स्वास्थ्य

स्वास्थ्य जगत और उपचार के अविश्वसनीय माध्यम

साँसों द्वारा चिकित्सा (स्वर-विज्ञान), प्राकृतिक एवं आयुर्वेदिक उपचार

विश्व के किसी भी संस्कृति में संसार का सार शरीर माना गया है | शरीर है तो संसार है, जब शरीर ही स्वस्थ्य नहीं तो संसार का कोई महत्त्व नहीं, खासकर सनातन संस्कृति में स्वस्थ्य शरीर को बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है | शायद इसलिए भी सनातन संस्कृति में हजारों साल पहले शरीर को निरोगी काया की परिकल्पना को मूर्तरूप देने का सफल प्रयास भी हमारे ऋषियों मुनियों द्वारा किया गया | परिणाम स्वरूप काय चिकित्सा के अनेक स्वरूप प्रत्यक्षत: सामने भी आये | जैसे आयुर्वेदिक चिकित्सा, प्राकृतिक चिकित्सा और साँसों द्वारा चिकित्सा आदि | विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा इन चिकित्सा पद्धतियों को नकारा साबित करने का भरपूर प्रयास का ही परिणाम है कि वर्तमान में शायद ही कोई व्यक्ति हो, जो किसी न किसी रोग से ग्रस्त न हो | नहीं कुछ तो तनावग्रस्त तो अवश्यम्भावी है ही | परिणामत: वर्तमान की चिकित्सा व्यवस्था में आर्थिक दोहन के साथ रोगियों की दुर्दशा हो रही है |

1835 ई0 में स्वास्थ्य के संदर्भ में हुए एक सर्वेक्षण के आंकड़े  पुष्ट करते हैं कि 99.96 प्रतिशत लोग भारत में स्वस्थ्य है। तो फिर ऐसा क्या हुआ कि आज स्वस्थ्य लोग ढूँढे नहीं मिलते। जिसे पूछो किसी न किसी रोग से खुद को रोगग्रस्त बताते है। और नहीं तो तनाव से ग्रसित तो बताते ही बताते है। जिससे विक्षिप्तता अवस्था और किंकर्तव्य विमूढ़ता की दशा में आत्महत्या से भी नहीं चूक रहे हैं लोग । साथ ही सामाजिक ताने-बाने को धूलधूसरित करने तक पर उतारू हो जाते है। ऐसे लक्षण मानसिक बीमारियों से इंगित है।  जहाँ स्वास्थ्य समस्याएं एक व्यापारिक उद्योग के रूप में विकसित हो रहे है, वहीं लोग अपना सर्वस्व लुटाकर भी पूर्णत: स्वास्थ्य लाभ नहीं ले पा रहे हैं। कुछ ऐसी भी तथाकथित धार्मिक संस्थाएं इस व्यापार में घुस पड़ी हैं जिनका उद्देश्य स्वास्थ्य लाभ कम आर्थिक लाभ पर विशेष नजर है।

सात हजार साल पूर्व महर्षि चरक आदि ऋषियों ने जो निष्कर्ष रुप में मानवोपयोगी सूत्र स्वास्थ्य लाभ के निमित्त दिए उसे गलत या अपरिहार्य कहने की हिम्मत तो शायद कोई भ्रमित मतिवान ही उठा सकता है। आयुर्वेद को व्यापारिक साँचे में ढालने के फलस्वरूप कुछ हद तक विश्वसनीयता पर आँच आई जरूर है मगर, उतना नहीं जितना नकारा हमारे आधुनिक चिकित्सको ने बता दिया है। चाहे वो क्षेत्र शिक्षा, स्वास्थ्य ho या और भी कोई अन्य क्षेत्र हों,  ह्रास का ग्रास बना दिया है तथाकथित आधुनिक और विकसित लोगों ने।

परिस्थितियाँ तो इतनी विकट और महंगी हो चली हैं कि किसी आम आदमी के वश से बाहर हो चुकी है चिकित्सा व्यवस्था, साथ ही अर्थदोहन के व्यापार में तब्दील हो चुकी है। चिकित्सा में अर्थलोलुप्ता के नए बढ़ते बाजार में आम आदमी करे भी तो क्या करे ?

