लघुकथा

“सुनो सुनयना मेरी बात”

सुनो सुनयना मेरी बात, जिसकी गोंद में हम सभी पले-बढ़े, उछले-कूदे, नाचे-गाए और खेले-खिलाए। उसकी सुंदरता की सरिता में भीगे- नहाए, छाँव में बैठे तो धूप में कुम्हिलाए। बरसात की बौछार छलकाए तो ठंड में ठिठुरे भी। पुरखों की रजाई ओढ़ी तो माँ के आँचल को बिछाया भी। बाप की छतरी चढ़ाई तो परिवार की खुशियाँ भी पाई। बचपन की लोरियाँ याद है तो नौजवानी की होरियाँ भी भूली नहीं है। पढ़ाई की पटरी और कटिया दौंरी की रसरी कैसे विसरती जी, जो आज भी सोचने पर रगड़ देती है। तरैना (नदी) का नहाना और देर होने पर रटा- रटाया बहाना, क्या नजराना था, मलिच्छ, आवारा, शैतान, गोबर ही काढ़ेगा…..हरामखोर…..दूर हो जा नजरों से और हम हो जाते थे दूर, पलभर के लिए और फिर नौ मन का तेल बुकवा बिस्तर पर बिछला जाता था, जिसपर हम निदिया जाते थे और माँ अलसा जाती थी। फिर दूसरे दिन एक और गुलछर्रा पर शाम तो वैसे ही गुमसुम सी सरकती रही कि एक दिन ससुर जी दीन-हीन बरदेखुआ बनकर आ गए, जिनकी लाड़ली किसी भी अप्सरा से बहुत सुंदर है जिसका निर्वहन मेरे ही इन्द्रासन में हो सकता है। बड़े बुजुर्गों की आपसी सहमती हुई और शहनाई बज गई।

फिर क्या हुआ, सुनयना का मौन टूटा, शायद उन्हें भी अपना सात फेरा याद आ गया। सरोज अपनी मृगनयनी की हुकारी सुनकर मन ही मन उछलने लगे। उन्हें लगा कि उनकी बातों में दम है, तभी तो कान पारे मुझे ध्यान से सुन रहीं है। सेखी बघारते हुए बोले, फिर क्या होना था…..जिंदगी में तुम बिजली बनकर आई और सब कुछ एक ही झटके में झुरा गया। न होली का हुड़दंग किसी को गरिया पाया न कान अघा पाया, उमड़ते-घुमड़ते बचपनी अरमानों को उसी वर्ष सम्मति भैया में अर्पण कर दिया और तुम्हें गले से लगाकर, जुल्मी जुल्फों में उलझ गया। अभी तो सजा भी मुकर्रर नहीं हुई थी कि बिना वारंट के एक शाम मेरी पेशी हो गई बापू के अदालत में….. जिसमे हुक्का पानी बंद होने की सजा मिली और मैं दुम दबाकर किसी बड़े शहर की जेल ढूढ़ते हुए एक मददगार की पैरवी से एक कोठरी में गिरफ्तार हो गया। पिसता रहा चक्की और मेहनताने से तुम्हें सजाने का अथक प्रयास करता रहा। कितनी दिवाली आई और गई पर दीपक न जला। हाँ लक्ष्मी जी का आगमन हुआ और घर भरना शुरू हो गया। लक्ष्मी जी आगमन होते ही घर-बखरी भर गई और होनहार कुल दीपक खिला। जमकर दिवाली मनाई गई और आँगन जगमगा गया।

फिर, सुनयना ने उस पल को याद करते हुए कहा कि इसके बाद की चक्की हम दोनों ने चलानी शुरू की और आज सब कुछ निपटाकर एक बार फिर आधी यात्रा पूरी करके स्टेशन पर उस गाड़ी का इंतजार कर रहें हैं जो जब भी आती है अपनों से दूर कर देती है। अरे, पगली यहीं गाड़ी अपनों से मिलाती भी तो है, ले आ गयी, गाँव और शहर को जोड़ने वाली छुकछुकिया, चल सामान संभाल ले, चिंता मत कर यही अपनों के बीच वापस भी लाएगी। धीरे- धीरे दूर होते गए सरोज और सुनयना, स्टेशन पर स्टेशन आते- जाते रहे, लोग चढ़ते- उतरते रहे, और वे दोनों अपनी सीट पर नरम- गरम होते रहे। झबकी आ ही रही थी कि मोबाइल कनमनाने लगा, घिसटते सम्बंधों का हाल-चाल लेने के लिए किसी अपने ने घंटी बजा दी थी, शायद घर खाली होने पर नेटवर्क जुड़ गया था। कहाँ तक पहुँचे भैया, बस बाबू कानपुर गया अब झाँसी जाने वाली है, रात हल्दीघाँटी से होकर गुजरेगी, सुबह उदयपुर में होगी और दोपहर अपने मुकाम पर सर-सफाई में निकल जाएगी। हर जगह की धूल ही तो साफ करते रह गए पर गंदगी का पारावार नहीं हैं दो दिन झाड़ू न लगा तो साँस घुटने लगती हैं। देखे नहीं, घर झाला से भरा हुआ था बड़ी मुश्किल से साफ हुआ है, इसी लिए इस बार खिड़की जंगला सब बंद करके आया हूँ। सेत के चूहें सारे कीमती सामान कुतर गए और मरियल मच्छर चार दिन भी चैन से सोने नहीं देते, भनभनाते रहते हैं कान के आसपास, मौका मिलते हैं चूसना शुरू कर देते हैं। मेरे आने के बाद वहाँ सब ठीक हैं न, सब के सब खुश तो होंगे ही, आशीर्वाद।

ट्रेन की देरी और घर से दूरी दोनों कष्टकारक है न जाने कितना सफर अभी बाकी है, कमाई का एक हिस्सा तो भाड़े में ही गुप्प हो गया, सुनयना भुनभुनाई तो सरोज की भौंहे तन गई। चुप रहो जब भी होता पैसे को बीच में लाकर पटक देती हो। सही तो कह रहीं हूँ कितना भी कमा लो, लुटा लो, कोई पोश मानने वाला नहीं है। ट्रेन की सिटियाँ और लोगों की गालियां सुनते रहो। सो जाओ और अगली यात्रा का टिकट बुक करा लो। जीवन चलने का नाम है सुनयना, माँ, जन्मभूमि और कर्मभूमि को भुलाया नहीं जा सकता, लोग कुछ भी कहें सुनें, हकीकत तो यही है जिसको निभाना ही होता है और सजाना ही पड़ता है, पाँचों अँगुली न बराबर हुई है न होगी, देखो रुकी हुई ट्रेन फिर चल पड़ी।

महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