धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

 आप्त पुरुष का स्वरूप       

ओ३म्

ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर आप्त विद्वान पुरुष शब्द का प्रयोग हुआ है। स्वाभाविक है कि इस शब्द को पढ़कर इसका अभिप्राय जानने की इच्छा अवश्य होती है। इसके लिए हमने स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश’ पर दृष्टि डाली। ऋषि दयानन्द जी ने अपने इस लघु ग्रन्थ में आप्त पुरुष के लक्षण बताते हुए लिखा है कि वह पुरुष जो यथार्थ वक्ता, धर्मात्मा व सब के सुख के लिये प्रयत्न करता है उसी को आप्त कहता व मानता हूं। इसकी कुछ और चर्चा करते हैं। ऋषि दयानन्द जी कहते हैं कि आप्त पुरुष का प्रथम गुण उसका यथार्थ वक्ता होना है। यदि किसी मनुष्य में यह गुण है तो वह आप्त पुरुष है और यदि नहीं है तो वह पुरुष आप्त पुरुष नहीं है। यथार्थ वक्ता से अभिप्राय सत्य वक्ता से होता है। सत्य वक्ता वही होता है कि जो उसके ज्ञान में हो, मन में हो, अनुभव में व जिसे वह सत्य व हितकारी समझता हो, उसका वैसा ही वर्णन व उल्लेख दूसरों के सम्मुख करे, बताये व कहे। आजकल ऐसे लोग मिलना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। अज्ञानी लोग तो सत्य व असत्य का विवेक कर ही नहीं पाते। इसके लिए ज्ञानी होना अत्यावश्यक होता है। ज्ञानी होने के लिए विद्यावान होना भी आवश्यक है। विद्यावान मत-मतान्तर, ज्ञान-विज्ञान व कहानी-किस्सों की पुस्तकों को पढ़कर नहीं होता अपितु वेद व वैदिक साहित्य को पढ़कर बनता है।

वेद एवं वैदिक साहित्य उस ज्ञान का नाम है जो ईश्वर, जीव व प्रकृति के विषय में सत्य व यथार्थ कथन करते हैं। वेदों में व वेदों की व्याख्या में लिखे ऋषियों के वेदानुकूल साहित्य में सर्वत्र सत्य ही होता है। ऋषि भी आप्त पुरुष के समान सत्य व यथार्थ वक्ता को ही कहते हैं। हम देखते हैं कि संसार में वेदों के यथार्थ ज्ञानी अति अल्प संख्या में है। मत-मतान्तरों के सिद्धान्त व मान्यतायें वेदों के विरुद्ध होने से असत्य है। अतः किसी भी मत के अनुयायी वा आचार्य आप्त पुरुष कहे जाने योग्य नहीं है क्योंकि उनका यथार्थ व सत्य वक्ता होना सम्भव ही नहीं है। आप्त पुरुष तो ऋषि दयानन्द, स्वामी विरजानन्द सरस्वती मथुरा, स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरुदत्त विद्याथी, स्वामी सर्वदानन्द सरस्वती जी आदि जैसे लोग ही हुए हैं। हम आजकल वेदों से अनभिज्ञ अनेक प्रकार का ज्ञान रखने वाले लोगों को देखते हैं जो अपने स्वार्थ वा आवश्यकतानुसार सत्य को तोड़ते मरोड़ते हैं। ऐसे कुछ कुछ ज्ञानी व्यक्ति भी आप्त नहीं कहे जा सकते। अज्ञानी व्यक्ति आप्त हो ही नहीं सकता। उससे तो किसी गम्भीर व गहन विषय में चर्चा ही नहीं की जा सकती। वह किसी जिज्ञासु व शंकालु की शंका का समाधान करने की योग्यता ही नहीं रखता है। अतः आप्त पुरुष के लिए यथार्थ वा सत्य वक्ता का होना अनिवार्य है और इसके साथ वह वेदों का ज्ञानी व वेदानुसार आचरण करने वाला, वेद व ईश्वरभक्त, सभी एषणाओं से मुक्त, देश व समाज के लिए समर्पित, परोपकारी व धर्म को भली प्रकार से जानने वाला व उसका आचरण करने वाला होना भी आवश्यक है। ऐसा व्यक्ति हम ऋषि दयानन्द वा 6 दर्शनकारों व प्राचीन ऋषियों व वेदज्ञों आदि को ही कह सकते हैं। ऐसे व्यक्ति भी आप्त कहे जा सकते हैं जो सच्चे योगी हों और जिन्होंने योग व ध्यान में सफलता पाई हो। ध्यान में सफलता का तात्पर्य है कि जिन्होंने समाधि को सिद्ध कर ईश्वर का साक्षात्कार किया हो। ऐसे व्यक्ति भी आप्त हो सकते व कहे जा सकते हैं।