इन्हीं परिस्थितियों के मद्देनजर स्वास्थ्य विज्ञान का वह विज्ञान, (स्वर विज्ञान) जो अविलम्ब परिणामदायी हो, की सख्त जरूरत है | हलाँकि, वर्तमान में इस विधा का लगभग लोप हो चुका है | फिर भी, अवशेष रूप में शेष विधा भी अविश्वसनीय परिणाम देने में सक्षम है | बहुत पुरानी कहावत चलती चली आ रही है कि – लाख औषधियों से परहेज बेहतर ।

अगर रोगों के मूलकारणों की जानकारी हो जाय तो आम आदमी अस्वस्थ्य होने से बच सकेगा। साथ ही जो किन्हीं भी परिस्थितियों में उपयोगी,सिद्ध और सम्भव भी हो। बगैर कारण जाने निवारण असम्भव है । बेशक आधुनिक विज्ञान कितनी भी तरक्की कर ले पर मानवीय संवेदनाओं रोगों की मूल उतपत्ति को किसी भौतिक यंत्रों के द्वारा जानना असम्भव है।

हमारे प्राचीन चिकित्सा शास्त्रों के अनुसार किसी भी शरीर के रोगग्रस्त होने के मुख्यतया तीन मूल कारण माने गए हैं- प्रकृतिजन्य रोग, शरीरजन्य रोग और मनोजन्य रोग।

शरीरजन्य रोग, जो भोजन और भोज्य काल व्यवस्था व्यवस्था पर आधारत है | शरीरजन्य रोग के मुख्यतया दो कारण मान्य हैं – अम्लीय और क्षारीय रोग तथा प्रकृतिजन्य रोग के भी दो कारण माने गये है यथा- शीतजन्य और उष्णजन्य रोग।

उपचार के निमित्त यदि प्रकृति के साथ तालमेल बिठा दिया जाय तो शरीर प्रकृतिजन्य रोगों से छुटकारा पाना सम्भव है। क्योंकि सृष्टि भी पाँच तत्त्वों से निर्मित है और मानव शरीर भी । अब प्रश्न उठता है तो आखिर किस विधा के सहारे या आधार पर तालमेल कैसे बिठाया जाय । तो भारतीय ऋषियों मनीषियों ने निराकरण के निमित्त निष्कर्ष स्वर-विज्ञान में बताया कि किसी भी मनुष्य की सांसें इस विधा के लिए उपयुक्त है। क्योंकि दो नासाछिद्र से लिये जानेवाले साँस क्रमश: उष्ण और शीत होते हैं। वर्गीकरण के आधार पर एक चन्द्र स्वर तो दूसरा सूर्य स्वर । ज्योतिषीय गणना, सूर्य-विज्ञान और शरीर विज्ञान के साथ तत्त्व विवेचन (सांख्य शास्त्र) के आधार पर साँसों के समायोजन से प्रकृतिजन्य रोगों से छुटकारा अवश्यम्भावी है। अविश्वसनीय सा परिणामदायक स्वर विज्ञान के आलोक में शत-प्रतिशत सम्भव है। कौन ऐसा जीव है,  जो साँस नही लेता । जरूरत है उन साँसों को प्रकृति के अनुरूप समायोजन का । न किसी प्रणायाम का, न किसी बृहत्तर योग का । सीधा सा सूत्र प्रकृति से तालमेल बिठाना और साथ ही उन अनिष्टकारी तत्त्वों को शरीर में जानें से रोकना यानी परहेज का । आंखों के सामने मक्खी कौन निगलना चाहेगा ?

वर्तमान की इन्हीं परिस्थितियो जिसमें चिकित्सा के मद्देनजर प्रत्येक भारतीयों को अपने अर्वाचीन प्राचीन ज्ञान की तरफ लौट जाना चाहिए। और नहीं कुछ तो स्वास्थ्य के क्षेत्र में । क्यों नहीं ऐसा कुछ ढूँढा जाय जिससे शरीर रोगग्रस्त ही न हो । इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए आमजनों के समक्ष स्वरविज्ञान, शरीर विज्ञान (आयुर्वेद), सूर्य विज्ञान ज्योतिष एवं सांख्य शास्त्र के समन्वय से सर्वप्रथम दिनचर्या ही क्यों न तैयार की जाय। जिससे शरीर के रोग निरोधक क्षमता में वृद्धि हो और शरीर के रोगग्रस्त होने की संभावनायें क्षीण हो जाय। इसके निमित्त एक वार्षिक कैलेंडर भी निर्मित किया जा चुका है। जिसके निर्देशानुसार मात्र 5-7 मिनट सूर्योदय के समय अपने साँसों को समायोजित किया जाय तो शरीर के रोगग्रस्त होने की संभावना क्षीण ही नहीं होती बल्कि रोग प्रतिरोधक क्षमता में भी वृद्धि अवश्यम्भावी है। कारण “यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे” एक दूसरे के साथ तालमेल लयबद्ध तरीके से बैठाने की जरूरत है |

