सामाजिक

लेख– लैंगिक असमानता ऐसे दूर होगी क्या?

आंकड़े सिर्फ आहट की दस्तक़ नहीं देते, बल्कि सच्चाई से रूबरू कराते हैं। देश में लिंग-अनुपात के लगातार कम होने के जो आंकड़े हमारे सामने आ रहे हैं, वे न सिर्फ हमारी मानसिकता बताते हैं। यहां तक हमारे समाज के दो- अर्थी व्यहवार को भी व्यक्त करते हैं। साथ- साथ यह भी पता चलता है, कि कन्याभ्रूण हत्या रोकने और अन्य स्तर पर लड़कियों को सुरक्षा देने के सरकारी और गैर-सरकारी प्रयास निरर्थक ही साबित हो रहें हैं। मध्यप्रदेश प्रदेश सरकार भले ही प्रदेश के हर घर की लाड़ली को लक्ष्मी बनाने का अथक प्रयास कर रही हो, लेकिन जमीनी हकीकत में लड़कियां 28 दिन भी साँसें नहीं ले पाती । मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार जहां सूबे में लड़के की मृत्यु दर में 14.6 प्रतिशत की दर से गिरावट आ रही है, वहीं घर की लाड़ली बन रहीं लड़कियों की मृत्युदर में  मात्र 1.6 फीसदी की मामूली गिरावट यह दर्शाता है, कि नीति-निर्धारक कितने भी कानून का एलान कर दे, लेकिन लैंगिक भेदभाव समाज से दूर किए बिना लड़कियों की संख्या सूबे क्या पूरे देश में लड़कों के बराबरी पर नहीं आ सकती। 

लैंगिक भेदभाव का पता मीडिया रिपोर्ट्स से भी चलता है, जिसके मुताबिक मध्यप्रदेश सूबे की पुलिस बटालियन में सिर्फ 4.82 फ़ीसद महिलाओं की संख्या है। फ़िर यह स्थिति तमाम राजनीतिक खोखले दावों और हकीकत की पोल-पट्टी उधेड़ती नज़र आती है। देश के साथ सूबे की राजनीतिक विडंबना का काला चिट्ठा सामने लाने का काम करती है। यह स्थिति बहुत से सवालों को जन्म देती है। पहला प्रश्न जब महिला सशक्तिकरण की बात की जाती है, फ़िर सूबे के पुलिस महकमें में महिलाओं की संख्या मात्र खानापूर्ति भर क्यों? जो प्रदेश महिलाओं के प्रति अपराध में देश में शीर्ष पर वहां पर प्रशासनिक स्तर पर इतना असंवेदनशील माहौल कैसे?

                            राजनीति बात महिला सशक्तिकरण, और महिलाओं की सुरक्षा की करती है, फ़िर बग़ैर महिला पुलिस के क्या महिलाएं अपने को सहज और महफ़ूज महसूस कर सकती हैं? क्या राजनीति का दोहरा चरित्र यहां भी हावी है, दिखावा कुछ, और सच्चाई कुछ और। बात अगर बीते वर्ष हुए राज्य के 14000 पदों की पुलिस भर्ती की ही की जाए, तो उसमें महिलाओं के लिए आरक्षित 4714 पदों में सिर्फ 1037 महिलाएं ही चुनी जा सकी। फ़िर इस लगभग 3400 बचे पदों पर महिलाओं की नियुक्ति क्यों नहीं हो पाई। सूबे में महिलाओं की इतनी भी कमी नहीं, कि 5 हज़ार के करीब पदों के भर्ती के लिए महिलाएं न मिल सकें। ऐसे में सवालों की एक लंबी फेहरिस्त सत्ता के सिहासन पर डंक मारती है, कि क्या कारण है, कि न तो महिलाओं को 33 फ़ीसद आरक्षण मिल पा रहा है। और तो और महिलाओं के निर्धारित पद संख्या भी खाली पड़ी रह जाती है। यह सूबे के साथ देश भर के लिए माथे पर सिकन खीचने वाला विषय होना चाहिए। 

  महिलाओं पर अपराध में मध्यप्रदेश के अव्वल होने के बाद और मध्य प्रदेश पुलिस भर्ती में 33 फ़ीसदी महिला आरक्षण होने के बावजूद महकमे में महिलाओं की संख्या 5 फ़ीसदी से ज्यादा नहीं होना सरकारी व्यवस्था पर सवाल खड़ा करता है। कि उसकी नीतियां आखिर कहां कमजोर और छिद्र वाली पड़ जाती हैं, कि महिलाओं को उनका हक नहीं मिल पाता। एक तरफ़ महिलाओं पर होने वाले अपराधों में मध्यप्रदेश देश के शीर्ष पांच राज्यों में शुमार है। 

वहीं अगर मीडिया की रिपोर्ट्स को देखा जाए, तो लैंगिक भेदभाव का असर इतना गहरा है कि मात्र 15.3 प्रतिशत लड़कियों को ही जन्म के पहले घंटे में माँ का दूध नसीब होता है। वहीं अगर नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के आंकड़े को देखें, तो देश में लड़कों के मुकाबले कम लड़कियों के पैदा होने तक का विषय नहीं है। कुपोषण और अन्य बीमारियों के कारण पांच साल तक के बच्चों की जो मृत्यु-दर है, उसमें लड़कों के मुकाबले लड़कियों की संख्या ही ज्यादा होती है। पिछले साल ऐसे कुपोषित या रोगग्रस्त 8,42,000 बच्चों को नियानेटल केयर यूनिट में पूरे देश से भर्ती कराया गया था, उनमें सिर्फ 41 प्रतिशत लड़कियां थीं। यह बताता है कि बीमार बच्चों में भी इलाज के लिए हमारी प्राथमिकता लिंग आधारित है। फ़िर हम समाज के सामने दिखावे के द्विअर्थी संवाद क्यों करते हैं? सब को एक- दूसरे की सच्चाई पता है, कि बच्चियों और स्त्रियों के प्रति क्या स्थिति देश और मध्यप्रदेश सूबे में है। जिसकी बानगी सूबे के आंकड़े देखकर समझा जा सकता है। 

                भारत सरकार द्वारा वार्षिक स्वास्थ्य रिपोर्ट 2012-13 के अनुसार मध्यप्रदेश में लिंगानुपात की स्थिति देशभर में सबसे खराब है। सूबे में प्रति हजार पुरुषों पर इस आंकड़े के अनुसार मात्र 920 महिलाएं हैं। जो सोचनीय विषय है। उससे बड़ी विडंबना यह है, कि सूबे में प्रति 1000 बालक शिशु पर 908 बालिका शिशु ही जन्म ले रहे हैं। इसी आंकड़े के मुताबिक सबसे दयनीय स्थिति लिंगानुपात को लेकर ग्वालियर की है। जहां पर प्रति 1000 बालक की तुलना में 804 बालिकाएं ही जन्म ले पा रही हैं। इस आधार पर कहे तो हम लिंग परीक्षण द्वारा बड़ी तादाद में लड़कियों को पैदा होने से ही रोक देते हैं और जो लड़कियां पैदा होती भी हैं, उनके भी जीने की संभावनाएं लड़कों के मुकाबले बहुत कम होती हैं। इस विकट स्थिति से निजात मात्र नीति-नियंता की नीति या मात्र सामाजिक प्रयास से नहीं हो सकता, इसलिए दोनों को साथ आकर सक्रियता दिखानी होगी। तभी स्त्रियों की दशा और दिशा हमारे समाज में सुधर कर ओर मजबूत हो पाएगी।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896