लघुकथा

आत्मग्लानि

एक्टिवा पार्क कर मै जल्दी जल्दी शापिंग कॉम्पलेक्स की सीढियाँ चढ़ रही थी.. क्योंकि बच्चों को स्कूल से लेने भी जाना था कि तभी पीछे से आवाज आयी – “बेटी, ये दवा लेना है इतनें पैसे दे दो” । मैं पलटी – उन बुजुर्ग आदमी की मजबूरी देखने से पहले ना जाने कितने सीख… कितनी कहानियाँ याद आ गयी.. कि भरोसा नहीं करना चाहिए, ये पर्स छीन के भाग जाते है.. इनका पेशा यही है ब्ला-ब्ला | मै मन की दुसरी आवाज दबा उपर चली गयी।
शॉप के पहुंचने के बाद मेरी आत्मा झिझोडनें लगी.. क्या पता उस इन्सान को सही में जरूरत हो, मैं भाग कर बाहर आयी तो, वहां कोई नहीं था सिर्फ मेरी आत्मग्लानि के अलावा। मै खुद पर बहुत नाराज़ हुई , कुछ पैसों से मदद करने से मैं गरीब तो नही हो गयी होती.. क्या पता उनकी जरूरत सच्ची थी ।

साधना सिंह

साधना सिंह

मै साधना सिंह, युपी के एक शहर गोरखपुर से हु । लिखने का शौक कॉलेज से ही था । मै किसी भी विधा से अनभिज्ञ हु बस अपने एहसास कागज पर उतार देती हु । कुछ पंक्तियो मे - छंदमुक्त हो या छंदबध मुझे क्या पता ये पंक्तिया बस एहसास है तुम्हारे होने का तुम्हे खोने का कोई एहसास जब जेहन मे संवरता है वही शब्द बन कर कागज पर निखरता है । धन्यवाद :)