इन्हीं आधारों पर एक वार्षिक कैलेंडर’ 2017 का विमोचन, प्रगति मैदान में आयोजित विश्व पुस्तक मेले में इसी साल हो चुका है । साथ ही उत्तरप्रदेश,बिहार, मध्यप्रदेश, गोवा, मेघालय, हरियाणा और दिल्ली के लाखों लोगों ने भरपूर लाभ भी उठाया हैं। कई विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों के साथ स्वैच्छिक संस्थाएँ भी अभिभाषणों का आयोजन कर चुकी हैं और कर भी रही हैं। ताकि बगैर किसी आर्थिक बोझ के व्यक्ति रोगमुक्त जीवन निर्वहन कर सके।

दूसरा शरीरजन्य रोगों में अधिकांश अम्लीय रोगों की बाहुल्यता ही देखने में आ रही है, ऐसे में क्षारीय भोज्य-सामग्रियों के सेवन से छुटकारा पाया जा सकता है। हम इतने पराश्रित हैं कि हल्की खाँसी- जुकाम भी हो तो आधुनिक चिकित्सक के दरवाजे खटखटाने से बाज नहीं आते। एक तो समय और श्रम की बर्बादी और साथ ही आर्थिक दोहन के शिकार भी हो रहे हैं।

आधुनिक शिक्षा ही अर्थदोहन की जननी है। अंग्रेजों के समय से अबतक भारत ही नहीं बल्कि वैश्विक मानव समुदाय से लेकर पालतु जानवर, पशु-पक्षी तक को कैसे बीमार बनाकर अर्थदोहन किया जा सके | एक वैश्विक षड्यंत्र के तहत एक अभियान पश्चिमी विकसित देशों द्वारा सुनियोजित रुप से चलाए जा रहे हैं । खासकर, भारत जैसे बहुसंख्यक आवादी वाले देश को चिकित्सकीय बाजार के रूप में आर्थिक दोहन के निमित्त विकसित कर रहे हैं | क्योंकि दवा के व्यापार में हजारों गुना लाभ सुनिश्चित है। जब से मेडिक्लेम जैसी सुविधाएं विश्व बाजार में बीमा कम्पनियाँ ने पाँव पसारनी शुरू की है, तबसे चिकित्सा उत्तरोत्तर महंगी से महंगी ही होती जा रही है।

दूसरे शब्दों में कहें मनमानेपन पर उतरकर मनुष्य के मजबूरी का फायदा ही नहीं उठा रहे बल्कि प्राण बचाने के चक्कर में प्राण भी ले रहे। साथ में पुरखों की अर्जित सम्पत्ति भी ले रहे । बेशक दोहन का रुप भौतिक न सही आर्थिक तो है ही । जब समाज में अर्थ की प्रधानता होती है तो मानवता को मुँह छिपाने की भी जगह नहीं मिलती।

शारीरिक संरचना के अनुसार शरीर के अस्वस्थ्य होने के तीन ही कारण होते हैं। या यूँ कहें कि मुख्यत: रोगों के तीन ही कारणों से शरीर अस्वस्थ्य होता है- एक हैं प्रकृतिजन्य रोग और दूसरा शरीरजन्य रोग और तीसरा है मनोजन्य रोग। मनोजन्य रोग में प्रमुख है अवसाद । अवसाद मुख्यतया समाज और परिवार द्वारा तिरस्कार और लम्बी बीमारी के अलावा और भी अनेक कारण सम्भव हैं। इसके आगे शारीरिक रूप से अम्लीय और क्षारीय कारणों से उत्पन्न रोग। क्षारीय रोगों की संख्या बहुत कम होते हैं जबकि अम्लीय रोगों की संख्या सैकड़ों में हैं। यथा- मधुमेह (सुगर), बी पी,ब्रेन हेमरेज, लकवा, हायपर टेन्शन से लेकर केन्सर तक अम्लीय रोग हैं। यदि रोगों के उत्पत्ति का ज्ञान हो जाय तो उससे बचा जा सकता है। जैसे अम्लीय रोग हो तो क्षारीय भोज्य सामग्री से निराकरण किया जा सकता है और क्षारीय कारणों से रोग हो तो अम्लीय भोज्य सामग्री के सेवन से रोगों का शमन किया जा सकता है ।  शरीर की संरचना ऐसी है जिसमें शरीर में बननेवाले अम्ल को न्यूट्रलाइज करने के लिए (क्षारीय) लार की व्यवस्था स्वनियोजित है। दोनों एक दूसरे को न्यूट्रलाइज करते हैं।

जबकि आयुर्वेद के जनक महर्षि चरक और उनके सूत्र को प्रयोगात्मक निष्कर्ष पर पहुंचानेवाले वाग्भट्ट के अनुसार किसी भी रोगों की उत्तपत्ति का मुख्य कारण वात, पित्त और कफ के असंतुलन की स्थिति को जिम्मेदार मानते हैं। इसे संतुलित करने को त्रिफला चूर्ण सबसे उत्तम औषधि बताई गयी है। बशर्ते कि त्रिफला का अनुपातिक स्तर 1:2:3 हो । यानी सौ ग्राम हर्रे हो तो बहेड़ा 200 ग्राम वहीं आंवला 300 ग्राम होना चाहिए। वहीं पातंजलि योग में नेति, धौति और कुञ्जर की क्रियाओं से वात, पित्त और कफ के शमन का उल्लेख मिलता  है।

