लघुकथा

मददगार

भूख से तड़प तड़प कर मर चुके ‘ कलुआ ‘ के घर गांव के सरपंच साहब पहुंचे । मीडिया कर्मी पहले ही पहुंचे हुए थे । पिता के शव से लिपट कर करुण क्रंदन कर रही मुनिया के आंसू पोंछते हुए सरपंच साहब बोले ” चुप हो जा बेटी ! हम सब गांव वाले तेरे अपने ही हैं न ! किसी भी चीज की जरूरत हो निस्संकोच मांग लेना ।”

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।

4 thoughts on “मददगार

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    राजकुमार भाई , जब कलुआ भू०ख से तड़प रहा था तो सरपंच साहब कहाँ थे ? यह लोग बस डब्बल स्टैण्डर्ड ही हैं .

    • राजकुमार कांदु

      बिल्कुल सही कहा आपने आदरणीय भाईसाहब ! भूख से तड़प तड़प कर जान गंवाने वाले कलुआ जैसे गरीबों की मौत पर भी राजनीति होती है और मीडिया को देखकर उसके कई नए हमदर्द पैदा हो जाते हैं । सुंदर प्रतिक्रिया के लिए हॄदय से आभार !

  • लीला तिवानी

    प्रिय ब्लॉगर राजकुमार भाई जी, छोटी-सी लघुकथा इंसानियत के दोहरे मापदंड क बहुत बड़ा संदेश छोड़ गई. यथार्थ को दर्शाती हुई अत्यंत मार्मिक, सटीक व सार्थक रचना के लिए आपका हार्दिक अभिनंदन व धन्यवाद.

    • राजकुमार कांदु

      आदरणीय बहनजी ! बेहद सुंदर उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आपका धन्यवाद ।

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