उपन्यास अंश

इंसानियत – एक धर्म ( भाग – चौवालिसवां )

बिरजू और परी को बंगले के अंदर जाते हुए नंदिनी कुछ देर खड़ी देखती रही । मुनीर के दिमाग में विचारों के अंधड़ चल रहे थे । ‘ नंदिनी उससे क्या बात करना चाहती है ? जाने कैसा व्यवहार करेगी ? ‘ उसे ज्यादा सोचने का वक्त भी नहीं मिला । नंदिनी का बदला हुआ व्यवहार उसे हैरान करने के लिए काफी था । जहां अभी कुछ देर पहले उसके चेहरे पर खामोशी में भी एक दृढ़ता नजर आ रही थी अब उसके चेहरे पर कृतज्ञता के भाव नृत्य कर रहे थे ।
” परी ने आपको ज्यादा परेशान तो नहीं किया ? बड़ी जिद्दी हो गयी है । लेकिन उसे भी भला कैसे पता चलेगा कि आप उसके पापा नहीं हो । आपकी सूरत ही उनसे इतनी मिलती जुलती है कि एक बार तो मैं भी धोखा खा गई थी । खैर ! परी की वजह से आपको जो परेशानी हुई उसे मैं समझ सकती हूँ और इसी लिए आपसे क्षमा मांगती हूँ । आपने ……” नंदिनी ने मुनीर से क्षमा याचना करते हुए उसका परिचय जानना चाहा था कि मुनीर बीच में बोल पड़ा ” नहीं मैडम ! मुझे परी से कोई परेशानी नहीं हुई । बड़ी प्यारी बच्ची है और उसकी बातें तो उससे भी प्यारी ,तो भला कोई उससे परेशान कैसे हो सकता है ? आप सही कह रही हैं मैडम ! अब भगवान की क्या मर्जी है यह तो वही जाने मेरी सूरत ऐसी बनाने के पीछे , लेकिन यह तो साफ समझा जा सकता है कि इसमें परी बिटिया की कोई गलती नहीं है । ”
नंदिनी खामोशी से उसकी बात सुनती रही और फिर धीरे से बोली ” यह तो आपका बड़प्पन है , लेकिन मुझे कम से कम आपका धन्यवाद अदा कर ही देना चाहिए । आपका बहुत बहुत धन्यवाद …..! अरे हाँ ! क्या नाम बताया था आपने अपना ? ”
अचानक यह अप्रत्याशित प्रश्न सुनकर मुनीर के बदन में सिहरन सी दौड़ गयी लेकिन अपने मन के भावों को चेहरे पर प्रतिबिंबित होने से बचाते हुए मुनीर ने निर्विकार रूप से कोरा झूठ नंदिनी के सामने परोस दिया ।
” रमेश ! रमेश नाम है मेरा ! ” न जाने किस रौ में बहते हुए मुनीर ने साफ झूठ बोल दिया था । क्यों ? यह वह खुद भी नहीं समझ सका था । तभी बिरजू नंदिनी के नजदीक पहुंचते हुए बोला ” जी मालकिन ! बेबी को उनके कमरे में पहुंचा आया हूँ । कहिए ! क्या बात करनी थी आपको ? ”
नंदिनी ने घूम कर बिरजू की तरफ देखा ” कोई खास बात नहीं । बस तुमसे यही कहना था कि अब हमें तुम्हारे सेवाओं की कोई जरूरत नहीं है । अपने लिए कोई अच्छी सी दूसरी नौकरी खोज लो और यहां से चले जाओ । ”
नंदिनी की दो टूक सुनकर जहां बिरजू स्तब्ध रह गया मुनीर भी सकते में आ गया । नंदिनी आखिर ऐसा क्यों कह रही है ? क्या आज की घटना के लिए ? लेकिन इसमें उसका क्या दोष ?
अगले ही पल बिरजू गिड़गिड़ा उठा ” क्यों मालकिन ? हमसे कौनो गलती हो गयी क्या ? ”
” हाँ मैडम ! क्या बिरजू से कोई गलती हो गयी ? या फिर आज की दुर्घटना के लिए और देर से आने के लिए आप बिरजू को दोषी मान रही हैं ? ” मुनीर ने भी कुछ न समझने का भाव चेहरे पर लाते हुए नंदिनी के इस अप्रत्याशित फैसले की वजह जानना चाहा ।
” नहीं नहीं ! ऐसी कोई बात नहीं है । आज की सारी बात हम जानते हैं । डॉक्टर साहब ने फोन पर सारी बात पहले ही बता दिया था । अपनी नन्हीं सी गुड़िया को लगी चोट के बारे में जानकर हम परेशान हो गए थे और बड़ी बेसब्री से बाहर आकर उसीका इंतजार कर रहे थे । हम जानते हैं पूरे घटनाक्रम में बिरजू की कोई गलती नहीं है उल्टे हम उसके अहसानमंद हैं कि उसने इतने अपनेपन और जिम्मेदारी से गुड़िया का इलाज करवाया । हम उसे सेवा से मुक्त करने के लिए मजबूर हैं । बस ! हमें उससे कोई शिकायत नहीं है । ” नंदिनी ने अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाही ।
