सामाजिक

रिलिजन और जाति वाले कॉलम में गर्व से इंडियन लिखिए

शायद 5वीं-6ठी कक्षा में रहे होंगे, कुछ मित्रों के साथ गांव के एक समोसे दुकान में कुछ खा रहे थे, अचानक से वहां गांव के ही एक स्वघोषित विद्वान बुजुर्ग बाबा का आगमन होता है, उनके मुख से निकला एक-एक शब्द आज भी याद है-  “जाओ रे बेहुद्दा, तुम तो राजपूतों का नाक कटवा दिया, छोटी जाति के लोग अर्थात बनिया के साथ खाना खा रहा है. तुम्हें पता नहीं है हम उच्च जाति के है।“
अचानक से मुझे शॉक लगा कि बिना कोई सूचना के मुझे तो पूरी राजपूत कम्यूनिटी के नाकों (noses) को कटने से बचाने और सुरक्षित रखने की बड़ी रिस्पोंसिबलिटी मिली है भाई, मुझे तो पता ही नहीं था, उस बुजुर्ग बाबा ने मुझे कैवल्य प्राप्ति बैठे-बैठे उस समोसे दुकान पर करा दी।
सोचिए,  जिस उम्र में बुजुर्गों का यह कर्तव्य होता है कि वो अपने से छोटों का उचित मार्गदर्शन करें, सहिष्णुता सिखाएं. एक दूसरें का रिस्पेक्ट करना सिखाएं, वहां छोटे-बड़ें का भेद सिखाया जाना कहां तक उचित है. फिर भी मुझे लगता है कि वो अपनी जगह सही है क्योंकि हमारे बुजुर्गों को उनके पूर्वजों ने वहीं कहा कि रैंकिंग में पहले राजपूत, ब्राम्हण, फिर वैश्य और अंततः शूद्र आएगा। भले राजपूत, ब्राम्हण होते हुए भी वो कर्म-कुकर्म करें वो उच्च श्रेणी का ही रहेगा और वैश्य-शूद्र होकर कोई उच्चकार्य करे वो रैंकिंग में तीसरा-चौथा ही है, और उसके साथ तुम रहोगे तो तुम भी छोटे हो जाओगे। उन्हें भले रामायण के सभी श्लोक रट्टू तोतें की तरह याद है. लेकिन ये नहीं याद है कि रघुवंशी भगवान श्रीराम ने निषादराज केवट को न केवल गले से लगाया था. बल्कि अयोध्या लौटने पर राज्य में प्रथम नागरिक का स्थान भी दिया था. शबरी के जूठे बैर खाने के प्रसंग को कौन नहीं जानता होगा.
पिछले तीन-चार दिनों से महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और देश के अऩ्य भागों में जाति के नाम पर जो दंगे भड़क रहें है, सरकारी संपत्तियों को फूंका जा रहा है, कहीं न कहीं उसकी जड़ों में जातिवाद का विष है। अक्सर जातिवाद के मुद्दे पर धर्मशास्त्रों को भी दोषी ठहराया जाता है, सनातन धर्म को कथित कम्यूनिस्ट बुद्धजीवियों के द्वारा हर वक्त गरियाया जाता है, लेकिन यह बिल्कुल ही असत्य है, ऋगवेद के 10वें मंडल के पुरूष सूक्तानुसार वर्ण व्यवस्था का जिक्र है, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र-में विभक्त जरूर किया गया है, लेकिन ये विभाजन जन्म आधारित नहीं है। बल्कि कर्म आधारित है, प्राचीन काल में ब्राह्मणत्व या क्षत्रियत्व को वैसे ही अपने कर्मों से प्राप्त किया जाता था, जैसे कि आज वर्तमान में एमबीबीएस, एमबीए य़ा इंजीनियरिंग आदि की डिग्री प्राप्त करते हैं। जब जन्म के आधार पर एक इंजीनियर के पुत्र को इंजीनियर, डॉक्टर के पुत्र को डॉक्टर या एक आईएएस, आईपीएस अधिकारी के पुत्र को आईएएस अधिकारी नहीं कहा जाता तो जन्म आधार पर राजपूत ब्राम्हण या दलित कहना किस लबड़हत्था ने तय किया है और इसका औचित्य क्या है? किसी को पता है तो बताएं।
