लेखसामाजिक

दलित संस्कृति : कलात्मक संपत्ति

संस्कृति की आधारशिला पर विचार करने से स्पष्ट होता है कि जिस प्रकृति के द्वारा मानव को जीवन मिला एवं चेतना प्राप्त होती है उसी प्रकृति संस्कृति की नींव है। वास्तव में संस्कृति समाज की उस स्थिति का नाम है जो आदर्श मूल्यों को पहचानकर श्रेष्ठतम जीवन की ओर अग्रसर हो। इसके अंतर्गत मानव जीवन जीने योग्य बनानेवाले उन सभी सुयोग्य उपकरणों को शामिल किया जाता है। मानव के विकास में सामाजिक और सांस्कृतिक विकास मिला हुआ है।
संस्कृति ब्रह्म की भांति अवर्णनीय है। संस्कृति के अर्थ के बारे में विद्वानों में मतभेद रहा है। जिस तरह जीवन की निश्चित परिभाषा देना आसान नहीं है उसी तरह संस्कृति की परिभाषा को भी व्यक्त नहीं कर सकते। यह अत्यंत व्यापक और गंभीर अर्थ का बोधक है। नृविज्ञान में संस्कृति का अर्थ ” समस्त सीखा हुआ व्यवहार ” होता है अर्थात वे सब बातें जो हम समाज के सदस्य होने के नाते सीखते हैं। कई विद्वानों का अभिमत यही रहा है कि इसके अंतर्गत धर्म, आचार-विचार, रहन – सहन, वेष -भूषा, साहित्य – कला, ज्ञान -विज्ञान, राजनीति, नैतिकता आदि की मान्यताएँ गिनी जाती हैं। व्युत्पत्ति की दृष्टि से संस्कृत शब्द पर विचार किया जाय तो ज्ञात होता है कि संस्कृति शब्द संस्कृत से निष्पन्न हुआ है।
संस्कृति शब्द अंग्रेजी के कल्चर का पर्यायवाची शब्द है। ” कल्चर शब्द कल्टिवेशन का समानार्थक है। “1 कल्टीवेशन का अर्थ है कि ” कृषि कर्म के साथ उन्नति। “2 नलंदा शब्द सागर में संस्कृति की परिभाषा इस प्रकार है कि ” जाति या राष्ट्र की वे सब बातें जो उसके ( मनुष्य) मन, रूचि, आचार – विचार, कला – कौशल, एवं सभ्यता के क्षेत्र में बौद्धिक विकास का सूचक रहते हैं, संस्कृति के अंतर्गत आते हैं। “3 संस्कृति के संबंध में विभिन्न विद्वानों की परिभाषाओं पर प्रकाश डालेंगे।
संस्कृति की व्याप्ति विश्व मानव समाज में इतनी गहन है कि जिससे सभी विद्वानों का ध्यानाकृष्ट होना स्वाभाविक है। प्राय: सभी विद्वानों, साहित्यकारों, समाज शास्त्रियों व दार्शनिकों ने इसकी परिभाषा दी हैं। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार ” संस्कृति मानव की विविध साधनों की सर्वोत्तम परिणति है। “4 संस्कृति बौद्धिक विकास की अवस्थाओं को सूचित करती है सभ्यता परिणाम शारीरिक और भौतिक विकास है। आगे वे लिखते हैं कि ” सभ्यता का आंतरिक प्रभाव ही संस्कृति है। “5 संस्कृति का संबंध मुख्यत: मनुष्य की बुद्धि, स्वभाव, मन: प्रवृत्ति से होता है। डॉ. सर्वेपल्ली राधाकृष्णन के अनुसार ” संस्कृति विवेक, बुद्धि, का जीवन भली प्रकार मान लेने का नाम है। “6 राजगोपालाचारी ने संस्कृति की परिभाषा इस प्रकार दी हैं कि ” किसी भी जाति अथवा राष्ट्र के शिष्ट पुरूषों में विचार वाणी एवं क्रिया का जो रूप व्याप्त रहता है, उसी का नाम संस्कृति है। “7 डॉ. रामधारी सिंह दिनकर जी संस्कृति को जिंदगी का तरीका मानते हुए लिखा है कि ” संस्कृति जिंदगी का तरीका है और यह तरीका सदियों से जमा होकर उस समाज में छाया रहता है जिसमें हम जन्म लेते हैं। “8 संस्कृति का अर्थ सम्यक कृति या संभूय कृति भी है। संस्कृति तथा सभ्यता के संदर्भ में गुरूदत्त लिखते हैं कि ” संस्कारजन्य व्यवहार अथवा स्वभाव को संस्कृति कहते हैं। “9 संस्कृति का विषय अपार है। पंडित जवहारलाल नेहरू की परिभाषा इस प्रकार है कि ” संसारभर में जो भी सर्वोत्तम बातें जाने या कही गयी है, उनसे अपने आपको परिचित करना संस्कृति है। “10 आर बेंडिक्ट के अनुसार ” A Culture like an individual is a more or less consistent pattern of Thought and action. “11 विभिन्न विद्वानों के विचारों को विशाल एवं व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने पर हमें संस्कृति की अखंडता और गतिशीलता का परिचय प्राप्त होता है। यह पीढ़ी – दर – पीढ़ी का संप्रेषण भी होता रहता है।
