धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

मनुष्य का आत्मा सत्याऽसत्य को जानने वाला है इतर पशु आदि का नहीं

ओ३म्

सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ की भूमिका में ऋषि दयानन्द जी ने कुछ महत्वपूर्ण बातें लिखी हैं। उनके शब्द हैं ‘मनुष्य का आत्मा सत्याऽसत्य का जानने वाला है तथापि अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह और अविद्यादि दोषों से सत्य को छोड़ असत्य में झुक जाता है। परन्तु इस (सत्यार्थप्रकाश) ग्रन्थ में ऐसी बात नहीं रखी है और न किसी का मन दुःखाना वा किसी की हानि पर तात्पर्य है, किन्तु जिससे मनुष्य जाति की उन्नति और उपकार हो, सत्याऽसत्य को मनुष्य लोग जानकर सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग करें, क्योंकि सत्योपदेश के विना अन्य कोई भी मनुष्यजाति की उन्नति का कारण नहीं है।’

ऋषि ने इन पंक्तियों के आरम्भ में कहा है कि मनुष्य का आत्मा सत्य और असत्य को जानने वाला है। यहां हमें लगता है कि ऋषि ने कहा है कि केवल मनुष्य का आत्मा ही सत्याऽसत्य को जान सकता है। अन्य पशु-पक्षियों आदि योनियों में जो आत्मायें हैं वह सत्याऽसत्य को नहीं जान सकते। सत्य और असत्य को जानने के लिए वह यह भी कहते हैं कि मनुष्य का आत्मा चार कारणों प्रथम अपने प्रयोजन की सिद्धि जिसे आजकल मनुष्य का अनुचित स्वार्थ कहते हैं, दूसरा हठ अर्थात् अपनी गलत बात  को ही मानना व मनवाना व दूसरों की सत्य बात को भी स्वीकार न करना, तीसरा दुराग्रह अर्थात् बुरी व गलत बातों को ही मानना व दूसरों से मनवाना। आज कल के सभी मत-मतान्तर इन तीनों दोषों के आरोपी हैं व वह इन बुराईयों से ग्रसित है। वैदिक धर्म जैसा ऋषियों ने वर्णित व प्रचारित किया है व जिसे ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज ने अपनाया व प्रचार करता है, वह इन तीनों बुराईयों से दूर हैं। सभी मत-मतान्तरों को भी होना चाहिये। यदि ऐसा होगा तो फिर इतने मत-मतान्तर न होकर केवल एक वैदिक मत व वैदिक धर्म ही संसार में होगा जो ईश्वर प्रदत्त सत्य ज्ञान वेद पर आधारित होने के कारण संसार के प्रत्येक मनुष्य के लिए कल्याणकारी होगा। ऋषि दयानन्द जी ने अपने वचनों में सत्य को प्राप्त न होने का एक चौथा कारण अविद्या आदि दोषों में झुक जाने को बताया है। हमें लगता है कि यह कारण सबसे बड़ा कारण है। अविद्या का दोष जब दूर हो जाता है तो मनुष्य सत्य को प्राप्त हो जाता है और इसके साथ अन्य दोष भी शिथिल पड़ जाते हैं या दूर हो जाते हैं। ऋषि दयानन्द जी अपने वचनों में यह कहते हुए भी प्रतीत होते हैं कि मनुष्य जन्म में ही मनुष्य सत्य को जान सकता है। आगे चलकर मनुष्य को उसके कर्मानुसार मनुष्य जन्म मिले या न मिले अतः उसे अपने मनुष्य जन्म का लाभ उठाकर अपनी अविद्या दूर करने पर ही सबसे अधिक ध्यान देना चाहिये। यदि मनुष्य की अविद्या दूर हो गई तो वह ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति के यथार्थ स्वरूप से परिचित होकर अपना व संसार का अधिकाधिक कल्याण कर सकता है जैसा कि ऋषि दयानन्द जी अपने जीवन में कर गये हैं। हम जब संसार के सभी ज्ञात मनुष्यों के व्यक्तित्व व कृतित्व पर विचार करते हैं तो हमें स्वामी दयानन्द जी के समान विद्यावान, अर्थात् वेद ज्ञान से युक्त असाधारण मानव, कहीं दूसरा दिखाई नहीं देता। हमें ऋषि दयानन्द ज्ञात इतिहास में भूतो भविष्यति’ अनुभव होते हैं। हमारा यह सब कहने का प्रयोजन यही है कि हमें स्वाध्याय व स्वास्थ्य के सभी नियमों का पालन करते हुए विद्या अर्जन में सतत लगे रहना चाहिये जिससे हमारी अविद्या दूर जो जाये और हम ईश्वर के सान्निध्य का आनन्द जो मोक्ष सुखदायक है, अपने इसी मनुष्य जन्म में प्राप्त कर सकें।