आप्त पुरुष का धार्मिक व धर्मात्मा होना भी आवश्यक है। धर्म सत्याचार को कहते हैं। धर्म का एक अर्थ मनुष्योचित कर्तव्यों का पालन भी है। मनुष्य किसे कहते हैं, इसका वर्णन भी ऋषि दयानन्द ने अपनी लघु पुस्तक स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश में किया है जिसे वहीं देखना उचित है। मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षण बताये गये हैं। यह हैं धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय-निग्रह, धी, विद्या, सत्य एवं अक्रोध। धर्मात्मा मनुष्य को इन धर्म के लक्षणों का पालन करना भी आवश्यक है। योग दर्शन में अष्टांग योग के प्रथम दो सोपान पांच यम व पांच नियम हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह यम हैं और शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर प्रणिधान नियम हैं। इनका पालन भी धर्मात्मा को पूर्णरूप से करना होता है। अनेक विद्वानों ने ऋषि दयानन्द के खोज पूर्ण जीवन चरित्र लिखे हैं। उन सबको पढ़ने पर जो तथ्य उपस्थित होता है उसके अनुसार ऋषि दयानन्द में धर्मात्मा होने के यह सभी गुण विद्यमान थे। जिस मनुष्य का आत्मा स्वार्थरहित है तथा जो पक्षपात व अन्याय से दूर है ऐसे अपढ़ लोग भी प्रायः धर्मात्मा देखे जाते हैं। अतः ज्ञानयुक्त धर्म का आचरण करने वाले मनुष्य को हम धर्मात्मा मान सकते हैं और ऐसा व्यक्ति आप्त पुरुष के प्रमुख गुणों से युक्त होता है। धर्म का एक अर्थ परोपकार करना भी होता है। अतः धर्मात्मा में इस गुण का होना भी अनिवार्य है।

आप्त विद्वान व पुरुष का तीसरा महत्वपूर्ण गुण है, उसका दूसरों के सुख के लिये प्रयत्न करना। आप्त पुरुष के इस गुण में दूसरे निर्बलों व धर्मात्माओं की सेवा व रक्षा के कार्य भी जुड़े हुए हैं। आप्त पुरुष किसी दुःखी मनुष्य को देखकर उसकी उपेक्षा नहीं कर सकता अपितु उसके दुःख का कारण जानकर उसे दूर करने के लिए उससे जो भी प्रयत्न हो सकते हैं वह अवश्य करता है वा करेगा। यदि विद्वान मनुष्य दूसरे दुःखी मनुष्यों के दुःख दूर करने के लिए उनकी सेवा व मार्गदर्शन आदि के द्वारा सहायता नहीं करता तो वह आप्त विद्वान के इस तीसरे महत्वपूर्ण गुण के न होने से आप्त पुरुष नहीं कहा जा सकता। उसमें यह गुण भी होने ही चाहियें। विचार करने पर यह भी ज्ञात होता है कि आप्त पुरुष पूरे विश्व को अपना परिवार समझता है और ईश्वर जिस प्रकार सब मनुष्यों व प्राणियों पर समान रूप दया व कृपा रखता है, उसी प्रकार से आप्त पुरुष भी प्राणी मात्र को अपना परिवार जानकर उनको सुखी बनाने के लिए हर सम्भव प्रयत्न करता है। विचार करने पर यह भी ज्ञात होता है कि मनुष्यों को सुखी बनाने का वैदिक उपाय है कि ज्ञानी व अज्ञानियों में वेद प्रचार किया जाये। अज्ञानियों का अज्ञान दूर किया जाये और उन्हें वेदोक्त कर्तव्य-कर्मों की शिक्षा देकर उसमें प्रवृत्त किया जाये। ऋषि दयानन्द में यह सभी गुण प्रचुर मात्रा में विद्यमान थे। इस कारण वह सच्चे आप्त विद्वान पुरुष थे। उनके जैसा जीवन जीने वाला मनुष्य ही आप्त पुरुष होता है।

इस लेख में हमने आप्त पुरुष के स्वरूप व गुणों के बारे में संक्षेप में चर्चा की है। यह लेख पाठकों को भेंट करते हैं। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य