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वेद संसार के सबसे प्राचीन व महान ग्रन्थ हैं

ओ३म्

आज के संसार में सभी देशों में अनेकानेक विषयों के ग्रन्थों की निरन्तर रचना होने के साथ उनका अध्ययन अध्यापन भी किया जाता है। सभी देशों का अपना अपना इतिहास है और उसके अनुरूप वहां पर अपने अपने अर्वाचीन व प्राचीन ग्रन्थ भी हैं। ग्रीक, रोम व मिस्र की संस्कृति व सभ्यता को विश्व में प्राचीन माना जाता है। इन देशों में भी कुछ प्राचीन ग्रन्थ हैं जिनके रचना काल पर यदि वैज्ञानिक दृष्टि से विचार करें तो पता चलता है कि वह विगत 300 से 2000 व उससे कुछ अधिक वर्ष ही पुराने हैं। भारत संसार का सबसे प्राचीन देश है। प्राचीन देश होने के कारण यहां का साहित्य भी अन्य देशों से पुराना है। महाभारत का युद्ध भारत की भूमि पर लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व हुआ था। इस अवधि का कोई ग्रन्थ संसार के लोगों व किसी देश में नहीं है। भारत में महाभारत काल से पूर्व समय के भी ग्रन्थ विद्यमान हैं जिनमें बाल्मीकि रामायण, कुछ दर्शन व उपनिषद, ब्राह्मण ग्रन्थ, मनुस्मृति व आयुर्वेद आदि के ग्रन्थ हैं। भारत के इन सभी प्राचीन ग्रन्थों में वेद सबसे प्राचीन है क्योंकि वेद का उल्लेख महाभारत में भी है और रामायण व अन्य सभी प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है। यह तो सिद्ध है कि वेद सबसे अधिक प्राचीन हैं परन्तु यह कितने प्राचीन है इसका उत्तर महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन काल 1825-1883 में प्रवचनों व अपने लिखित ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि के द्वारा दिया है। ऋषि दयानन्द जी की मान्यताओं के अनुसार वेद सृष्टि की आदि में परमात्मा द्वारा उत्पन्न हुए हैं जो सभी सत्य विद्याओं की पुस्तकें हैं। अपने इस कथन को सत्य सिद्ध करने के लिए महर्षि दयानन्द जी ने ऋग्वेदादिभाष्य-भूमिका में प्रकाश डाला है। वेदों के की उत्पत्ति के काल के बारे में अनेक प्रमाण मौजूद हैं उसका संक्षिप्त उल्लेख करते हैं।

वेदों में कुछ मंत्र ऐसे हैं जिसमें कहा गया है कि वेद ईश्वर से उत्पन्न हुए हैं। चार वेदों के नाम भी वेद में आते हैं जिन्हें परमात्मा ने प्रादूर्भूत किया है। यह वेदों की स्वयं की साक्षी है। इससे बड़ा प्रमाण अन्य नहीं हो सकता। सृष्टि की उत्पत्ति एवं वेदों के आविर्भाव के बाद मनुष्योत्पत्ति हुई और इसके कुछ काल बाद ब्राह्मण ग्रन्थों की रचना की गई। चार वेदों का एक-एक ब्राह्मण है जिनकी रचना वेद ज्ञानी ऋषियों से हुई है। शतपथ ब्राह्मण में वेदोत्पत्ति के विषय में कहा गया है कि परमात्मा से चार वेदों का ज्ञान चार ऋषियों को मिला। ऋग्वेद का ज्ञान अग्नि ऋषि, यजुर्वेद का ज्ञान वायु ऋषि, सामवेद का ज्ञान आदित्य तथा अथर्ववेद का ज्ञान अंगिरा ऋषि को मिला। वेद अपौरुषेय ग्रन्थ है। इसका अर्थ है कि वेदों की रचना मनुष्यों से नहीं अपितु परमात्मा से हुई है। ब्राह्मण ग्रन्थ सृष्टि उप्पत्ति के बाद सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं जिनके रचयिता ऋषि अर्थात् मनुष्य हैं। इन ब्राह्मण ग्रन्थों में वेद उत्पत्ति की प्रक्रिया को बताया गया है एवं यह मुख्य प्रमाणों में से वेदों की रचना व उनकी उत्पत्ति काल का प्रमुख मानुषी प्रमाण है। इसी का उल्लेख स्वामी जी ने प्रमाण व विवरण के रूप में अपने सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों में किया है। मनुस्मृति भी सृष्टि के आदि काल के कुछ वर्षों बाद उत्पन्न ग्रन्थ है। समय समय पर इसमें प्रक्षेप भी हुए हैं। प्रक्षेपों का प्रमाण मनुस्मृति में परस्पर विरोधी कथनों का होना है। एक ही लेखक अपने ग्रन्थ में परस्पर विरोधी बातें नहीं लिखता व कहता है। यदि कहीं ऐसा हों तो यह लेखक से इतर व्यक्तियों के प्रक्षेप होते हैं। मनुस्मृति सहित ब्राह्मण ग्रन्थ, रामायण व महाभारत आदि में स्वार्थी विद्वानों ने स्व स्व मत की मान्यताओं का प्रक्षेप किया है। वेदों की उत्पत्ति के विषय में भी इसमें वही वर्णन है जो वेद व ब्राह्मण आदि ग्रन्थों के अनुरूप है। किसी मान्यता की सिद्धि में प्रत्यक्ष, अनुमान व आप्त प्रमाण मुख्य होते हैं। वेद व अन्य ग्रन्थों में जो प्रमाण उपलब्ध होते हैं वह इन्हीं कोटियों के प्रमाण है जिससे वेद सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर से उत्पन्न हुए सिद्ध होते हैं।