अंत में तीसरे कारण अवसाद पर चर्चा करें तो पाते हैं कि- वर्तमान में मनोविकार के कारण मनोरोगियों की संख्या में भारी वृद्धि दर्ज हुई है । विश्व की लगभग 70 प्रतिशत आवादी इसकी चपेट में है । संख्याबल पर कहे, तो कह सकते हैं केवल भारत में लगभग  35 करोड़ की आवादी अवसाद के शिकार हैं । कारण सामाजिक ताने-बाने का टूटना । इसके लिए अगर जिम्मेदार है तो एक मात्र बेरोजगारी की जननी शिक्षा पद्धति, जिसने आर्थिक और भौतिकवादी स्तर तक गुलाम ही नहीं बनाया बल्कि मनोरोगी भी बना दिया । बैकों से लाखों कर्ज लेकर भी नौकरी के लिए डिग्रियाँ लिए दर-दर भटकता वर्तमान का भारतीय युवा वर्ग के साथकिसान हों या आम आदमी किसी न किसी मानसिक बोझ (कर्ज) तले दबा हुआ है । किसी मुखिया के माथे की शिकन पूरे परिवार को बहुत कम ही खुश होने का मौका देती  है । क्योंकि उसे कर्ज चुकाने के साथ परिवारिक जिम्मेदारियाँ भी निभानी है और उस पर प्राकृतिक आपदाओं की मार से अभावग्रस्त जीवन जीने को मजबूर है आज का आम आदमी । गर, जरा भी लापरवाही या फिजूलखर्ची हुई तो मानो संकट का पहाड़ ही टूट पड़ता है। जबकि वास्तविकता ये है कि गाँव-घर,परिवार से दूर शहर में नौकरी यानी गुलामी की जंजीर से बंध जाता है आदमी । यही विवशता उसे गांव, समाज और परिवार से तोड़ देती है और मनुष्य एकाकी जीवन जीने को मजबूर होता है । ऐसे में दो सहानुभूति के मीठे बोलों से भी ढाँढस बंधानेवाले भी बहुत कम लोग मिलते हैं और जो मिलते भी हैं वो भी किसी न किसी स्वार्थवश । ऐसे में कोई भी आदमी अवसादग्रस्त नहीं होगा तो और क्या होगा ?

इस मनोविकार रोगियों को चाहिये कि उदीयमान सूर्य की किरणें अपनी नाभि पर पड़ने दें । शायद इसलिए भी भारतीय परिधान में  इसकी व्यवस्था है ताकि नाभि जो जीवनी शक्ति का प्रथम केंद्र है उसे सूर्य किरणों से ऊर्जा स्वत: प्राप्त होता रहे । साथ ही प्रकृति से तालमेल के निमित्त स्वरविज्ञान का सहारा लें । हर विषम परिस्थितियों से लड़ने की हिम्मत दिलाने की जिम्मेदारी परिवार और समाज को भी उठानी होगी । वैचारिक सम्बल को सुदृढ भी करना होगा । एक दूसरे के दुख-दर्द बाँटना कैसे सम्भव होगा इस ईर्ष्यालु प्रवृत्ति से ग्रस्त समाज में । इतनी जिम्मेदारी तो भारतीय सन्तों फकीरों को ईमानदारी से निभानी ही चाहिए न कि अर्थलोलुपतावश।

जब देश समाज का हर वर्गों सत्य-निष्ठा त्यागकर पशुवत जीवन जीने लगे तो दूर घुप्प घने काली रात में टिमटिमाती लौ से कितनी और कब तक रौशनी की उम्मीद की जा सकती है । पर, सम्भावनाएँ क्षीण नहीं है।

स्नेही “श्याम”

श्याम स्नेही

श्री श्याम "स्नेही" हिंदी के कई सम्मानों से विभुषित हो चुके हैं| हरियाणा हिंदी सेवी सम्मान और फणीश्वर नाथ रेणु सम्मान के अलावे और भी कई सम्मानों के अलावे देश के कई प्रतिष्ठित मंचों पर अपनी प्रस्तुति से प्रतिष्ठा अर्जित की है अध्यात्म, राष्ट्र प्रेम और वर्तमान राजनीतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों पर इनकी पैनी नजर से लेख और कई कविताएँ प्रकाशित हो चुकी है | 502/से-10ए, गुरुग्राम, हरियाणा। 9990745436 ईमेल-snehishyam@gmail.com