ब्लॉग/परिचर्चा

सदाबहार काव्यालय-23

गीत

 

चांदनी धुंध में नहाई है

 

 

आज  मानवता डगमगाई है,
चांदनी धुंध में नहाई है.

 

पेड़ों से आ रही हैं आवाज़ें
दूर हों हम न इस गुलिस्तां से
दूरी मानव ने खुद बढ़ाई है
चांदनी धुंध में नहाई है.

 

तारे रह-रहके टिमटिमाते हैं
भूले-भटकों को पथ दिखाते हैं
राह मानव ने खुद गंवाई है
चांदनी धुंध में नहाई है.

 

चन्द्रमा धुंध से ढका ऐसे
मन माया से मलीन हो जैसे
इसी माया से चोट खाई है
चांदनी धुंध में नहाई है.

 

जुगनू ने आज रट लगाई है
मिलके रहने की कसम खाई है
भेद की चाल क्यों चलाई है?
चांदनी धुंध में नहाई है.

 

लीला तिवानी

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

2 thoughts on “सदाबहार काव्यालय-23

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    सुन्दर रचना ,लीला बहन .

  • लीला तिवानी

    आज भले ही मानवता डगमगाई है और चांदनी धुंध में नहाई है, फिर भी जुगनू ने आज मिलके रहने की कसम खाई है और भेदभाव की चाल को समाप्त करने की रट लगाई है.

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