सामाजिक

शोक सभाओं का बढ़ता चलन और शोक संतप्त परिवार

अपनों का बिछोह कितना कष्टप्रद होता है, कितना त्रासदायी होता है, यह वही व्यक्ति जानता है जो भुक्तभोगी है अर्थात जिसके परिवार में किसी की मौत होती है।निश्चित ही जब शरीर का साथ छोड़कर आत्मा ब्रह्मलीन हो जाती है तो इस नश्वर शरीर का कोई मोल नहीं रह जाता,फिर भी इंसान माया-मोह के बंधन से अपने आप को कहाँ मुक्त कर पाता है!यह सब जानते हुए भी कि मृत्यु के बाद शरीर नाशवान है और उसे मिट्टी हो जाना है; तब भी शरीर के अंतिम क्रियाकर्म  होने तथा उत्तर कार्य सम्पन्न होने तक शोक संतप्त परिवार के लिए धैर्य धारण करना कठिन होता है, ऐसे में निकट सम्बन्धी ,मित्र,बन्धु-बान्धव और समाज जन की महती भूमिका होती है; परिजनों को ढ़ाढ़स बंधाने में,वज्राघात सहन करने हेतु हिम्मत जुटाने में! और यह कार्य समाज जन बखूबी निभाते भी हैं किन्तु आजकल शमशान घाट पर शोकसभा करने का चलन बढ़ता जा रहा है।व्यक्ति जिस जाति-समाज का है,उस जाति-समाज के स्थानीय प्रमुख अंतिम संस्कार करवाने में तो महत्वपूर्ण भूमिका निभाते ही हैं,साथ ही अंतिम संस्कार की क्रिया पूर्ण होने तक अर्थात अग्निदाह सम्पन्न होने के पश्चात पंच लकड़ी की क्रिया होने के बीच के समय में शोकसभा भी आयोजित करने लगे हैं और समाज के पदाधिकारी मृतात्मा के सम्बन्ध में अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के साथ श्रद्धांजली अर्पित करते हैं और शोक संतप्त परिवार को ढ़ांढ़स बंधाने का कार्य करते हैं लेकिन क्या वास्तव में शोक संतप्त परिवार इसे अच्छे रूप में ग्रहण करता है या फिर अंतिम संस्कार के क्रिया कर्म में शामिल लोग इसे अच्छे रुप में ग्रहण करते हैं! शायद नहीं,क्योंकि शोक संतप्त परिवार तो पहले से ही दुखी रहता है और वह जानता है कि शोक सभा में जो भाषणबाजी की जा रही है वह पूरी तरह से थोथी है,इसमें बनावटीपन अधिक है!जो व्यक्ति मृतात्मा के बारे में अधिक जानकारी नहीं रखता है या फिर शोक संतप्त परिवार के बारे में अधिक नहीं जानता है, वह भी दो शब्द बोलने खड़ा हो जाता है।इन भाषणों की ओर शोक संतप्त परिवार के साथ ही अन्य उपस्थित जनों की भी कोई दिलचस्पी नहीं रहती,बावजूद इसके मर्यादावश सभी इसे सहते हैं।

शमशान घाट पर शोक संतप्त परिवार किसी भाषण को सुनने के पक्ष में नहीं रहता है; वह तो वहाँ और दुखी हो जाता है जब अपने ही जन को खाक होते देखता है, मिट्टी में मिलते हुए देखता है, तब वह कैसे अन्य बातों की तरफ अपना ध्यान केन्द्रित कर सकता है।साथ आने वाले अवश्य ही अंतिम संस्कार सम्पन्न होने तक का अपना समय इस भाषणबाजी में व्यतीत करते हैं लेकिन कुछ ही लोग इन बातों में मानसिक रूप से जुड़ पाते हैं क्योंकि अधिकांश को शमशान घाट में भाषणबाजी की बात नागवार गुजरती है।वैसे भी वहाँ होने वाला भाषण पूरी तरह औपचारिकता से अधिक कुछ नहीं रहता है।हम सब जानते हैं कि आजकल रिश्तों में ही अधिक गहराई नहीं रह गई है तब पास-पड़ोस,मिलने-जुलने वाले किसी भी परिवार से किस हद तक जुड़े रहते हैं, समझा जा सकता है।अपवाद हर जगह मिलेंगे।

