नेता तो खुद कथित आरोपी होते हैं, ऐसे में जनता को जनप्रतिनिधियों से पूछताछ करनी चाहिए, कि वे हमारी मां, बहन, बेटी की सुरक्षा की गारंटी सत्ता में आने के बाद लेंगें क्या? और अभी तक इस दिशा में क्या काम किया है।

हम बाज़ार से छोटी सुईं भी खरीदते हैं, तो उसके बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं, फिर अपना नेता चुनने में सवाल क्यों नहीं? नेताओं से सवाल करना समाज का फ़र्ज़ बनना चाहिए। रोजगार, शिक्षा उपलब्ध करने, स्वास्थ्य सुविधाओं को मुहैया कराने के लिए उसके पास क्या विजन है, यह जनता को अपने विधायक बनने जा रहे चौखट पर खडे नेताओं से पूछना चाहिए। एक उदाहरण समाज से ही लेते हैं, कि जब घर में कोई नई-नवेली दुल्हन आती है, तो उससे पूछते हैं, खाना बनाना आता है, या नहीं, फ़िर हम घर की चौखट पर खड़े नेता और दलों से देश, गली, समाज में बदलाव के लिए उसके विजन और लक्ष्य के बारे में क्यों नहीं पूछते? प्रत्याशी अपना हलफनामा चुनाव आयोग को देते हैं। क्यों नहीं इस बार से आवाम अपने जनप्रतिनिधियों से वादों और लक्ष्य की एक प्रति खुद मांगने की प्रथा शुरू करे। इसके साथ देश में ऐसा कठोर कानून बने, कि जो जनप्रतिनिधि अपने घोषणा-पत्र के पचास फ़ीसद कार्य न करें, उसे दुबारा चुनाव न लड़ने दिया जाए, और अगर कोई दल सत्ता में आने के बाद लगभग 40 फ़ीसद चुनावी घोषणा-पत्र को पूरा न करे, तो उस दल की सदस्यता कुछ वर्षों के लिए निरस्त कर दी जाए। इसके साथ अंकुश तो मतदाता पर भी लगें, जिससे मत प्रतिशत भी बढकर 85-90 फ़ीसद हो जाए। अगर इस तरीक़े का कुछ कड़वा घूट लोकतंत्र में चुनावी प्रक्रिया को पिला दिया जाए, और जनता अपने अधिकारों-कर्तव्यों को समझकर चले, तो लोकतंत्र की स्थिति में बदलाव दिख सकता है। साथ-साथ राजनीति में बढ़ता अपराधिकरण भी कम होगा, जाति-धर्म की राजनीति पर चोट के साथ लोकतंत्र में समावेशित विकास और अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति को भी पहली पंक्ति का हिस्सा बनाया जा सकता है।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896