उपन्यास अंश

इंसानियत – एक धर्म ( भाग – छियालिसवां )

किसी अनहोनी की आशंका से नंदिनी संशकित हो उठी थी लेकिन मन के भाव अपने अंतर में दबाते हुए नाराजगी दर्शाते हुए धीरे से कर्नल साहब से बोली ” बाबूजी ! आप को बाहर का कुछ भी खाने से परहेज करना चाहिए था  । कहीं शुगर और रक्तचाप बढ़ जाता तो ?”
 नंदिनी से आंखें चुराते हुए कर्नल साहब ने तत्परता से कहा ” अरे बेटी ! नहीं ! मुझे कोई तकलीफ नहीं है । और फिर किसी की इच्छा का अनादर भी तो नहीं कर सकते । जब मैंने समोसे खाने की हामी भरी उस वक्त तुम्हें मोहन का चेहरा देखना चाहिए था । खुशी से दमक रहा था उसका चेहरा । और तुम तो जानती ही हो किसी की खुशी के लिए हम खुद को किसी भी तकलीफ के लिए हमेशा तैयार रहते हैं । अब जाओ ! मेरी फिकर न करो । रात गहरा गयी है । तुम भी भोजन कर लो । ”  कहने के बाद कर्नल साहब नंदिनी की तरफ देखे बिना अपने कमरे की तरफ बढ़ गए । नंदिनी के मुख से एक शब्द भी न निकला । रामू काका के चेहरे पर कई तरह के भाव आ जा रहे थे और किंकर्तव्यविमूढ़ सी नंदिनी उसके चेहरे के भावों को देखकर उसके चेहरे पर कुछ पढ़ने का प्रयास कर रही थी । रामू खाने की थाली लेकर वहां से जा चुका था लेकिन नंदिनी के सामने उसका ही चेहरा लगातार घूम रहा था । नंदिनी ने बड़ी देर तक कुछ सोचा लेकिन किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकी । अनमने मन से रजनी ने अकेले ही भोजन किया और वापस आकर अपने कमरे में बैठ गयी । परी गहरी नींद सोई हुई थी । न जाने क्यों नंदिनी की बेचैनी बढ़ती जा रही थी । नींद उसकी आंखों से कोसों दूर थी । बेचैनी के आलम में नंदिनी का हलक भी सूख रहा था । नजदीक ही सेंटर टेबल पर रखे बोतल से पानी उंडेल कर पीने के बाद वह अपने कमरे से बाहर की तरफ बालकनी में चहलकदमी करने लगी । उसका मन अचानक ही इतना अशांत क्यों हो गया था उसकी समझ से परे था । बाहर स्तब्ध कर देने वाली कालिमा का साम्राज्य फैला हुआ था । दूर गगन में सितारे टिमटिमा रहे थे लेकिन अपनी सीमित रोशनी से अंधेरे को दूर भगाने में नाकामयाब साबित हो रहे थे । अम्बर से रोशनी के सिपाही धरती का अंधेरा दूर भगाने को कृतसंकल्प प्रतीत हो रहे थे लेकिन अपने सेनापति चाँद के बिना कुछ भी कर पाने में असमर्थ लग रहे थे । अंधकार की चादर लपेटे दूर खड़ी पहाड़ी की चोटियां किसी भयंकर दानव की भांति दिख रही थीं । बाहर के घने अंधेरे को देखकर एकबारगी सिहर उठी थी नंदिनी । तभी उसकी नजर अपने कमरे के ठीक विपरीत दिशा में स्थित कर्नल साहब के कमरे की तरफ गयी । कमरे से छनकर रोशनी की किरणें बाहर निकल रही थीं और कमरे के बाहर बगीचे में लगे हुए गुड़हल के पौधों के कुछ हिस्से को रोशन कर रही थीं । ‘ क्या बात है ? बाबूजी अभी तक जाग रहे हैं ? हमेशा तो सो जाते हैं अब तक ! कोई तकलीफ तो नहीं ? चल कर देखती हूँ । ‘ सोचते हुए नंदिनी अपने कमरे से बाहर निकली और  लंबे चौड़े दालान को पारकर कर्नल साहब के कमरे की तरफ बढ़ गयी । अभी कमरे के पास पहुंची ही थी कि उसे कर्नल साहब की हिचकियाँ सुनाई पड़ीं और साथ ही सुनाई पड़ा उनको सांत्वना देते रामू काका का स्वर ” अब होनी को कौन टाल सकता है साहब ? अब यही मानकर संतोष करना पड़ेगा कि अमर बाबू और हमारा साथ इतने ही दिनों का था । सब कुछ भगवान के हाथ में ही होता है । यह दुनिया एक रंगमंच है जिसपर सभी अपना अपना किरदार निभाकर उस परम शक्तिमान ईश्वर के इशारे पर अपने धाम को वापस चले जाते हैं । अब बिलखने से अमर बाबू वापस तो नहीं आ जाएंगे अलबत्ता बहू रानी जरूर जान जाएंगी ……”
 इसके आगे नंदिनी एक शब्द भी नहीं सुन सकी थी । उसके कानों में रामू काका के कहे शब्द लगातार गूंजने लगे ‘ अमर बाबू वापस तो नहीं आ जाएंगे ‘ । कानों में गूंजते शब्दों की ध्वनि प्रतिक्षण बढ़ती जा रही थी । उसे ऐसा लगा मानो इस शोर से अभी उसकी खोपड़ी के परखच्चे उड़ जाएंगे ।आखिर उसके सब्र की जब इंतहा हो गयी वह दोनों हाथों से अपने कानों को दबाये जोर से चीत्कार कर उठी ”  …नहीं ..!! “
