हास्य व्यंग्य

दास्तान बनती खाने-खिलाने की बातें…

मौका भी रहता है और दस्तुर भी,तभी तो खाने-खिलाने की बात होती है।अब खाने-खिलाने पर भी यदि प्रश्नचिन्ह लग जाएं,पाबन्दी की बात करेंगे,तब तो हो गया काम!आखिर सार्वजनिक जीवन में काम करने कोई क्यों आयेगा!ठीक है आप सत्ता में आये तब आपने कहा था कि न खाऊंगा और न ही खाने दूंगा लेकिन खाने वालों को क्या रोक पाये हैं!खाने वालों को और खिलाने वालों को आज तक कौन रोक पाया है।नीच शब्द का अर्थ न जानने    और समझने वाले विद्वान अपने घर पर डिनर मीटिंग यानी खिलाने की बैठक ,वह भी निशा काल के खाने की बैठक आयोजित कर लेते हैं तो इसमें गलत क्या है!वे बेचारे बहुत ही इनोसेंट हैं।कई लोगों को  जिस तरह से शब्दों का ज्ञान नहीं होता है, ठीक उसी तरह से खाने-खिलाने के मौके और दस्तुर का भी भान नही होता है।हो सकता है कि यदि इसमें भी कुछ गलत माना जाता है तो माफी मांगना एक सार्वभौम तरीका है।

अब जबकि वे मासुम है और उन्हें मालुम नहीं है, शायद इसीलिए तो यह पूछा जा रहा है कि क्या खाने के लिए भी सरकार से इजाजत लेना पड़ेगी!यह बात तो उन्हें भी समझ लेना चाहिए कि जहाँ मिल-बांटकर खा लिया जाता है वहाँ कहीं कोई प्रश्नचिन्ह नहीं लगता है लेकिन जहाँ अकेले-अकेले खाना-खिलाना हो जाता है वहाँ ऊंगलियाँ उठने लगती है और फिर यहाँ तो मौका और मेहमान ही चुनने में चुक हो गई।वैसे भी इस मामले में लगता है कि उनके संज्ञान में यह लाया ही नहीं गया कि खुलकर खाना-खिलाना सामाजिक व्यवहार के अनुकूल नहीं है और इसीलिए कुछ तो गोपनीयता रखे जाने का उनका तकाजा भी है।इधर उनके लिए रोम जल रहा है और आप यहाँ नीरो बनकर बांसुरी बजा रहे हो।यह आग में घी नहीं तो और क्या है!

प्रश्न यह भी उठाया जा रहा है कि ऐसे समय में जबकि सत्ता पक्ष के लिए जीवन-मरण का सवाल उठ खड़ा हुआ है तब ऐसे मेहमानों के साथ खाने का अधिकार किसने दे दिया है!जो हमारे घोर शत्रु हैं।वैसे शत्रु का शत्रु मित्र हो सकता है।

जाहिर सी बात है कि जो सत्ता में रहता है वही तो खाने-खिलाने की बात कर सकता है, चाहे वह देश के भीतर हो या देश के बाहर।माना कि जब वे सत्ता में थे,तब उन्होंने इस खाने-खिलाने पर कोई कोई आक्षेप नहीं लगाया,न ही कोई टीका-टिप्पणी की।कभी यह नहीं कहा कि न खाऊंगा और न ही खाने दूंगा।कितना अच्छा था कि सदैव मौन साधे रहते थे और ज्यादा कुछ हुआ तो कह देते थे कि मैं मजबूर हूँ।घोटाले करने वाले करते जा रहे थे और वे बेचारे मजबूर बनकर मूक दर्शक की भूमिका निभाते रहते थे।

खैर,समय समय की बात है।अब जब बात खाने-खिलाने की हो रही है तो इसमें यह भी स्पष्ट नहीं है कि मेजबान कौन है और मेहमान कौन है क्योंकि आजकल चलन ऐसा हो गया है कि बाराती के घर घराती को जाना पड़ता है और सारे इंतजामात बाराती सशुल्क करते हैं।अब फोकट में सेवा कौन करता है।यहाँ तो जबराना वसूलने का चलन जो है!यहाँ भी कुछ ऐसा ही हो सकता है।आप और हम तो कयास ही लगा सकते हैं।इस फील्ड के लोग ही सच्चाई से भिज्ञ होते हैं और इसीलिए हायतौबा मची हुई है।चलिये उनकी बात वे खुद जानें,हमें क्या!अपनी बला से!खाने वाले खाते रहें,खिलाने वाले खिलाते रहें,काला सफेद होता रहे,सफेद काला होता रहे,अपनी बला से!

*डॉ. प्रदीप उपाध्याय

जन्म दिनांक-21:07:1957 जन्म स्थान-झाबुआ,म.प्र. संप्रति-म.प्र.वित्त सेवा में अतिरिक्त संचालक तथा उपसचिव,वित्त विभाग,म.प्र.शासन में रहकर विगत वर्ष स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ग्रहण की। वर्ष 1975 से सतत रूप से विविध विधाओं में लेखन। वर्तमान में मुख्य रुप से व्यंग्य विधा तथा सामाजिक, राजनीतिक विषयों पर लेखन कार्य। देश के प्रमुख समाचार पत्र-पत्रिकाओं में सतत रूप से प्रकाशन। वर्ष 2009 में एक व्यंग्य संकलन ”मौसमी भावनाऐं” प्रकाशित तथा दूसरा प्रकाशनाधीन।वर्ष 2011-2012 में कला मन्दिर, भोपाल द्वारा गद्य लेखन के क्षेत्र में पवैया सम्मान से सम्मानित। पता- 16, अम्बिका भवन, बाबुजी की कोठी, उपाध्याय नगर, मेंढ़की रोड़, देवास,म.प्र. मो 9425030009