सामाजिक

मौन साधक रहकर मितभाषी बनें

बिना शब्दों के जीवन ही व्यर्थ है लेकिन शब्दों का प्रयोग कब,कैसे और किस तरह किया जाए,यह महत्वपूर्ण है।शब्द जंजाल न बन जाए,शब्दों की महिमा निराली है।वाणी में मिठास और शब्दों में अपनापन जहाँ परायों को भी अपना बना दे वहीं शब्दों में कड़वाहट अपनों को भी दूर कर दे,उन्हें पराया बना दे।अतः शब्दों का चयन सोच समझकर किया जाना चाहिए साथ ही निरर्थक वार्तालाप से बचना भी चाहिए।

मेरे एक मित्र हैं,बहुत ही वाचाल।उन्हें बोलने का अपनी बातें कहने का बहुत शौक है।अपने सामने किसी को टिकने ही नहीं देते।लगातार वे ही इतना बोलते हैं कि दूसरे को बोलने का मौका ही नहीं मिलता है।जहाँ एक बार बोलना शुरु होते हैं तो चुप होने का नाम ही नहीं लेते।स्थिति तो यहाँ तक बनती है कि जहाँ चार लोग खड़े होकर वार्तालाप कर रहे हों और उन्हें देख लें तो तुरन्त ही उनसे कन्नी काट लेंगे।उनके बारे में यह कमेंट करते सुना गया है कि अरे,वह पकाऊ आ रहा है, जल्दी से निकल लो वरना पीछा छुड़ाना मुश्किल हो जाएगा।इसी तरह कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिन्हें विषय का ज्ञान तो नहीं होता लेकिन अनाधिकृत चेष्टा करते हुए बातचीत में दखल देना शुरू कर देते हैं।ऐसे लोग दूसरों की सुनना पसंद नहीं करते वरन अपने ही शब्दों पर जोर देते हुए अपनी ही बात कहना,सुनाना और मनवाना चाहते हैं।इसी तरह ऐसे लोग भी हैं जो बोलने लगते हैं तो समय का ध्यान ही नहीं रखते।सामने वाले के पास आपकी बातचीत सुनने का समय है भी या नहीं,इस बात का भी ध्यान नहीं रखते।

      मेरे एक परिचित ऐसे भी हैं जो सभाओं,महफ़िलों,समूहों में तो मौन रहते ही हैं,किसी के मिलने पर भी वार्तालाप में अधिक सहभागी नहीं बनते;यहाँ तक कि उनके मौन पर लोग उनकी हँसी तक उड़ा देते हैं लेकिन तब भी वे खामोश ही रहते हैं।अपने साथ इस तरह के व्यवहार पर भी उन्हें गुस्सा नहीं आता और न ही वे कोई प्रतिकार ही करते हैं।माना कि वे अन्तर्मुखी हैं लेकिन जहाँ शब्द बाणों की आवश्यकता है वहाँ अपने मुख रूपी तरकश से शब्द रूपी बाण का छोड़ना चाहिए लेकिन वे यह भी नहीं करते  ।इसका तात्पर्य यह नहीं है कि शब्द बाण से घाव कर सामने वाले को आहत ही किया जाए लेकिन मौन रहने वाले के सम्बन्ध में यह धारणा भी नहीं बनना चाहिए कि उसका मौन उसकी कमजोरी है और वह अज्ञानी है।व्यक्ति को देश,काल और परिस्थिति के अनुसार इस बात को निर्धारित करना चाहिए कि कहाँ बोलना है और कहाँ खामोश रहना है।

सामान्यतः बहुमूखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति को वाचाल देखा गया है और अन्तर्मूखी व्यक्ति को शान्त तथा मौन देखा गया है किन्तु जरूरी नहीं है कि बहुमूखी प्रतिभा वाला व्यक्ति वाचाल ही हो,वह मौन रहकर भी अपने कार्य को कार्यरूप में परिणित कर सकता है।कई लोग अपने काम से काम रखते हैं।अनावश्यक रूप से लोगों से मिलना-जुलना ,बोलना-चालना पसन्द नहीं करते,ऐसे कर्मशील लोगों के प्रति भी गलत धारणा बन जाती है लेकिन इस बात की परवाह नहीं की जाना चाहिए।अधिक वाचालता से व्यक्ति की शक्ति का ह्रास होता है और उसकी विश्वसनीयता भी संदिग्ध होने लगती है।अधिक बोलने वाले की बातों पर लोगों का विश्वास भी कम हो जाता है।मौन की शक्ति से व्यक्ति के प्रभाव में वृद्धि होती है।अधिक वाचालता और मौन के सम्बन्ध में कहा गया है-

“मूरख के मुख बम्ब है,निकसत बचन भुजंग।

ताकी औषधि मौन है,विष नहीं व्यापै अंग।।

विनोबा भावे ने भी कहा है- “मौन और एकान्त,आत्मा के सर्वोत्तम मित्र हैं।”

