राजनीति

लेख– जनतंत्र की भावना कहीं अधर में तो नहीं?

राजनीति का स्याह पक्ष यहीं है, कि राजनीति अपनी बनी बनाई राह छोड़ नहीं पा रही। लोकतंत्र में राजतंत्र हावी हो रहा है। चुनाव को प्रभावित करने के लिए जातिवादी लिटमस पेपर का प्रयोग सभी सूबों की असलियत बन चुकी है। आज देश का दस्तूर यह हो गया है, देश की कोई भी सियासी पार्टी अपने को जाति, धर्म की राजनीति से अलग भले मानती हो, लेकिन सच्चाई की गंगा उसके उल्टा ही बह रही है। क्षेत्रीयता का दामन ऐसे कुछ सियायतदानों पर हावी होता जा रहा है, कि वे राजनीतिक मसीहा घोषित होने में तनिक गुरेज नहीं करते। जाति, धर्म और सत्ता के रस के कारण जनतंत्र को आजतक सही रूप दिया ही नहीं जा सका। जनतंत्र में जन की कोई पूछ दिखती नहीं, और राजनीतिकार अपनी झोली भर रहें हैं। आज देश में अजीब सा दौर चल रहा है। या यूं कहे देश राजनीतिक छद्मयुद्ध की तरफ़ बढ़ रहा है। एक ओर देश में राष्ट्रवाद और राष्ट्रदोही परिकल्पना तेज़ी से बढ़ रही है, तो दूसरी तरफ़ राजनीति का अंतर्विरोध भी बढ़ रहा है। कोई विपक्ष विहीन राजनीति करना चाहता है, तो दूसरा दल सत्तासीन दल को घुटने पर लाने के लिए किसी भी स्तर की राजनीति को उतावला दिखता है। फ़िर ऐसे में जनतंत्र की भावना कहाँ क्षीण होने लगती है, और लोकतंत्र के तले राजशाही व्यवस्था जन्म लेने लगती है, यह समझना कोई शतरंज का खेल नहीं लगता। ऐसे में सवाल तो बहुतेरे है, लेकिन क्या कभी लोकतांत्रिक चुनाव प्रणाली में नैतिक मूल्यों और राजनीतिक दलों की निष्पक्षता चुनावी मुद्दा बन पाएगी? क्या राजनीतिकार कभी जाति, धर्म से परे उठकर अपने अंदर के लोकतंत्र, विचारधारा और सिद्धांतों पर बहस कर पाएंगे, या धन-बल ही चुनावी राजनीति का अहम हिस्सा बनकर रह गया है?

जिस हिसाब से प्रतिवादी आवाज़ को अनसुना किया रहा है, और प्रतिरोध की राजनीति देश मे हावी हो रही है, उसको देखकर यही लगता है। शायद जनतंत्र को हमने आज़ादी बाद संविधान का हिस्सा तो बना लिया, लेकिन उसका रूप और चरित्र नहीं गढ़ सके। देश की राजनीति की शायद यह सबसे बड़ी विडंबना है, कि विरोध की मुखर होती आवाज का आज के जनतंत्र में कोई मोल नहीं रह गया है। क्या सच्चे जनतंत्र की यही अवधारणा हो सकती है? जनतंत्र जनता का जनता के लिए जनता द्वारा किया गया शासन होता है। फ़िर विरोध की आवाज को कुचलना, प्रेस को निर्भयता के साथ काम न करने देना, विपक्ष की स्थिति को मटियामेट करना किसकी निशानी कही जाएगी? यह रवायत नई नहीं वर्षों से चली आ रही है। जनतंत्र का अर्थ लोगों की आवाज को बुलंद करना होता है। विकास और मूलभूत सुविधाओं को समाज की अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति तक पहुचाना होता है। यह नहीं कि बहुमत का शासन, और अकेली आवाज को अनसुना कर देना। लेकिन वर्तमान समय में हमारा जनतंत्र दिवालिया हो चुका है, जिसमें जन की बात न होकर विशेष राजनीतिक हितोउद्देश्य की बात होती है। जनतंत्र का उद्देश्य चुनी हुई सरकार द्वारा जनता के हित के लिए कार्य करना होता है। आज देश के लोकतांत्रिक परिवेश का यह कड़वी सच्चाई बन गई है, कि चुनाव जीतना ही पार्टियों का पहला कर्तव्य और उद्देश्य बन गया है। उसके लिए साम, दाम दंड और भेद सभी को रणनीति के चाणक्यकार अजमाते है। सत्तासीन होना उनके चुनाव में उतरने की पहली प्राथमिकता होती है।

