धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

वर्ण व्यवस्था में भेदभाव न हो

ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य और शूद्र-ये समाज के चार आधार हैं। इनमें कोई छोटा बड़ा नहीं। ये चारों ही मनुष्य-समाज के उपयोगी अंग हैं।इनमें कोई भी अनुपयोगी नहीं है। किसी एक के बिना समाज का काम नहीं चल सकता। ये चारों वर्ण ही समान हैं।
यह कहना कि ब्राह्मण का पहला स्थान है, क्षत्रीय का दूसरा, वैश्य का तीसरा और शूद्र का चौथा स्थान है-समाज में व्यापक भेद-भाव को जन्म देता है।वैदिक वर्ण व्यवस्था में घृणा का कोई स्थान नहीं है।
जैसे सिर, भुजा, उदर और पांव में से एक के बिना भी शरीर अपना निर्वाह नहीं कर सकता, वैसे ही किसी भी एक वर्ण के बिना मनुष्य-समाज भी नहीं चल सकता। यदि पाँव में काँटा चूभता है तो आँखों से आँसू निकलते हैं।हाथ उसे निकालने के लिए प्रयत्न करते हैं। यही स्थिति समाज के चारों वर्णों की होनी चाहिये।
परस्पर भाईचारे के बिना मानव-समाज का कल्याण नहीं हो सकता। फिर भारत जैसे देश में, जहां सृष्टि के कण-कण में ब्रह्म को व्यापक माना जाता है, वहाँ शूद्र वर्ण से घृणा करना तो और भी लज्जास्पद है। इस दिशा में हमें पाश्चात्य देशों के निवासियों से शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये।
श्रीराम और श्रीकृष्ण को शूद्र भी अपना पूर्वज मानते हैं, गो की मर्यादा का पालन करते हैं और हमारे वे काम (मल-मूत्र उठाना और जूते गाँठना जो हमारे जीवन-निर्वाह के लिए आवश्यक है,जो हम स्वयं नहीं कर सकते) करते हैं।
जो हमारे ही समाज का अंग हैं, उन्हीं को हम घृणा की दृष्टि से देखते हैं। यह मानव-समाज और हिन्दू-समाज के प्रति घोर अपराध है। यह धारणा वेद-मर्यादा के विपरित है।वेद का आदेश है―
*अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते संभ्रातरो वावृधुः सौभगाय ।*
*युवा पिता स्वपा रुद्र एषां सुदुघा पृश्निः सुदिना मरुद्भ्यः ।।*
― (ऋ० 5/60/5)
*अर्थ:-*ऐसे तुम,जिनमें न कोई बड़ा है और न कोई छोटा है, ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए मिलकर बढ़ो।जीवों के लिए सुन्दर कर्म करने वाला, दुष्टों को रुलाने वाला, सदा एकरस रहने वाला परमात्मा तुम्हारा पिता है और उत्तम पदार्थों को देने वाली तथा सुख देने वाली प्रकृति है।
मन्त्र में सब मनुष्यों को समानता का उपदेश दिया गया है।ऐसे श्रेष्ठ उपदेश के होते हुए भी मनुष्य का अपनी ही जाति के मनुष्यों से घृणा करना घोर अपराध और महापाप है।
वर्ण-परिवर्तन –
शास्त्रों में वर्ण-परिवर्तन का विधान भी किया गया है।यदि कोई व्यक्ति अपने वर्णोचित गुणों का पालन नहीं करता तो वह अपने वर्ण से गिर जाता है।यदि कोई शूद्र गुण,कर्म और स्वभाव के कारण ब्राह्मण, क्षत्रीय और वैश्य बन सकता है तो उसे उस वर्ण की दीक्षा दी जाती है। मनु महाराज ने कहा है:-
*शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चेति शूद्रताम् ।*
*क्षत्रियाज्जातमेवन्तु विद्याद् वैश्यात् तथैव च ।।*
―(मनु० 10/65)
शूद्र ब्राह्मणत्व को प्राप्त हो जाता है और ब्राह्मण शूद्रत्व को। इसी प्रकार क्षत्रीय और वैश्य को जानो।
*धर्मचर्यया जघन्यो वर्णः पूर्वं पूर्वं वर्णमापद्यते जातिपरिवृत्तौ ।*
*अधर्मचर्यया पूर्वों वर्णों जघन्यं जघन्यं वर्णमापद्यते जातिपरिवृत्तौ ।। (आपस्तम्ब सूत्र)*
*अर्थ:-*धर्म का आचरण करने से छोटा वर्ण बड़े वर्ण को प्राप्त होता है और अधर्म का आचरण करने से बड़ा वर्ण छोटे वर्ण को प्राप्त होता है।
प्राचीन भारत में गुण,कर्म,स्वभाव के बदलने पर व्यक्ति का वर्ण बदल जाया करता था। विश्वामित्र ने क्षत्रीय होते हुए भी अपने तप के प्रभाव से ब्राह्मण-पदवी को प्राप्त किया।
जब विश्वामित्र राजा दशरथ के दरबार में आये तो महाराजा दशरथ ने उन्हें विप्रेन्द्र अर्थात् ब्राह्मण-श्रेष्ठ कहा कि पहले आप क्षत्रिय थे और अब ब्राह्मण हो गये हैं।
जाबाली के पुत्र सत्यकाम ने अपनी माता से कहा , “माँ ! मैं ब्रह्मचर्य आश्रम ग्रहण करना चाहता हूं। मुझे गोत्र का परिचय बतला दो।”
इस पर जाबाली ने कहा,”प्यारे, मैं यह नहीं जानती कि तू किस गोत्र वाला है। मैंने-अनेक स्थानों पर काम करने वाली नौकरानी ने-यौवन में तुझे पाया। इस कारण तू किस गोत्र वाला है, यह मैं नहीं जानती।”
सत्यकाम गौतम हारिद्रुमत के पास गया और बोला,”आर्य ! मैं ब्रह्मचारी बनना चाहता हूं। क्या आपकी शरण में आ सकता हूं?”
हारिद्रुमत ने पूछा कि “वत्स ! किस गोत्र में जन्म लिया है?”
उसने उत्तर दिया, “आर्य ! मैं किस कुल का हूं, यह मैं नहीं जानता।मैंने अपनी माता से पूछा तो उसने कहा―यौवन में सबकी सेवा करते हुए तू प्राप्त हुआ था।तू गुरुजी को जाबाल सत्यकाम बता देना।”
हारिद्रुमत ने कहा, “सच्चे ब्राह्मण को छोड़कर दूसरा कोई इस तरह अपने गुप्त भेद को नहीं बता सकता। जाओ, कुशा लाओ, मैं तुम्हें दीक्षा दूंगा ।”
वीतहव्य क्षत्रिय राजा थे।उन्होंने क्षत्रियत्व छोड़कर ब्राह्मणत्व को ग्रहण किया। वशिष्ठ वेश्या के पुत्र थे। मुनिश्रेष्ठ मंदपाल नाविका के पुत्र कहे जाते हैं। ‘व्यास’ मल्लाह की पुत्री से, तथा ‘पराशर’ श्वपाकी (चाण्डाली) के पेट से उत्पन्न हुए।
ये सब तप के कारण ब्राह्मणपद को प्राप्त हुए। नाभाग क्षत्रिय थे,फिर ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए।
उपर्युक्त उदाहरणों से पता चलता है कि प्राचीन भारत में वर्ण-व्यवस्था गुण,कर्म,स्वभाव के आधार पर निश्चित की जाती थी।