मनुष्य उपर्युक्त चार दोषों के कारण सत्य को छोड़ असत्य में झुक जाता है, इसका तात्पर्य यह है कि वह अभ्युदय और निःश्रेयस से दूर होकर पतन में गिरता है। ऋषि दयानन्द ने यह वचन लिखकर मानव जाति का महान उपकार किया है, ऐसा हम अनुभव करते हैं। जो भी मनुष्य सत्यार्थप्रकाश पढ़ेगा तो वह महर्षि की इन पंक्तियों को पढ़कर अवश्य मनुष्य जीवन की उन्नति और अवनति के साधनों से परिचित हो जायेगा। ऐसा होने पर अवनति व उन्नति में से वह किसी एक को चुन सकता है। आज यदि संसार पर दृष्टि डाले तो पहली बात यह दृष्टिगोचर होती है कि मनुष्य विद्या व अविद्या के स्वरूप से अनभिज्ञ व अपरिचित हैं। वह स्वार्थ पूर्ति, हठ, दुराग्रह व अविद्या आदि के कार्यों में ही लगे हुए हैं। अनेक लोग ऐसे भी हैं जो ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश व अन्य ग्रन्थों का अध्ययन किये हुए हैं परन्तु फिर भी उनका आचरण वेदानुकूल न होकर अनेक प्रकार से वेदविरुद्ध और मनुष्य जीवन की अवनति की ओर ले जाने वाला ही प्रतीत होता है। यदि आज कोई सत्यार्थप्रकाश पढ़ ले और इसके बाद यदि वह मांस-मदिरा-अण्डे आदि सामिष पदार्थों का भोजन करता है व अपने चरित्र को नहीं सुधारता जिसे ऋषि दयानन्द ने अपने लघुग्रन्थ ‘स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश’ में मनुष्य की परिभाषा करते हुए लिखा है, तो उसका सत्यार्थप्रकाश पढ़ने का कोई लाभ और प्रभाव हुआ प्रतीत नहीं होता। हम आर्यसमाज में इसके अनेक अधिकारियों व कर्मचारियों का व्यवहार देखते हैं तो हमें लगता है कि इन पर ऋषि के विचारों का कोई प्रभाव प्रायः नहीं है।

मनुष्य को मनुष्य जन्म तभी मिलता है कि जब उसके शुभ व अशुभ अथवा पुण्य व पाप कर्म बराबर हों अथवा शुभ कर्म अशुभ कर्मों से अधिक हों। इस जन्म में हम मनुष्य बने हैं तो इसी सिद्धान्त के आधार पर बने हैं। मनुष्य जन्म अभ्युदय व मोक्ष का द्वार है। यदि हम वेदाध्ययन और ऋषि ग्रन्थों का अध्ययन कर तदवत् आचरण करते हैं तो इससे हमारा वर्तमान व भावी जन्म व जीवन दोनों ही सुधार व उन्नति को प्राप्त होते हैं। सभी चाहते भी यही हैं कि उनका वर्तमान व भविष्य सुदीर्घकाल तक समुन्नत हो। ऐसा होने पर भी वह छोटे छोटे प्रलोभनों में फंसे रहते हैं और वेदाध्ययन व वेदाचरण पर ध्यान नहीं देते। मनुष्य जीवन हमें अविद्या को दूर कर विद्या प्राप्त करने और उस विद्या अर्थात् वेदज्ञान से तदनुकूल आचरण कर मोक्ष प्राप्ति के लिए हुआ है। इस यथार्थ कथन को जानकर और मत-मतान्तरों से दूर रहकर ही हम सन्मार्गगामी हो सकते हैं। अतः मनुष्य वही है जो किसी मत-मतान्तर व उसकी अविद्या में न फंसे और वेद, उपनिषद, दर्शन, स्मृति व अन्य शास्त्रों का अध्ययन कर उससे प्राप्त ज्ञान से अपने कर्तव्य का निर्धारण कर उस पर चलने का दृण निश्चय करे।

हम सब भाग्यशाली हैं कि हम इस जन्म में मनुष्य बने और इसके साथ ही हमें ऋषि दयानन्द, आर्यसमाज की विचारधारा और वैदिक ग्रन्थों के स्वाध्याय का अवसर मिला है। हमें अपनी देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार यथाशक्ति सन्मार्गगामी होकर जीवन व्यतीत करना चाहिये। यदि ऐसा करेंगे तो भावी जन्म जन्मान्तरों में हमारी उन्नति होगी और यदि नहीं करेंगे तो केवल अगला जन्म ही अवनत नहीं होगा उसके बाद के भी अनेकानेक जन्म अवनत होकर हमें पशु, पक्षियों आदि अनेक योनियों में विचरण कर दुःख उठाने पड़ सकते हैं। जीवन में सत्योपदेश प्राप्त करना और उसके अनुसार ही आचरण करना ही मनुष्यजाति की उन्नति का प्रमुख कारण है। अनादि काल से वेदज्ञानी ऋषि और विद्वान वेदाध्ययन और वेद प्रतिपादित सत्य का आचरण कर अभ्युदय और मोक्ष को प्राप्त करते आये हैं। आज भी यह प्रासंगिक एवं व्यवहारिक है जिसका कोई विकल्प नहीं है। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य