कविता

जड़ की कसक

पूछा है शाखों से जड़ों ने, हम बिन चैन क्या पाओगे?
सूख गए जो प्राण हमारे, क्या तुम फिर मुसकाओगे?

हमने धरती में दबकर माटी का बोझ उठाया है,
बरखा-धूप सही शीतलता तब तुमने सुख पाया है,
हमने मिटकर तुम्हें सँवारा, क्या यह भी झुठलाओगे?
पूछा है शाखों से जड़ों ने, हम बिन चैन क्या पाओगे?

रखी ना हमने चाह फलों की, और कभी ना छत चाही
खिली कोंपले, कलियाँ महकी,तब भीतर हम मुसकाईं
जब गुलजार हुई है बगिया, क्या हमको ठुकराओगे?
पूछा है शाखों से जड़ों ने, हम बिन चैन क्या पाओगे?

शरद सुनेरी

2 thoughts on “जड़ की कसक

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी कविता

  • विधिशा राय

    जड़ के मनोभावों को काव्यरूप में .. अद्भुत ।

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