लघुकथा

रणचंडी

रजनी आज बहुत खुश थी । शारदा विद्यालय के प्राचार्य ने आज सुबह ही उसे फोन करके खुशखबरी सुनाई थी । अध्यापिका की नौकरी के लिए उसके आवेदन को स्कूल के प्रबंधकों ने मंजूर कर लिया था । अपना नियुक्ति पत्र लेने वह प्रधानाचार्य के दफ्तर में पहुंची । बड़ी गर्मजोशी से उससे हाथ मिलाते हुए प्रधानाचार्य ने उसे सिर से लेकर पैर तक चश्मे के पीछे से ऐसा घूरा कि रजनी भीतर ही भीतर सिहर गयी । नियुक्ति पत्र उसके हाथों में थमाते हुए प्रधानाचार्य ने चेहरे पर कुटिल मुस्कान बिखेरते हुए बोला ” बधाई हो ! तुम्हारा चयन हमारे इस प्रतिष्ठित स्कूल में अध्यापिका के तौर पर कर लिया गया है । वेतन किसी भी समकक्ष विद्यालय से दुगुना दिया जाएगा लेकिन ……! ” कुछ कहते हुए वह अचानक ही रुक गया था ।  ” लेकिन क्या ? ” रजनी ने प्रतिप्रश्न किया ।
 ” कुछ खास नहीं ! आपको कभी कभी हमें खुश करना पड़ेगा मतलब ……..!”  चटाक की तेज आवाज से कमरा गूंज उठा । प्रधानाचार्य अपना हाथ गाल पर लिए गाल सहला रहे थे । आगे के शब्द उनके हलक में ही फंसे रह गए थे और रजनी रणचंडी बनी विजयी मुद्रा में नियुक्ति पत्र के टुकड़े करती हुई शान से कमरे से बाहर निकल गयी ।

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।

2 thoughts on “रणचंडी

  • लीला तिवानी

    प्रिय ब्लॉगर राजकुमार भाई जी, वाह क्या बात है! बहुत सुंदर. ऐसे हैवानों के लिए रजनी का रणचंडी बनना ही श्रेयस्कर है. जब तक आज की रजनियां रणचंडी नहीं बनेंगी, उनकी अस्मिता खतरे में ही पड़ती रहेगी. अत्यंत सटीक व सार्थक रचना के लिए आपका हार्दिक आभार.

    • राजकुमार कांदु

      आदरणीय बहनजी ! रजनी बनना आज की महिलाओं के लिए प्राथमिकता में होना चाहिए । अब रणचंडी का रूप ही अपराधियों के हौसले पस्त कर सकता है । अति सुंदर प्रतिक्रिया के किये आपका धन्यवाद ।

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