 और फिर किसी कटे हुए वृक्ष की भांति धरती पर धड़ाम से गिर पड़ी ।
 नंदिनी की चीख और फिर अगले ही पल उसके गिरने की आवाज सुनकर कर्नल साहब और रामू काका लगभग दौड़ते हुए ही बरामदे की तरफ भागे ।
 कमरे के दरवाजे के समीप ही नंदिनी फर्श पर गिरी हुई दिखी । रामू ने आगे बढ़कर उसे सहारा देकर उठा लेना चाहा लेकिन फिर अगले ही पल ठिठक कर वहीं उसके समीप रुक गया । निगाहों में बेबसी और आंसू लिए रामू ने कर्नल साहब की तरफ देखा जो खुद भी बदहवास होकर जमीन पर पड़ी हुई नंदिनी को देखे जा रहे थे । बिल्कुल निश्चल ! शायद बेहोश हो गयी थी नंदिनी की अवस्था देखकर कर्नल फफक पड़े ” मैं क्या करूँ मेरी बच्ची ! तुझे ये मनहूस खबर कैसे सुनाता मैं ? मुझ बूढ़े की बुढ़ापे की लाठी था वह और तेरी जिंदगी का सहारा । मेरा क्या है ऊपर वाला अब चाहे जब बुला ले लेकिन तेरे सामने तो तेरी पूरी पहाड़ सी जिंदगी है । कितना बड़ा अन्याय हुआ है तेरे साथ मेरी बच्ची । ” बिलखते हुए कर्नल साहब नंदिनी के समीप ही घुटनों के बल बैठ चुके थे और स्नेह से उसके बालों में हाथ घुमाते हुए बीच बीच में उसकी ठुड्डी पकड़कर हिलाते हुए उसे उठाने का असफल प्रयास भी कर रहे थे । कातर भाव लिए रामू वहीं खड़ा बिलखते हुए कर्नल साहब को नंदिनी को होश में लाने का प्रयास करते हुए देख रहा था । अचानक वह मुड़ा और रसोईघर की तरफ चल पड़ा । वापसी में उसके हाथ में पानी से भरा हुआ जग था । बिना कुछ कहे रामू ने जग कर्नल साहब की तरफ बढ़ा दिया ।
 पानी की कुछ छींटे चेहरे पर पड़ते ही नंदिनी कसमसाई और फिर अगले ही झटके से उठकर बैठ गयी । घुटनों के बल बैठे कर्नल साहब के पैरों में अपना माथा रख बिलख पड़ी नंदिनी ।
 कर्नल साहब ने उसे चुप कराने की कोई कोशिश नहीं की । वो चाहते थे नंदिनी जी भरकर रो ले तो उसके हृदय का बोझ कुछ हल्का हो जाएगा । बड़ी देर तक नंदिनी उसी अवस्था में रोती रही , बिलखती रही और फिर बैठे बैठे ही वहां से हटकर दीवार से टेक लगाकर बैठी सिसकती रही । रामू अभी भी वहीं खड़े आंसू बहा रहा था । नंदिनी व कर्नल साहब का रुदन उसकी अंतरात्मा को अंदर तक झकझोर रहा था । उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे । यह बंगला भी नितांत निर्जन जगह पर प्रकृति की गोद में बनवाया गया था । आसपास कोई मकान या इंसान भी नहीं थे । कहाँ जाय ? क्या करे ? रामू अपने आपको बिल्कुल असहाय महसूस कर रहा था । अचानक उसके जेहन में कौंधा ” डॉ रस्तोगी ! हां ! मुझे डॉ रस्तोगी को खबर करनी चाहिए । ‘ सोचकर वह हॉल की तरफ लपका जहां फोन रखा हुआ था । वह जानता था कि डॉ रस्तोगी न सिर्फ कर्नल साहब के फैमिली डॉक्टर थे बल्कि उनके घनिष्ठ मित्रों में से एक थे । डॉ रस्तोगी को फोन कर जब रामू वापस आया उसने देखा कर्नल साहब जमीन पर बैठे जल बिन मछली की भांति तड़प रहे थे और नंदिनी उनको सहारा देकर एक हाथ से उन्हें पानी पिलाने की कोशिश कर रही थी । नंदिनी के हाथों से पानी पीते हुए भी कर्नल साहब के चेहरे पर असीम पीड़ा झलक रही थी । दांतों को भींचे कर्नल साहब अपनी पीड़ा को अंदर ही अंदर जज्ब करने की कोशिश कर रहे थे लेकिन अपने प्रयास में असफल साबित हो रहे थे । अचानक खुद ही अपने हाथों से अपने सीने को जोर जोर से मसलने लगे । उनकी अवस्था देख नंदिनी का विलाप और तेज हो गया ।

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।

4 thoughts on “इंसानियत – एक धर्म ( भाग – छियालिसवां )

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत मार्मिक कहानी !

    • राजकुमार कांदु

      हार्दिक आभार आदरणीय !

  • लीला तिवानी

    प्रिय ब्लॉगर राजकुमार भाई जी, निरंतर निखरती आपकी लेखनी और इंसानियत की ओर बढ़ती कथा वाली यह कड़ी भी अद्भुत लगी. अत्यंत सटीक व सार्थक रचना के लिए आपका हार्दिक आभार.

    • राजकुमार कांदु

      आदरणीय बहनजी ! अति सुंदर प्रतिक्रिया द्वारा उत्साहवर्धन के लिए आपका हॄदय से धन्यवाद ।

Comments are closed.