स्वामी विवेकानन्द का तो मानना था कि- “मौन क्रोध की सर्वोत्तम चिकित्सा है।”

  कह सकते हैं कि वार्तालाप बुद्धि को मूल्यवान बना देता है किन्तु एकान्त और मौन प्रतिभा की पाठशाला है।मौन निद्रा के सदृष्य है।यह ज्ञान में नई स्फूर्ति पैदा करता है मौन में शब्दों की अपेक्षा अधिक वाकशक्ति होती है।पंचतंत्र में कहा गया है कि- “मौनं सर्वार्थसाधनम्”,अर्थात मौन सारे काम बना देता है।

 मौन रहने के बहुतेरे फायदे हैं, मौन रहने वाले को अपनी किसी बात का स्पष्टीकरण नहीं देना पड़ता है और न ही खेद प्रकट करना पड़ता है जबकि सदैव बकबक करने वाले को अपनी कही बातों के स्पष्टीकरण भी देना पड़ते हैं।कई बार अपनी गलत बयानी के लिए खेद भी प्रकट करना पड़ता है, माफी मांगना पड़ती है।ज्यादा बोलने वालों के साथ दिक्कत यह भी रहती है कि बिना सोच विचार किये बोल तो जाते हैं लेकिन उन्हें यह स्मरण नहीं रहता कि कुछ पल पहले वे क्या बोले थे।इसके विपरीत मितभाषी या मौन साधक के नहीं बोलने के बहुतेरे फायदे हैं, कोई उनकी जुबान नहीं पकड़ सकता,कोई उनके भेद नहीं उगलवा सकता।मन की बात मन के अन्दर ही रहती है, कहीं बहस का मुद्दा नहीं बनती।अतः हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि दिनभर में हम अपने-पराये कई

लोगों से मिलते हैं, जिनसे मिलने पर अधिक बोलकर हम अपनी उर्जा अनावश्यक रूप से नष्ट करते हैं।अनियंत्रित रूप से बोलकर हम कई संकटो को भी आमंत्रित करते हैं।यदि सीमित और संयमित ढ़ंग से वाणी का प्रयोग किया जाए तो हम निरर्थक बहस और संघर्षों से बच सकेंगे।इसके लिए मौन का प्रयोग भी किया जाना चाहिए।मौन एक साधना है।मौन शक्ति संचय का एक अनूठा तरीका है।इसके द्वारा हम आध्यात्मिक रूप से सम्पन्न होते हैं तथा आन्तरिक रूप से शक्ति सम्पन्न होकर व्यावहारिक जीवन में अपनी आन्तरिक एवं बाह्य शक्ति के अपव्यय को भी रोकते हैं।मौन रहकर ही हम सकारात्मक सोच को विकसित कर सकते हैं तथा मानसिक शांति पा सकते हैं।वाणी का संयमित एवं संतुलित प्रयोग कर ही हम आदर्श जीवन की प्राप्ति कर सकते हैं।यह कम शब्दों के प्रयोग एवं मौन साधना से ही संभव है।

  अतः हमें अधिक वाचालता से बचना चाहिए और मौन साधना का अभ्यास सतत रूप से करते रहना चाहिए।इसके द्वारा हमारी सोचने-विचारने की शक्ति में वृद्धि होगी, साथ ही स्मरण शक्ति बढ़ाने,एकाग्रता,शांति और सकारात्मक सोच की दिशा में भी अग्रसर होंगे।यहाँ एक बात समझ लेना चाहिए कि मौन रहना यदि मूर्खों का बल है तो विद्वानों का आभूषण भी है।इसलिए कम बोलें,जहाँ आवश्यक हो, वहीं बोलें,सोच-समझकर शब्दों को तौलकर बोलें।मौन साधक बनकर और मितभाषी रहकर जियें तो जीने का एक अलग ही आनन्द आयेगा।

*डॉ. प्रदीप उपाध्याय

जन्म दिनांक-21:07:1957 जन्म स्थान-झाबुआ,म.प्र. संप्रति-म.प्र.वित्त सेवा में अतिरिक्त संचालक तथा उपसचिव,वित्त विभाग,म.प्र.शासन में रहकर विगत वर्ष स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ग्रहण की। वर्ष 1975 से सतत रूप से विविध विधाओं में लेखन। वर्तमान में मुख्य रुप से व्यंग्य विधा तथा सामाजिक, राजनीतिक विषयों पर लेखन कार्य। देश के प्रमुख समाचार पत्र-पत्रिकाओं में सतत रूप से प्रकाशन। वर्ष 2009 में एक व्यंग्य संकलन ”मौसमी भावनाऐं” प्रकाशित तथा दूसरा प्रकाशनाधीन।वर्ष 2011-2012 में कला मन्दिर, भोपाल द्वारा गद्य लेखन के क्षेत्र में पवैया सम्मान से सम्मानित। पता- 16, अम्बिका भवन, बाबुजी की कोठी, उपाध्याय नगर, मेंढ़की रोड़, देवास,म.प्र. मो 9425030009