सामाजिक

ये मोदी-मोदी, वे राहुल राहुल करते हैं पर भूखे सिर्फ़ रोटी रोटी रटते हैं।

कोई भूख से मर रहा है, कोई ईलाज न मिलने से मर रहा है। कोई बैंकों का पैसा खाकर ऐशो- आराम से जी रहा है। हां, यह सही है, कि ग़रीब उन्मूलन पूर्णतया नहीं हो सकता, पर कुछ बदलाव तो हो सकता है। किसान मर रहा है, युवा बेरोजगार है, फ़िर भी सियासत समाज को जातिवादी रंग में बाँटने पर तुली हुई है। ग़रीबी उन्मूलन की बात होती नहीं, रोजगार घटते जा रहें, शिक्षा व्यवस्था सडक़ छाप अनपढों की फ़ौज पैदा कर रहीं है। जनतंत्र में शायद जन का महत्व न बचकर सिर्फ़ मततंत्र की अहमियत रह गई है। मततंत्र को मजबूत करने की सियासी गोटियां खेली जा रहीं है, लेकिन जनतंत्र की फ़िक्र शायद किस दल को नहीं है। होती शायद तो चुनाव के वक्त झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों की सुध लेने वाले इस ठंड भरी रातों में जाए, और रात गुजारे, फ़िर पता चलेगा, कि जीवन जीने का जो अधिकार संविधान ने दिया है, वह कैसे इन ग़रीब बेबसों का बीतता है। इन दिनों उत्तर भारत में कड़ाके की ठंड पड़ रही है। राते बर्फ़ीली हो रहीं है, दिन भी गलन की चपेट में बीत रहा है। ऐसे में बदनसीब तो वे है, जो खुले आसमाँ में सोने को विवश है। सियासत को क्या हर्ज है, उसे तो अपनी झोली की फ़िक्र है, वह अपने लिए आंदोलित हो जाती है, सड़कों पर आ जाती है, कभी वेतन बढ़ोतरी के लिए, कभी सुविधाओं में वृद्धि के लिए, लेकिन शायद अंतर्मन में आवाज़ नहीं आती, इन निरह लोगों की। वरना इतनी भी ग़रीबी नहीं देश में कि भूखे को रोटी, आसमाँ के नीचे छत इन लोगों को उपलब्ध न करा सकें व्यवस्था। कमी है, तो सिर्फ़ इच्छाशक्ति की, दृढ़संकल्प की।

आखिर क्या कारण है, कि अगर सियासतदां निरीक्षण पर जाते हैं, तो समस्यामूलक बात नज़र आती नहीं, तो मामूल पड़ता है, उनके पिछलग्गू ऐसे क्षणिक इंतजाम करते हैं, जैसे कोई इवेंट मैनेजमेंट का कोर्स किया हो। उसके बाद फ़िर सारे आयोजन की विषयवस्तु ऐसे गायब होती है, जैसे किसी ने आँखों से शूरमा निकाल लिया हो। विकास और सिर्फ विकास की फुलझड़ी के बीच देश की वास्तविक स्थिति कराह रही है । फ़िर दिखता तो यही है, कि इस हमाम में सब नंगे ही नहीं देश को भी नंगा करने पर उतारू है। बीते दिनों अखबारों में एक विज्ञापन काफी चर्चित रहा जिसमें स्वास्थ्यवर्धक भोजन के रूप में खिचड़ी और स्वास्थ्यवर्धक ड्रिंक के रूप में ओ आर एस का घोल दिखाया गया था। तो क्या कहें राजनीति के चिमनी में पके हुए नेताजी को, क्या वे भी सेवन स्टार में भोजन का सेवन न करके खिचड़ी का सेवन करेगें। या खिचडी उच्च दर्जा प्राप्त कर ग़रीबो की थाली से रोटी हड़पने की कोई रामबाण औषधि तो नहीं। वह देश आज धन्य हुआ, जहां जुमलों की राजनीति पनपती है, लोगों को रोटी न दिलाकर नेताओं की बोली लगती है।

न्यायपालिका समय-समय पर केंद्र व राज्य सरकारों को ग़रीबो के लिए रैनबसेरों की व्यवस्था करने का आदेश देती है, लेकिन व्यवस्था सुनती कहां है? पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने गरीबों को मकान देने के मामले में हरियाणा और उत्तर प्रदेश सरकार की जमकर खिंचाई की। कोर्ट ने कहा केंद्र सरकार से रेन-बसेरों को लेकर चल रही योजनाएं बंद क्यों नहीं कर दी जाती? मतलब साफ है पैसे कहां जा रहे हैं, यह किसी को पता नहीं, और ठंड की कंपकंपी से बेहाल आम नागरिक है। उत्तर प्रदेश में एक लाख 80 हजार लोग बेघर हैं, जिनमें सरकार ने सिर्फ 6000 लोगों के लिए घर की व्यवस्था की है। कोर्ट ने योगी सरकार से रैन बसेरों के निर्माण की स्थिति भी पूछी। कोर्ट यह भी कहती है कि ये सड़कों पर रहने वाले लोग ऐसे नहीं जो घर नहीं चाहते सरकार को इनकी मदद करनी चाहिए। ऐसे में सरकारों की चिरनिद्रा तो टूटनी चाहिए। एक तरफ़ सेवन स्टार दूसरी तऱफ कुटिया। इसी को तो कहते हैं, न्यू इंडिया। शायद यह बदलता भारत देखकर गांधी भी कभी सपनों में सोचते होंगे, क्या भारत बनाया जा रहा है। जहां कि राजनीति में शायद हुकूमतकर्ता अंग्रेजों को भी पछड़ाने का रिकॉर्ड तोड़ गिनीज़ बुक में अपना नाम दर्ज कराना चाहते हैं। तभी तो रास रचाए जा रहें हैं। जुमलों की फेहरिस्त का सगुफ़ा आसमाँ का हिस्सा बन रहे हैं। ऊपर से नारा अलग दे रहे हैं, जय बोलो भगवान की, वोट करो तुम बलराम को। यह आज भारतीय राजनीति का चरित्र हो गया है। तो क्या सत्ता के सारथी मदांध हो गए हैं, और विपक्षी दल फ़िजूल में अपनी मात्र हैसियत को लोहार के पास ले जाकर कुंद पड़ी धार को चमकना चाहते हैं। आज राजनीति को देखकर कोई भी कह सकता है, कि प्रत्यक्षम किं प्रमाणं। ऐसे में यही कहना समझ आता है, हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता दिलाने के लिए ये संविधान की प्रस्तावना की शुरूआती पंक्ति है। आज देश में संविधान के हाथ ये सारी ड़ोर कटती जा रही है, क्योंकि ये मोदी मोदी-मोदी करते हैं , वे राहुल राहुल करते हैं पर देश के भूखे बच्चे सिर्फ़ रोटी रोटी रटते हैं।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896