राजनीति

क्या छात्र राजनीति देश की राजनीति का प्रयोगशाला बन पाएगी कभी

मध्य प्रदेश के लगभग 15 ज़िलों के 25 महाविद्यालयों में 162 आदिवासी छात्र प्रतिनिधियों ने जीत का परचम लहराया। जिसमें मीडिया की ख़बरों के मुताबिक पचास फ़ीसद स्थान लड़कियों ने कब्जाया। तो क्या इस जीत को सूबे में नए सवेरे के रूप में देखा जाना चाहिए, या फ़िर बनी बनाई राजनीतिक ढ़र्रे पर होगा वही, ढाक के तीन पात। आज देश ही नहीं मध्यप्रदेश की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक बढ़ती बेरोजगारी है। जिससे निजात के के लिए सूबे की सरकार प्रयासरत तो है, लेकिन शतप्रतिशत सफलता हासिल नहीं पा रहीं है। देश के साथ मध्यप्रदेश की विडंबना भी यहीं है, कि युवाओं के मुद्दे को आवाज़ देने वाला युवाओं का कोई मसीहा उत्पन्न नहीं हो पा रहा। राजनीति के गलियारों में युवाओं को अधिकार दिलवाने की कितनी ही बात हो, लेकिन अमल होता दिखता नहीं। छात्रों के साथ जारी भेदभाव, छात्रावास, शिक्षा की गुणवत्ता और महाविद्यालय में  शौचालयों की सुविधा आदि का विषय उठाने वाले इन छात्र नेताओं को राष्ट्रीय और क्षेत्रीय फ़लक पर भी पहचान दिलानी होगी। तभी इन छात्र चुनावों का मकसद सफ़ल हो पाएगा।

आज के दौर में जाति, धर्म की राजनीति को देश में चुनाव जीतने की रामबाण औषधि मान लिया गया है। आज देश की बात हो, या मध्यप्रदेश की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक शिक्षा का गिरता स्तर, बेरोजगारों  की बढ़ती संख्या और सामाजिक असन्तुलन की स्थिति है। इन सब से निजात का कोई ईलाज हमारे सियासतदानों के पास दिखता नहीं। आज के दौर में मध्यप्रदेश में सबसे बड़ी तादाद किसी समुदाय की है, तो वह आदिवासी समुदाय की ही है, जो अपने जीवन जीने के अधिकार से वंचित दिखती है। एक सर्वे के मुताबिक देश की वर्तमान चल रही संसद में वंशवादी सांसदों की संख्या में दो प्रतिशत और सरकार में ऐसे मंत्रियों की संख्या में 12 प्रतिशत की कमी आई है। पैट्रिक फ्रेंच ने 2012 में अपनी एक किताब में देश के बारे में लिखा था,  यदि वंशवाद की यही राजनीति चलती रही, तो भारत की दशा उन दिनों जैसी हो जाएगी जब यहां राजा महाराजाओं का शासन हुआ करता था।

आंकड़े के खेल में इस गतिशील संसद में वंशवाद की राजनीति में कुछ फ़ीसद का सुधार तो हुआ है। लेकिन क्या राजनीति ने युवाओं को स्वीकार करना शुरू कर दिया। उससे बड़ी विडंबना की बात यह है, राजनीति के चाणक्य देश की युवा शक्ति पर कितना भी इठला ले, लेकिन आज देश की वहीं लगभग 65 फ़ीसद आबादी अपने राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक अधिकारों के लिए कहीं न कहीं भटक रही है। ऐसे में सवाल यह जब देश, विदेशों का अंध अनुसरण संविधान निर्माण करते हुए नहीं चुका। फ़िर देश के युवाओं को राजनीतिक हक दिलवाने के मामले में विदेशों से कुछ सीख क्यों नहीं लेता? क्या राजनीति में आज के दौर में भी युवा कहलाने की प्रवृति 45 वर्ष पहुँचने तक चलती रहेगी? विश्व में राजनीतिक दलों की औसत आयु 43 वर्ष है।

लेकिन हमारे देश का युवा तो सड़कों पर डिग्री लेकर घूमने को विवश है। देश और प्रांतों में डिग्रियां बिक रही हैं, रोजगार नहीं। युवाओं पर नाज है, लेकिन राजनीति में उनका कोई स्थान नहीं। अब इस रवायत को बंद करना होगा, युवाओं की समस्या युवा नेता अच्छे से समझ सकते हैं, इसलिए युवाओं को राजनीति में मौका मिलना चाहिए। इससे बड़ा सवाल तो यही है, जब छात्र राजनीति राजनीतिक दलों के लिए आपातकाल के बाद नेता उपलब्ध करवाने की प्रयोगशाला साबित हो नहीं पा रही, फ़िर छात्र चुनावों का क्या अर्थ और मक़सद रह जाता है, यह देश के राजनीतिक सियासतदारों को सोचना होगा।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896