 ऐसा नहीं है कि जातिवाद केवल अपने ही देश में है, हर धर्म, समाज और देश में है। मुस्लिमों मॆं भी शिया-सुन्नी, पश्चिमी देशों में भी काला गोरा के आधार पर रंगभेद होता है। हर धर्म, हर जाति का व्यक्ति अपने ही धर्म/जाति के लोगों को ऊंचा और दूसरे को नीचा मानता है और निकल पड़ता है कि जातियों/धर्मों की अस्मिता की रक्षा के लिए। अक्सर फेसबुक/व्हाट्सएप पर भी आप देखतें होंगे, गर्व से कहो हम राजपूत है, गर्व से कहो हम भूमिहार है, गर्व से कहो हम यादव है, गर्व से कहो हम दलित है,  फलाना है, ढीमका है, भाई गर्व किस बात का,  आज तक हमने कुछ उखाड़ा नहीं है, कि मुझे गर्व हो।
महाराणा प्रताप हो, महात्मा गांधी हो या बाबा अंबेडकर सबने अपने कर्म के बल पर खुद को स्थापित किया है न कि क्षत्रिय, बनिया और दलित होने पर ही उन्हें सुपरपावर्स मिल गए थे। महेंद्र सिंह धोनी, रोहित शर्मा और विनोद कांबली अपने दम पर छक्का मारता है न कि राजपूत या ब्राम्हण या दलित होने से उनको सुपरपावर मिल गया.
मैं अक्सर जातिवाद और धर्म जैसे संवेदनशील मुद्दों पर फालतू के डिबेट करने से बचता हूं, क्योंकि मुझे पता है कि जातिवादी या कट्टर धार्मिक लोगों की टिप्पणियां, बहस या गुस्सा उनकी अधूरी जानकारी पर आधारित होती है। राजनीतिक पार्टियां तो जाति और धर्म के मुद्दें पर जम के राजनीति करना तो चाहते ही हैं, कौन सी ऐसी पार्टी है जो ऐसा नहीं करती, बीजेपी-कांग्रेस हो या कोई और, महाराष्ट्र में भी ऐसा ही हो रहा है, दलितोउत्थान के नाम पर एकत्रित हुए जिग्नेश मिवानी,  उमर खालिद, या फिर अंबेडकर जी के पोते प्रकाश अंबेडकर हो या मराठी अस्मिता के नाम पर शिवसेना/मनसे के गुंडे हो सबको अपनी राजनीति चमकानी है। लेकिन राजनीतिक दलों के चुंगल में फंस मोहरा बन के चापलूसी करने वालों और सरकारी संपत्ति को आग के हवाले करने वाले निठल्लों के हाथ बाबा जी ठुल्लू ही आता है। जाति के नाम पर जगह-जगह दंगा तो फैल जाता है, हजारों किलोमीटर दूर हुए दंगों या हिंसाओं से साथ रह रहे लोगों में वैमनस्यता तो बढ़ जाती है, दो कौड़ी के राजनेताओं की राजनीति तो चमक जाती है, लेकिन देश अंदर ही अंदर टूटता है, देश अंदर ही अंदर रोता है. उसको मत टूटने दीजिए उसको मत रोने दीजिए.
भूतकाल के मतभेदों को भूलना सीखिए, भूतकाल में वहीं जीतें है जिन्हें वर्तमान पर भरोसा नहीं, खुद पर भरोसा नहीं, एक दूसरें का आदर कीजिए, राजनेताओं, जातिवादियों, पोंगा पंडितों, मुल्लाओं के दरवाजें पर बंधा डॉगी की तरह विहेव करने से बचिए, अपने मन में एक ही बात घुसेड़ लीजिए कि भारत की सीमाओं के अंदर रहने वाला हर व्यक्ति इंडियन है। वो इंडियन जो आज मंगल पर रिसर्च कर रहा है, दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था वाले देश का नागरिक है, भारत को विश्वगुरू बनाइए, ज्ञान की गंगा बहाईए, एक दूसरे की मदद कीजए महराज, न कि फालतू के जाति और धर्म के झगड़ों में फंसाईए।
मन में रिलिजन और जाति वाला कॉलम जो बना हुआ है न, उसमें गर्व से बोल्ड और कैपिटल में इंडियन लिख डालिए.
आनंद कुमार,
सीतामढी, बिहार

आनंद कुमार

विद्यार्थी हूं. लिखकर सीखना और सीखकर लिखना चाहता हूं. सीतामढ़ी, बिहार. ईमेल-anandrajanandu7@gmail.com