इस भाषणबाजी में भाषण कला में निपुण लोग तो शब्दजाल का ऐसा तानाबाना बुनते हैं कि लोगों को लगता है कि मृतात्मा और उसके परिवार के बारे में उनसे ज्यादा कोई जानता ही न हो किन्तु ऐसे लोग भी शोक संवेदना प्रकट करने खड़े हो जाते हैं जिनका उस परिवार से कोई वास्ता ही न रहा हो।यहाँ तक देखा गया है कि मृत व्यक्ति के बारे में जानकारी न होते हुए भी दो शब्द कहने वाले व्यक्ति अपने आस-पास वालों से उसके बारे में वहीं जानकारी लेते देखे गए हैं।ऐसे औपचारिक सम्बन्धों का या औपचारिक शोक संवेदना प्रकटीकरण का क्या औचित्य है,वह भी ऐसी स्थिति में जब शोक संतप्त परिजन यह सब बातें सुनने की मनःस्थिति में नहीं होते हैं।

शमशान घाट पर अंतिम संस्कार के दौरान शोक भाषण दिया जाना क्यों आवश्यक है!क्या इसके स्थान पर समाज के पदाधिकारी शोक पुस्तिका नहीं रख सकते जिसमें जो भी व्यक्ति शोक संवेदना व्यक्त करना चाहता है, अपनीे भावाभिव्यक्ति शोक संदेश के रूप में दर्ज कर सकता है।यह अर्थपूर्ण प्रक्रिया होगी क्योंकि शोक पुस्तिका एक स्थायी अभिलेख  होकर चिरस्थायी स्मृति दस्तावेज़ के रूप में सुरक्षित रखा जा सकेगा।मृतात्मा के प्रति लोगों की भावना का प्रकटीकरण शब्दों में अभिलिखित रहेगा जो परिवार की महिला सदस्यों के द्वारा भी देखा जा सकेगा जो सामान्य तौर पर शमशान घाट नहीं जाती हैं।यही पुस्तिका बाद में मृत व्यक्ति के निवास पर शोक संवेदना व्यक्त करने आने वाले लोगों के लिए भी उपलब्ध करायी जा सकती है।इस तरह से यह एक स्थायी स्मृति अभिलेख के रूप में रह सकता है।

शोक भाषण तो शमशान घाट पर उपस्थित जन तक ही सीमित रहता है तथा यह शोक संतप्त परिजन के जेहन में स्थायी रूप से रहता भी नहीं है;किसने क्या कहा ,उस ओर उनका ध्यान भी नहीं जाता क्योंकि वे तो अपने परिजन के बिछोह में ही खोये रहते हैं; तब इस तरह के औपचारिक कार्य का क्या अर्थ रह जाता है।बेहतर होगा कि अंतिम क्रिया सम्पन्न होने तक उपस्थित जन श्लोक पढ़े,रामधून का पाठ करें।शोक सभाओं और शोक भाषण की शमशान घाट में महत्ता नहीं है,यह कोई सामाजिक-राजनीतिक मंच नहीं है, इसपर विचार किया जाना चाहिए।

*डॉ. प्रदीप उपाध्याय

जन्म दिनांक-21:07:1957 जन्म स्थान-झाबुआ,म.प्र. संप्रति-म.प्र.वित्त सेवा में अतिरिक्त संचालक तथा उपसचिव,वित्त विभाग,म.प्र.शासन में रहकर विगत वर्ष स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ग्रहण की। वर्ष 1975 से सतत रूप से विविध विधाओं में लेखन। वर्तमान में मुख्य रुप से व्यंग्य विधा तथा सामाजिक, राजनीतिक विषयों पर लेखन कार्य। देश के प्रमुख समाचार पत्र-पत्रिकाओं में सतत रूप से प्रकाशन। वर्ष 2009 में एक व्यंग्य संकलन ”मौसमी भावनाऐं” प्रकाशित तथा दूसरा प्रकाशनाधीन।वर्ष 2011-2012 में कला मन्दिर, भोपाल द्वारा गद्य लेखन के क्षेत्र में पवैया सम्मान से सम्मानित। पता- 16, अम्बिका भवन, बाबुजी की कोठी, उपाध्याय नगर, मेंढ़की रोड़, देवास,म.प्र. मो 9425030009