कहानी

जमानतदार

अब मैं उसे हैरानी के साथ देखने लगा था..! और वह भी कपाल में गहरी धँसी मिचमिचाती आँखो से अपनी निगाह मुझ पर स्थिर किए हुए था…और इसी के साथ वातावरण में निस्तब्धता सी छा गई थी।
उसने मुझसे गरीबी वाला राशनकार्ड बनवा देने की बात कहा, तो मैंने उससे यही पूँछा था, “क्या तुम्हारे पास पहले बीपीएल कार्ड था? उसने “हाँ” कहा था। “क्यों कटा तुम्हारा राशनकार्ड?” मेरे इस प्रश्न के उत्तर में उसने यही बताया था कि वह जेल चला गया था।
हाँ, यही बात तो मुझे हैरान करने वाली थी…आखिर इस मरियल से बूढ़े व्यक्ति ने ऐसा कौन सा अपराध कर दिया होगा कि जेल की सजा इसे काटनी पड़ी..! जेल जाना और गरीबी में क्या संबंध है कि जेल जाने से इसे बीपीएल राशनकार्ड से महरूम कर दिया गया..! हो सकता है यह कोई ऐसा अपराध कर बैठा हो जिसके कारण बीपीएल कार्ड के लिए आपात्र मान लिया गया हो..!! लेकिन भला कोई अपराध करना इस बेचारे के बूते में होगा..?
हलकू… हलकाई…बारेलाल..ऐसा ही इसका कोई नाम हो, माना उसका नाम हलकाई ही रहा होगा; और वह यही तो बता रहा था कि तीन साल वह जेल में रह कर आया था और इसी बीच उसका राशनकार्ड काट दिया गया था।
उसे देखते हुए, कुछ क्षणों बाद मैं अपनी विचारनिमग्नता से उबरकर उससे पूँछा था, “तुम्हारे पास जमीन-वमीन तो कुछ होगी..?” उसने बताया कि वह भूमिहीन है, पहले तीन-चार बीघे की काश्त थी, जो अब दूसरे के नाम हो चुकी है। इसके बाद मैंने उससे यही प्रश्न किया था, “तुमने जमीन क्यों बेंची?” मेरे इस प्रश्न उत्तर उसने कुछ ऐसा दिया…

अनपढ़ तो था ही वह, लेकिन सीधा-सादा भी था। कोई कुछ भी कह दे, वह सुन लेता। उसका विवाह नहीं हुआ था और अकेले ही जैसे-तैसे करके अपना जीवनयापन कर रहा था। उसके पास जो तीन-चार बीघे की खेती थी वह भी बुंदेलखंड में पड़ते सूखे की भेंट चढ़ जाती या फिर वृद्धावस्था के कारण खेती करना उसके वश में नहीं था। बाद में ग्राम पंचायत ने उसका बीपीएल राशनकार्ड बनवा दिया था। तब कहीं जाकर उसकी समस्या हल हुई थी।

गाँव का नत्थू, जो थोड़ा अकड़ूँ स्वभाव का था, और जो उम्र में उससे छोटा था, अकसर वह हलकाई से चुहलबाजी करता और उसमें विवाह की ललक जगाता। मतलब गाँवों में ऐसे व्यक्तियों से लोग अकसर हँसी-मजाक करते रहते हैं। और, इधर विवाह की बात सुन बेचारे हलकाई के मन में बुढ़ौती में लड्डू भी फूटने लगते। धीरे-धीरे नत्थू और हलकाई के बीच ऐसे ही प्रगाढ़ता बढ़ती गई थी।