लेकिन उसकी बातें न तो बिरजू समझ पाया और न ही मुनीर के कुछ पल्ले पड़ रही थीं । सो अपनी आशंकाओं पर विराम लगाने की नीयत से मुनीर नंदिनी से पूछ बैठा ” हम आपकी बात समझ नहीं पाए मैम …..”
नंदिनी उसकी बात काटकर बीच में ही बोल पड़ी ” मैम नहीं …नंदिनी ! नंदिनी नाम है मेरा । दरअसल बिरजू की सेवा भावना और उसके कार्यों से हम बहुत खुश हैं और हम आपने आपको खुशकिस्मत मानते हैं कि बिरजू के रूप में हमें एक ईमानदार व सच्चे इंसान की सेवाएं मिलीं । लेकिन हमारी भी कुछ मजबूरियां हैं । आप लोग कुछ समझते क्यों नहीं ? ”
अब मोर्चा बिरजू ने संभाला था ” लेकिन मालकिन ! आप अभी मेरी इतनी तारीफ कर रही थीं । अपने घर के सदस्य जैसा समझती हैं तो इस नाते क्या मुझे इतना भी हक़ नहीं कि मैं आपकी किसी मजबूरी या परेशानी के बारे में जान सकूं ? ”
नागवारी के साथ ही पीड़ा के भाव उभर आये थे नंदिनी के चेहरे पर । अब उसका स्वर धीमा पड गया था । दर्द में भीगा नंदिनी का स्वर खामोश वातावरण में गूंज उठा ” कह तो तुम ठीक रहे हो बिरजू ! हमारे बाबूजी ने कभी किसी नौकर को नौकर नहीं वरन अपने घर के सदस्य की तरह रखा है । उनसे प्यार से व इंसानियत से पेश आये और हमें भी वही शिक्षा दी जिसे हमने बखूबी ग्रहण किया । हम आज भी तुम्हें अपने घर के सदस्य जैसा ही समझते हैं और इसीलिए तुम्हारे भले की कह रहे हैं ….”
बिरजू नंदिनी की बात बीच में ही काटते हुए बोला ” हमारे भले की बात ? हम कुछ समझे नहीं मालकिन ? आपकी सेवा न करने से भला हमारा क्या और कैसे भला हो जाएगा ? ”
नन्दिनी दृढ़ता से अपनी बात पर कायम रहते बोली ” हां ! तुमने सही सुना है बिरजू ! हम तुम्हारे भले के लिए ही अपने यहां से जाने के लिए कह रहे हैं । हम नहीं चाहते कि कल को तुम भी हमारे साथ मुसीबतों का बोझ उठाते हुए थक जाओ और अपनी जिंदगी से निराश हो जाओ । समझे ? नहीं समझे ? ”
बिरजू बेवकूफों की तरह पलकें झपकाते हुए मासूमियत से बोला ” बिल्कुल नहीं मालकिन ! मैं कुछ नहीं समझा । आप पहेलियां क्यों बुझा रही हैं ? साफ साफ बताती क्यों नहीं ? ”
” तुम शायद ठीक कह रहे हो बिरजू ! मुझे तुमसे सब कुछ साफ साफ बता देना चाहिए । तो ध्यान से सुनो ! ” कहते हुए नंदिनी बंगले के बरामदे की तरफ बढ़ने लगी । ” तुम शायद नहीं जानते ! तब तुम्हारे पिताजी जिन्हें हमारे घर में सब लोग प्यार से ‘ रामु काका ‘ कहते थे तुम्हारी जगह थे । उनके साथ ही दो और मुलाजिम भी इस बंगले में रहते थे । हमारे ससुर कर्नल साहब की समाज में जो हैसियत , इज्जत व रुतबा थी वह तो देख ही चुके हो । सेना से अवकाश पाकर उन्होंने इन हसीन वादियों में बड़े प्यार से यह बंगला बनवाया था । सेना से अवकाश के बावजूद उनको मिलने वाली पेंशन की रकम हमारे छोटे से परिवार की जरूरतें पूरी करने के लिए काफी थी । और फिर हमारी शादी से पहले परी के पापा अमर भी सेना में लेफ्टिनेंट के पद पर चुन लिए गए । जिंदगी अपने ढर्रे पर चलने लगी थी । कहीं कोई तकलीफ नहीं , किसी चीज की कमी नहीं थी । शादी के दो साल बाद हमारे प्यार की बगिया में एक नन्हा सा फूल खिला जिसका नाम अमर ने ही बड़े अरमान से परी रखा । परी के रूप में भगवान ने हमें जीता जागता खिलौना दे दिया था जिसे अमर हद से ज्यादा प्यार करते थे । कभी छुट्टी न लेनेवाले अमर अक्सर गुड़िया की याद आते ही छुट्टी लेकर घर चले आते । अपनी एक भी छुट्टी व्यर्थ नहीं गंवाते । बड़ी अच्छी तरह से जिंदगी का सफर कट रहा था कि हमारी खुशियों को पता नहीं किसकी नजर लग गयी …” कहते हुए नंदिनी का स्वर भर्रा गया था । आंसू पलकों के किनारे तोड़कर छलक पड़ने को बेताब हुए जा रहे थे ।