संस्कृति मानव की रचना है। इस रचना के लिए मनुष्य प्रकृति के उपादानों का उपयोग करता है। यह परंपरागत आचार – विचार और भौगोलिक परिवेश से प्रभावित हुए बिना रह नहीं सकती है। संस्कृति हमारे दैनिक व्यवहार में, कला में, साहित्य में, धर्म में, मनोरंजन और आनंद में पाये जानेवाले रहन – सहन और विचारों की अंतर्निहित प्रवृत्ति की द्योतक है। संस्कृति का संबंध तीनों कालों से होता है भूत, भविष्य और वर्तमान से। संस्कृति अपने भविष्य के ध्रुवतारे पर निगाह रखकर चलती है। संस्कृति का क्षेत्र सार्वभौमिक और सार्वजनिक है। समिष्ठिगत जीवन से इसका संबंध होता है। जाति, राष्ट्र, और व्यक्तियों के द्वारा कल्पित सीमाओं, पन्थों एवं मत भेदों के बावजूद भी मानवता की जो अजस्र अमिट भाव धारा अंतर्निहित है।
भारतीय जीवन में संस्कृति को भौतिक, दैविक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाता है। भारतीय संस्कृति कई संस्कृतियों का समन्वय रूप है। इसमें हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध, जैन आदि संस्कृतियों की अपनी-अपनी अलग विशेषता है। लेकिन यहाँ की प्रधान संस्कृति हिंदू संस्कृति है। हजारों वर्षों से हिंदू संस्कृति का वर्चस्व ही जन मानस पर अंकित हुआ है। भारतदेश में हिन्दू संस्कृति के अलावा अन्य संस्कृति भी देखने को मिलती है। इस देश में हिंदू संस्कृति जिस तरह प्राचीन संस्कृति रही है उसी तरह बौद्ध संस्कृति प्राचीन संस्कृति रही है। इस संस्कृति को ताँत्रिक संस्कृति के रूप में भी माना गया है। इस प्रकार मध्यकालीन युग में धार्मिक अवस्था में इस्लाम का आगमन एक महत्वपूर्ण घटना मानी जाती है। मुसलमान भी इस देश में आये और अपनी संस्कृति को ले आयें। इस देश में ईसाइयों का आगमन हुआ और उनके साथ उनकी संस्कृति भी आयी है। भारत में अधिक संख्या में रहनेवाले दलितों की भी अपनी संस्कृति है। जो सदियों से चली आ रही है।
समाज शास्त्रीय संदर्भ में मुख्य रूप से दो ही संस्कृतियाँ बताया गया है। एक तो सभ्य संस्कृति है दूसरी असभ्य संस्कृति। स्वान्त: सुखवादी विलासमय जीवन की सवर्ण संस्कृति सभ्य संस्कृति की कोटि में गिनी गयी है। शोषित, पीड़ित एवं उत्पादक वर्गों की दलित संस्कृति को असभ्य संस्कृति माना गया है। सवर्णों की जो संस्कृति है वह अत्याचार, बलत्कार, शोषण, अनैतिक अधिकार जमा करने की कुटिल तंत्र की है। यह मंत्र – तंत्र, पूजा – पाठ, देव – दानवों की कल्पना में भाग्यवाद पर विश्वास करते, मूढ़ाचार एवं अंध विश्वासों में जूझते स्वार्थी थी। बाबा साहब डॉ.अंबेडकर भारतीय संस्कृति को हिंदू संस्कृति मानते मनुवादी संस्कृति की संज्ञा दी है। मनुवाद पर आधारित यह संस्कृति केवल उच्च वर्णों के लिए लाभदायक है। इस संस्कृति में पशुओं को भगवान के रूप में पूजा करते हैं परंतु इंसान को पशुओं से भी हीन समझा जाता है।