वेदों के उत्पत्ति काल पर भी ऋषि दयानन्द और आर्य विद्वानों ने विचार किया है। वेदों की उत्पत्ति का यह काल उतना ही पुराना है जितनी की इस सृष्टि में मानव की उत्पत्ति। ऋषि दयानन्द ने इसकी गणना कर इस अवधि का भी उल्लेख अपने ग्रन्थों में किया है। यदि इसके आधार पर वेदों की उत्पत्ति की काल-गणना की जाये तो यह 1,96,08,53,117 वर्ष अर्थात् एक अरब छियानवे करोड़ आठ लाख त्रेपन हजार एक सौ सतरह वर्ष होती है। इसका एक प्रमाण यह भी है कि वैदिक धर्मी पुरोहित जब भी अपने किसी यजमान के यहां कोई यज्ञ, संस्कार व अन्य अनुष्ठान कराते हैं तो आरम्भ में संकल्प सूत्र उच्चारित कराते हैं। इसमें वह एक एक दिन, माह व वर्ष बीतने के अनुसार संशोधन करते रहते हैं। इस संकल्प सूत्र पाठ के अनुसार भी मानव व सृष्टि की उत्पत्ति को 1.96 अरब वर्ष ही हुए हैं। इन सब प्रमाणों से वेद संसार के सबसे प्राचीन ही नहीं अपितु सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर से उत्पन्न हुए ग्रन्थ सिद्ध होते हैं। इस कारण वेद का जो महत्व है वह संसार के किसी ग्रन्थ का नहीं है। वेद सर्वतोमहान ग्रन्थ हैं।

वेदों के विषय में अन्य अनेक रहस्यों का प्रकाश ऋषि दयानन्द जी ने अपने ग्रन्थों में किया है। आश्चर्य है कि आज का संसार स्वयं को सत्य का मानने वाला व पक्षपात रहित कहता है परन्तु वैदिक धर्म की वेदोत्पत्ति काल व सृष्टि काल के विषय में सत्य मान्यताओं का न तो वह खण्डन ही कर पाता है और न ही उसे स्वीकार कर पाता है। ऐसा करने से उनके अपने अपने अर्वाचीन मतों का महत्व समाप्त होता है। ऋषि दयानन्द के वेद प्रचार से यह सिद्ध हो चुका है कि वेदतर सभी मत सत्य व मिथ्या मान्यताओं के संग्रह मात्र हैं जिनमें सत्य सिद्धान्त कम तथा कहानी किस्से अधिक हैं। मत-मतान्तरों के आचार्यों को यह स्वीकार करना पड़ता है कि उनके मतों की उत्पत्ति विगत 2500 वर्षों से लेकर 500 वर्ष पूर्व तक होती रही है। 2500 वर्ष से कुछ पूर्व का पारसी मत है व अन्य सभी मत उसके बाद के हैं। इन सब मतों से पूर्व का मत वैदिक धर्म है जो कि सृष्टि के आरम्भ से संसार में विद्यमान रहा है। वेदों की सभी मान्यतायें व सिद्धान्त सत्य, वैज्ञानिक मापदण्डों पर खरे और अकाट्य तर्कों पर आधारित है। एक यह भी तथ्य है कि वेदों के आविर्भाव से ही मनुष्यों को संसार की पहली मातृभाषा वेद भाषा मिली थी। आज की अन्य सभी भाषायें वेद भाषा के ही विकार हैं। वेद वह ग्रन्थ हैं जिनसे ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति का यथार्थ स्वरूप विदित होता है। मनुष्य इस संसार में क्यों व किस उद्देश्य से आता है, इसका ज्ञान भी वेदाध्ययन से ही होता है। वेदों के अनुसार आत्मा अनादि, नित्य, अविनाशी, अमर सत्ता है जो शान्ति व मोक्ष की यात्रा कर रही है और इसी कारण कर्मानुसार इसका बार बार भिन्न भिन्न योनियों में जन्म व मृत्यु होती रहती है। वेदाध्ययन से यह भी ज्ञात होता है कि आत्मा परमात्मा की उपासना व सद्कर्मां को करके ईश्वर साक्षात्कार कर सकता है जो मोक्ष का कारण व आधार होता है। ऐसे अनेक प्रश्नों के उत्तर किसी मजहबी ग्रन्थ से नहीं अपितु केवल वेद और वैदिक साहित्य से ही मिलते हैं। अतः संसार के अनेकानेक रहस्यों को जानने के लिए सभी मतों के मनुष्यों को सत्यार्थप्रकाश सहित ऋषि दयानन्द के सभी ग्रन्थों के अध्ययन के साथ वैदिक साहित्य का अध्ययन करना चाहिये। तभी मनुष्य जीवन की सार्थकता व सफलता होती है। इसी के साथ इस चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।