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।

6 thoughts on “इंसानियत – एक धर्म ( भाग – चौवालिसवां )

  • लीला तिवानी

    प्रिय ब्लॉगर राजकुमार भाई जी, हमेशा की तरह यह कड़ी भी बहुत सुंदर, रोचक व सटीक लगी, पूरी कड़ी बहुत खूबसूरत बन पड़ी है. कहानी में एक नया मोड़ आ गया है, साथ ही खूबसूरती और रोचकता कायम है. इतनी नायाब कड़ी के लिए बधाई व अभिनंदन. इंसानियत के प्रति जागरुक करने वाली, सटीक व सार्थक रचना के लिए आपका हार्दिक आभार.

    • राजकुमार कांदु

      आदरणीय बहनजी ! जिस तरह बस में बैठे मुसाफिरों को किसी मोड़ पर हल्के से झटका लगा कर चालक नींद से जगाए रखता है उसी तरह कहानी में भी एकरसता से बचाव के लिए खूबसूरत मोड़ देना आवश्यक लगा । आपको पसंद आया यह जानकर अच्छा लग रहा है । सुंदर , सटीक व उत्शाहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आपका हृदय से धन्यवाद ।

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    राजकुमार बहके ,कहानी दिलचस्प होती जा रही है और सस्पैंस भी कायम है . बहुत सुन्दर वर्णन किया आप ने . आगे जान्ने की उत्सुकता है .

    • राजकुमार कांदु

      आदरणीय भाईसाहब !बेहद शानदार प्रतिक्रिया द्वारा उत्साहवर्धन के लिए धन्यवाद ।

  • विजय कुमार सिंघल

    कहानी विस्तार ले रही है। पर रोचकता बनी हुई है। ध्यान रखें कि कहानी अधिक बोझिल न हो जाये।

    • राजकुमार कांदु

      जी आदरणीय ! कहानी की रोचकता बनाये रखने की भरपूर कोशिश है । एक फौजी के शहीद होने के बाद उसके परिवार के हालात पर चर्चा करते हुए कहानी फिर अपने मूल मुद्दे पर केंद्रित हो जाएगी । उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया व मार्गदर्शन के लिए आपका हृदय से धन्यवाद ।

Comments are closed.