कविता

अपनी धुन के पक्के लोग खत्म हो गए?

जब जब मैंने देखा,
झूठ और झूठों को।
बहुत रोया, चिल्लाया।
क्योंकि सहने वाले लोग सच्चे थे।

कुछ ऐसे लोग भी मिले,
जिनपर हँसी आई।
आती भी क्यों नहीं।
हरियाली की महक
अंधे लोग महसूस कराने की दावा कर रहे थे।

ग्लानि भी बहुत होती है,
उन किरदारों को पाकर।
जिनके रहने-ना रहने का कोई अर्थ ही नहीं।
वे सस्ते बहरूपिये दो कौड़ी में भी,
महंगे लगते हैं।

लाख समझाने से कोई फायदा,
नहीं दिखता।
मेरी गुजारिश, कोई नहीं सुनता।
क्या ऊंचे लोग किसी की नहीं सुनते ?
ऐसे लोग ऊँचे क़द के हैं छोटे लोग ?

ऐसे चले क्यों जा रहे हो,
क्या मैं मान लूं?
तुम मेरे नहीं हो।
मान लूं, धोखेबाज हो।
क्या मान लूं कि महफिलों में।
अच्छे लोग भी ओछी हरकत करते हैं ?

अरे! पर जो आंसुओं को पोछेगा।
वो गैर होगा या फिर कोई अपना बनेगा ?
कहीं दुबारा रुलायेगा तो नहीं।
डरता हूँ। यही सोचकर पल-पल मरता हूँ।

आने दो उनको। गुरु जी से पूछुंगा।
कि क्या अपनी धुन के पक्के लोग खत्म हो गए?
कभी नहीं मिलेंगे अब?

रामाशीष यादव 

रामाशीष यादव

Journalist at Hindusthan Samachar लखनऊ मो. 9889781416