उपयोगिता के धरातल पर संस्कृति मानवीय सृजनशीलता, वस्तुक्रम, और औद्योगिक जगत आदि का निर्माण करती है। मनुष्य के आत्मिक जीवन का विस्तार, मानववादी चिंतन और मानसिक विकास एवं भौतिक समृद्धि है संस्कृति। डॉ. श्यामाचरण दुबे लिखते हैं कि ” संस्कृति मनुष्य की वह रचना है जिसमें मानव की सृजनात्मक शक्ति और योग्यता का चरम निहित है। संस्कृति में मनुष्य समाज के इतिहास की विकास कड़ियों के सूत्र दर्ज हैं। संस्कृति सहभागिता से निर्मित जीवन की भौतिक सामग्रियों की उपयोगिता की संकल्पनाएँ समाहित हैं। संस्कृति में मनुष्य के बाह्य आंतरिक मूल्यों की अभिव्यंजना होती है जिसे मनुष्य पूर्वजों से ग्रहण करता आया है। संस्कृति मनुष्य को जीवन जीने की एक उच्च भाव भूमि प्रदान करती है। “12 भारतीय समाज में अनादि काल से अस्पृश्य समझी जानेवाली जातियों की संस्कृति का अपना अलग महत्त्व है। आज दलित संस्कृति के नाम से जाना जाता है। सवर्ण संस्कृति से दबी हुई इस संस्कृति में कलात्मक जो संपदा है यह भारतीय इतिहास का शिरोमुकुट है। समाज के हर कार्य में, हर खंडहर में अपना मुखड़ा दिखाती हुई रौनक है। हजारों सालों से वंचित जातियों की प्रतिभा को आज खोने के खगार पर हैं। समाज के विकास में मानव की भौतिकोन्नति में इसकी रूप रेखाएँ इसकी साक्षी हैं। सवर्ण संस्कृति के संदर्भ में इसकी भूमिका अमूल्य देन है। विवाह, जन्मोत्सव, विविध प्रकार के तीज – त्यौहारों में ढ़ोल बजाना, नाचना, साहस कृत्यों के प्रदर्शन करना दलितों की कला प्रतिभा का सजीव दर्पण है। अमानवीय व्यवहार की पीड़ा को सहनते हुए जन मानस को रंजित करनेवाली दलित की कलात्मकता उनकी संस्कृति की अद्वितीयता का परिचायक है। अनादि से उपेक्षित दलित समाज अपनी संस्कृति को सवर्ण संस्कृति के साथ समेटते हुए चलने का प्रयास तो किया है। फिर भी दलितों को नीच एवं जंतु से हीन देखते हुए अपनी संस्कृति की सहभागी नहीं बनने दिया है। मंदिरों में पूजा करने से मना करते, तमाम अनिष्ठानों से दूर रखते, समाजिक समानता से वंचित करते सवर्णों ने अपना कुटिल तंत्र अजमाया है।
संदर्भ :
1. ग्लोरियस आफ़ इंडिया इंट्रडेक्शन, डॉ.पी.के. आचार्य, पृष्ठ 5.
2. कांप्रिहेन्सिव इंग्लिश हिंदी डिक्शनरी, पृष्ठ 417.
3. नलंदा विशाल शब्द सागर, पृष्ठ 1388.
4. अशोक के फूल, डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृष्ठ 64.
5. विचार और वितर्क, डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृष्ठ 18.
6. स्वतंत्रता और संस्कृति, डॉ. सर्वेपल्ली राधाकृष्णन, पृष्ठ 53.
7. हिंदू संस्कृति, कल्याण अंक, पृष्ठ 63.
8. संस्कृति के चार अध्याय, रांधारी सिंह दिनकर, पृष्ठ 653.
9. संस्कृति के चार अध्याय, रामधारी सिंह दिनकर, पृष्ठ प्रस्तावना xi
10. धर्म संस्कृति और राज्य, गुरूदत्त, पृष्ठ 27.
11. Patterns and Culture , R. Bendict, Page 46.
12. बाबा सहब डॉ.अंबेडकर संपूर्ण बांगमय भाग 12 पृष्ठ 2.

पी. रवींद्रनाथ

ओहदा : पाठशाला सहायक (हिंदी), शैक्षिक योग्यताएँ : एम .ए .(हिंदी,अंग्रेजी)., एम.फिल (हिंदी), पी.एच.डी. शोधार्थी एस.वी.यूनिवर्सिटी तिरूपति। कार्यस्थान। : जिला परिषत् उन्नत पाठशाला, वेंकटराजु पल्ले, चिट्वेल मंडल कड़पा जिला ,आँ.प्र.516110 प्रकाशित कृतियाँ : वेदना के शूल कविता संग्रह। विभिन्न पत्रिकाओं में दस से अधिक आलेख । प्रवृत्ति : कविता ,कहानी लिखना, तेलुगु और हिंदी में । डॉ.सर्वेपल्लि राधाकृष्णन राष्ट्रीय उत्तम अध्यापक पुरस्कार प्राप्त एवं नेशनल एक्शलेन्सी अवार्ड। वेदना के शूल कविता संग्रह के लिए सूरजपाल साहित्य सम्मान।