एक दिन सबेरे-सबेरे कुछ हैरान-परेशान सा नत्थू उसके पास आया था। नत्थू ने हलकाई से अपनी परेशानी का कारण, अपने किसी रिश्तेदार को जेल से छुड़ाने के लिए कोई जमानतदार न मिल पाना बताया था। नत्थू चाहता था कि हलकाई उसके रिश्तेदार की जमानत ले ले। इसपर हलकाई ने अपनी गरीबी का हवाला देते हुए कहा था कि उसके पास क्या है कि वह किसी की जमानत लेगा। तब नत्थू ने हलकाई को याद दिलाते हुए कहा था, “नहीं दादा तीन-चार बीघे जमीन तो आपके पास है ही, और पचास हजार की ही तो जमानत है” सीध-सादा हलकाई धीरे-धीरे नत्थू की बातों पर भरोसा करने लगा था, इस भरोसे के कारण ही बातों में आकर हलकाई जमानत लेने के लिए तैयार हो गया था।
नत्थू हलकाई को लेकर एक दिन जेल भी हो आया था। जेल में बंद अपने रिश्तेदार से मिलवाते हुए हलकाई से कहा था, “देखो, दादा यही हैं हमारे रिश्तेदार, इन्हीं की जमानत लेनी है।” बाद में हलकाई की जमीन की मालियत पचास हजार ठहराते हुए जमानत के कागज तैयार कराए गए थे। उस दिन न्यायालय में जज ने हलकाई पर निगाह डालते हुए पूँछा था, “तुम इसे जानते हो?” इसपर हलकाई ने “हाँ” में सिर भर हिलाया था। बस नत्थू के रिश्तेदार को जमानत मिल गई थी। इसके बाद तीनों शहर के ही एक होटल में छक कर भोजन किए थे। उस दिन हलकाई से पूँछ-पूँछकर उसे मनपसंद की चीज खिलाई गई थी। तीनों फिर खुशी-खुशी गाँव लौट आए थे।
जमानत लिए हुए पाँच-छह महीने हो गये थे। लेकिन उस दिन पहली बार हलकाई को देखने के बाद भी नत्थू मुँह मोड़कर चला गया था! जबकि पहले यही नत्थू हलकाई के साथ घंटों हंसी-मजाक करते हुए चिपका रहता और उसे अपने घर ले जाकर खाना वगैरह भी खिला देता था। हलकाई कितना भी सीधा-सादा हो लेकिन नत्थू का आज का यह व्यवहार उसे कचोट गया था। हलकाई का पूरा दिन अनमने ही बीता था। अभी इस घटना के बीते चार ही दिन हुए होंगे, जब हलकाई गाँव के कोटेदार के यहाँ से अनाज लेकर आ रहा था। रास्ते में ही पड़ोसी बुधुवा का बेटा रमइया जो कक्षा सात में पढ़ता था, दौड़ते हुए उसी की ओर आते हुए दिखाई दिया था। पास आते ही हांफते हुए वह बोला था, “दादू..आपके घर पुलिस आई है..वे आपको बुला रहे हैं..”
सुनकर हलकाई का दिल धक् से रह गया था। “पुलिस..!! पुलिस क्यों आई है..?” उसके समझ में कुछ नहीं आया…आखिर उसे पुलिस क्यों ढूँढ़ रही है? किसी तरह हाँफते-कांपते वह घर पहुँचा तो देखा, दरवाजे पर दो पुलिसवाले खड़े हैं.. उन्हें देखकर उसकी तो जैसे सिट्टीपिट्टी ही गुम हो गई थी। वह कुछ बोल ही नहीं पा रहा था। अनाज का झोला वहीं पास की झिंलगी चारपाई पर रख वह पुलिस वालों के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो गया था। तभी एक पुलिस वाले की कड़क आवाज गूँजी थी, “क्यों रे, तेरा ही नाम हलकाई है न?” उसके काँपती आवाज में “हाँ” कहने पर उन पुलिस वालों ने कहा, “हम कोर्ट की नोटिस तामील कराने आए हैं, सात दिन बाद तारीख है, मुल्जिम को कोर्ट में हाजिर करा देना.. नहीं तो तुमको ही अन्दर कर दिया जाएगा।” उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि किसे वह हाजिर कराए। उसके मन-मस्तिष्क से, वह किसी का जमानतदार है, यह बात अब तक निकल चुकी थी। तभी पुलिस वाले ने कोई नाम लेते हुए कहा, “तुम इसकी जमानत लिए थे.. कहाँ मर गया वह साला, दो तारीखों से कोर्ट में हाजिर नहीं हुआ है।” हलकाई किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा रहा इस बीच पुलिस वाले किसी कागज पर उसका अँगूठा लगवा लिए और उसे एक कागज पकड़ा कर चले गए थे।

वाकई! हलकाई को उसका नाम भी याद नहीं है; जिसकी उसने जमानत ली थी। वह तो केवल नत्थू को ही जानता था। नत्थू से उसका नाम भी तो नहीं पूँछा था उसने! इधर अब नत्थू भी उससे कन्नी काट चुका था। पुलिस वालों के जाने के तुरंत बाद लगभग वह भागते हुए नत्थू के घर पहुँचा था। नत्थू के घर वालों ने, नत्थू के कहीं चले जाने की बात उसे बताई। सुनकर, हलकाई को जैसे काठ मार गया था। बुझे मन से वह वापस लौट आया था।

हलकाई ने अभियुक्त को तय तारीख पर कोर्ट में हाजिर नहीं कराया। उसकी जमानत जब्त करने के आदेश हुए। बाद में, जमानत की धनराशि जमा न कर पाने के कारण न्यायालय ने हलकाई को जेल भेज दिया था।

“हाँ साहब, पैरवी में जमीन दूसरे ने लिखा लिया अब हमारे पास कोई जमीन नहीं है।” उसने मिचमिचाई आँखों से हमें देखते हुए कहा।

मैं समझ गया था कि इसकी तीन-चार बीघे की खेती पचास हजार जमानत की धनराशि जमा करने के चक्कर में किसी ने अपने नाम कर लिया होगा। और इस पर भी यह तीन साल बाद जेल से छूटा। आज यह भूमिहीन है। मुझे न जाने क्यों उस पर दया आई और राशनकार्ड बनाने के आदेश पारित करा दिए। उसकी ओर देखते हुए मैंने उससे पूँछा,

“जिसे तुम ठीक से जानते तक नहीं थे, तो उसकी जमानत क्यों लिए..?”

“साहब, मैं ठहरा सीधा-सादा आदमी, मैंने विश्वास कर लिया.. जमानत ले ली थी।” उसने कहा।

“फिर तो, उसे पकड़ना चाहिए था जिसके कहने पर तुमने जमानत लिया था” मैंने कहा।

“साहब तभी से उसका भी तो पता नहीं चल रहा है, वह भी कहीं चला गया है।”

उस व्यक्ति पर एक बार फिर मैंने आश्चर्यमिश्रित भरपूर निगाह डाली, जो अपने जीवन का तीन बहुमूल्य वर्ष जेल में बिता कर आया था। गहरी श्वास भरते हुए मेरे मन में बस यही खयाल उठा,

“काश! मैं न्यायाधीश होता, तो इस मरियल से, कपाल कोटर में धँसी मिचमिचाती आँखों वाले जमानतदार के जमानत-पत्र को अस्वीकार कर देता। अभियुक्त के वकील को दूसरा जमानतदार ढूँढ़ने का आदेश देता.! खैर… न्यायपालिका होती तो आखिर अंधी ही है न..! लेकिन क्या पता तब हम भी अंधे ही होते..!!

*विनय कुमार तिवारी

जन्म 1967, ग्राम धौरहरा, मुंगरा बादशाहपुर, जौनपुर vinayktiwari.blogspot.com.