गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल : जमाना जानता है हम…

हम अपने दुश्मनों को भी, गले हँसकर लगाते हैं,
हुनर दुनियाँ में जीने का, चलो तुमको सिखाते हैं।

जो कायल हो तबस्सुम के, हमारे जान लो इतना
दहकती आग दिल में है, जिसे लब पर सजाते हैं।

ज़माने को अंधेरों का ख़जाना बाँटनेवालों
वो दीपक हैं कि सूरज को, नयी राहें दिखाते हैं।

खड़ी करते दिलों के बीच, जो दीवार नफ़रत की
मग़र हम प्यार की बारूद से, उसको गिराते हैं

ज़रा उनकी शराफ़त का तमाशा, देख लो यारों
कि मेरे आँसुओं से दीप, आँगन में जलाते हैं।

ज़माने की नज़र में वो, गिराना चाहते हमको
ये आलम है कि वो, हमसे नहीं नज़रे मिलाते हैं।

छिपाकर किस तरह दर्दे-ज़िग़र, महफिल सजाना है
नया इक फ़लसफ़ा इस दौर में, तुमको बताते हैं।

दग़ाबाज़ों की बस्ती में, वफा का ख़ून होता है
ज़माना जानता है हम वफ़ादारी निभाते हैं।

“शरद” हैरान है कि क्या करे अब सामने उनके
उन्हें जितना मनाता हूँ वो उतना रूठ जाते हैं।

शरद सुनेरी