गीतिका/ग़ज़ल

अंधे करते बात यहाँ पर, चश्मदीद गवाही की

अंधे करते बात यहाँ पर , चश्मदीद गवाही की
झूठों के मुँह बात सुनी है, हमने यहाँ सचाई की।

भेद न कर पाए जो अब तक, पशुओं और इंसानों में
वही कर रहे बात यहाँ पर, मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई की।

रेशम के जूठन पर बैठे, चिथड़ों से जब पूछा तो
बात लगे वो मुझसे करने, रबड़ी-खीर-मलाई की।

मरघट में बिखरी चूड़ी के, टुकड़ों की कुछ आवाज़ें
सुना रही थी मुझको सिसकी, बीती रात तबाही की।

मंदिर-मस्जिद के आँगन में, झाकोगे तो पाओगे
कमी नहीं है मेरे देश में, खुल्ले आम कसाई की।

हमने उनको डूबा पाया , रंभाओ की बाँहों में
ग़ज़ल सुनाया करते थे जो, सुबहो-शाम खुदाई की।

सिर पर सेहरे बाँध के कँगले, पूछ रहे हैं बापों से
क्या कीमत तुम दे सकते हो, बोलो आज जँवाई की?

मर्यादा ने आज गढ़ी , परिभाषा नये ज़माने की
चौराहों पर होड़ लगी है, अब तो बदन दिखाई की।

जहाँ दर्द ही बन जाता है, ‘शरद’ के तन-मन की राहत
भला ज़रूरत वहाँ पड़ेगी, मलहम और दवाई की?

शरद सुनेरी