उसके लिए फ़िर जुमलों का ज़खीरा तैयार किया जाता है, फिर उसी जुमलों पर चुनाव जीतकर राजनीतिक गलियारों में स्वाद का चटकारा लगाया जाता है। ऐसे में जनता ठगी सी महसूस करती है। देश की राजनीति का एक पहलू यह भी है, जब तक राजनैतिक दल सत्ता में होते हैं, तबतक सत्ता के रस में मदहोश होते हैं। उसके बाद सत्ता का स्वाद जब जीभ पर लगना बन्द हो जाता है, तब जन और जनतंत्र दोनों की याद आती है। आज देश की राजनीति में अराजकता ही नहीं बढ़ रही। क्षेत्रीय असन्तुलन की स्पष्ट छाप भी पनप रही है। क्षेत्रीय क्षत्रप लोकतंत्र के छत तले रहते हुए भी अपने को लोकतांत्रिक प्रक्रिया से बड़े समझने लगे हैं। आज जिस दिशा में राजनीति विचरण कर रही है, अगर आने वाले समय में उसकी दिशा नहीं बदली। फ़िर जनतंत्र लोकतांत्रिक तानाशाही की ओर विमुख हो जाएगा। आज आज़ादी के 70 सालों बाद आम जन की लंबी फेहरिस्त तो लोकतांत्रिक अधिकारों के बाद भी अपने जीवन जीने के अधिकार के लिए हाथ पसारे लोकतांत्रिक सियासतदां की तरफ़ टकटकी लगाये हुए है, तो दूसरी ओर लोकतंत्र में राजनीतिक टकराव की स्थिति भी तेजी से बढ़ रही है। राजनीति में आम सहमति का विषय विलीन होता जा रहा है। केंद्र और राज्य सरकारों के बीच सुलहनामा के लिए न्यायपालिका को दखल देना पड़ रहा है। एक लोकतांत्रिक देश के लिए इससे बुरी स्थिति औऱ क्या हो सकती है। प्रेस अपनी आजादी को कराह रहा है। जनमानस की आवाज धूमिल हो चली है।

केंद्र और राज्य के बीच लेनदेन को लेकर पक्षपाती पूर्ण रवैये का आरोप लग रहा है। उसके अलावा राजनीतिक हित के लिए अगर राष्ट्रपति शासन लगाया जाता है, फ़िर यह लोकतंत्र की आड़ में जनतंत्र का मज़ाक बनाया जा रहा है। चुनी हुई सरकार को स्वतंत्र कार्य न करने देना लोकतंत्र के साथ छेड़खानी करने जैसा है। आज के दौर में जिस हिसाब से न्यायपालिका जनतंत्र के लिए कार्यरत दिख रही है, वह साबित करता है, कि जनतंत्र की संरक्षक न्यायपालिका ही हो गई है। जो काम संसद का था, वह आज के दौर में न्यायतंत्र कर रहा है। ऐसे में संसद की कार्यप्रणाली पर संदेह और राजनीतिक विचारधारा के हावी होने की भावना प्रबल होती है, जो मजबूत जनतंत्र को खोखला कर रहीं है। किसी ने ख़ूब कहा था, जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करतीं। जिसका सीधा और सरल भावार्थ यही था, कि देश को बनाए और बचाए रखने के लिए जनता को हमेशा जागरूक रहना चाहिए। अगर जनता के भीतर जड़ता का प्रवेश हो गया, वहीं से लोकतंत्र और जनगण का पतन भी होना शुरू हो जाएगा। आज की राजनीति नहीं चाहती जनता जागरूक हो, अधिकार के लिए लड़े, इसीलिए उसके पैरों में जातिवाद, सम्प्रदायवाद की जड़ता को पहना दिया गया है। हमारी चेतना में धर्मांधता, सांप्रदायिकता की जड़ता और धर्म की बेड़िया डाल दी गई। हम रुक गए, और धर्म, जातिवादी और सांप्रदायिक राजनीति फ़ल-फूल रही है। ऐसे में मजबूत जनतंत्र बनाना है, तो लोकतंत्र में व्याप्त हो रही बुराइयों को दूर करने के लिए ख़ुद जनता को आगे आना होगा, तभी जनतंत्र कुछ हद तक सफल और मजबूत हो सकेगा, और बढ़ती लोकतांत्रिक तानाशाही पर अंकुश लग पाएगा।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896