हास्य व्यंग्य

खट्ठा-मीठा : धर्म अफीम है!

बाबा कार्ल मार्क्स बहुत पहले लिखकर रख गये हैं कि धर्म अफीम है। हमारे कामरेड भाई इस मंत्र को दिन में दस बार दोहराते रहते हैं। यह बात अलग है कि दोहराने के साथ ही इसका अर्थ भूल जाते हैं और फिर जालीदार टोपी पहनकर रोजा अफ्तार करने चल देते हैं। कई कामरेड तो इस मंत्र का जाप करते हुए हज करने भी जा चुके हैं।

लेकिन वे मन्दिरों में नहीं जाते यह पक्का है। इसके दो कारण हैं- एक तो यह कि हिन्दू धर्म की अफीम का नशा अधिक गहरा होता है। दूसरा यह कि उनको लड़की नहीं छेड़नी है, क्योंकि हिन्दू मंदिरों में लोग लड़की छेड़ने ही जाते हैं।

लड़की छेड़ने का यह ज्ञान हमें राहुल बाबा ने दिया था। इसलिए उन्होंने कसम खा रखी थी कि जालीदार टोपी भले ही पहन लेंगे, लेकिन कभी मन्दिरों में नहीं जायेंगे, ताकि उनको नशा न चढ़ जाये।

लेकिन बुरा हो राजनीति का। जब केवल रोजा अफ्तारों में भाग लेने से उनको जीतने लायक वोट नहीं मिले और बार-बार हारने लगे, तो वोट के लिए उन्हें झख मारकर जालीदार टोपी उतारकर फेंकनी पड़ी और मन्दिर-मन्दिर भटकना पड़ा। पहले वे जालीदार टोपी पहनकर एक समुदाय को मूर्ख बनाकर वोट लिया करते थे, अब मन्दिर-मन्दिर जाकर दूसरे समुदाय को मूर्ख बनाकर वोट बटोरना चाहते हैं। कोई आश्चर्य नहीं होगा यदि वह समुदाय मूर्ख बन भी जाये।

लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि अब धर्म अफीम नहीं रहा। इसका मतलब बस इतना है कि जब तक वोट मिल रहे हैं तब तक धर्म अफीम नहीं माना जाएगा, और जब वोट मिलना बन्द हो जायेंगे, तो वे फिर धर्मनिरपेक्ष होकर धर्म को अफीम मानने लगेंगे।

अब यह पूछकर बच्चों जैसी बात मत कीजिए कि वे किस धर्म को मानते हैं। सब जानते हैं कि वे केवल एक ही धर्म को मानते हैं, जिसका नाम है कुर्सी। इस कुर्सी के लिए वे सिर पर जालीदार टोपी पहनने से लेकर कोट के ऊपर जनेऊ लटकाने तक को तैयार हैं। गोया गंगा गये तो गंगादास और जमुना गये तो जमुनादास! यही उनके लिए धर्मनिरपेक्षता का पैमाना है। अब आप इसे उनकी शर्मनिरपेक्षता कहते हैं, तो आपकी मर्जी।

— बीजू ब्रजवासी
अगहन शु ११, सं २०७४ वि (३० नवम्बर २०१७)