सामाजिक

लेख– देश में कहीं भूख, तो कहीं खाद्यान्न की बर्बादी…

देश में सब की भूख मिटाने के लिए 23 करोड़ टन खाने की जरूरत प्रतिवर्ष पड़ती है, लेकिन देश में वर्ष 2016-17 के दौरान कुल खाद्यान्न उत्पादन 273.38 मिलियन टन होने का अनुमान रहा। फ़िर भी लोग देश में भूख से मर रहें हैं। हम मंगल तक पहुंच गए हैं, आधुनिक हथियारों से लैस हो रहें हैं, लेकिन जीवन जीने के अधिकार के तहत लोगों को दो जून की रोटी उपलब्ध नहीं करा पाए हैं। ऐसा भी किंचित नहीं कि हमारे देश में अन्न की कमी है। समस्या इच्छशक्ति की कमी और समाज के साथ सरकार की लापरवाही है। सबका साथ, सबका विकास। हर हाथ शक्ति, हर हाथ तरक़्क़ी। ये समाज औऱ देश के अंतिम पंक्ति में खड़े लोगों को मुख्यधारा में सम्मिलित करने का राजनीति द्वारा वर्तमान में दिया गया उदघोष है। देश वैश्विक भूख सूचकांक में 100वें स्थान पर है। तो इसका कारण साफ़ है, सरकारी नीतियों में कमी है। बात तो राजनीति सामाजिक पैरोकार की भावना की जाती है, पर नीतियों के निर्धारण औऱ क्रियान्वयन में हमारी लोकशाही व्यवस्थाएं पिछड़ जाती है।

यह देश के समक्ष कितनी बडी विडंबना की बात है, कि एक तरफ़ करोड़ों लोग भूखे पेट औऱ खुले आसमाँ तले जीवन जीने को विवश हैं, जिसका अधिकार उन्हें संवैधानिक दायरे में रहते हुए मिला है। वही दूसरी ओर देश में करोड़ों टन अनाज गोदामों में सड़ जाते हैं। गोदामों में अनाज सड़ जाते हैं, औऱ वे जरूरतमंद तक नहीं पहुँच पाते। कारण स्पष्ट है, सार्वजनिक वितरण प्रणाली में काफ़ी दोष है, औऱ रख-रखाव सही से होता नहीं। हमारी संस्कृति में अन्न को देवता माना जाता है। इसके साथ झूठन छोड़ना अन्न का तिरस्कार माना जाता है। मगर आधुनिकता की चपेट में हम अपने संस्कृति और संस्कार को भूलते जा रहें हैं। आज वैश्विक परिवेश में देश उच्चाईयों की कितनी बड़ी इबारत लिख ली हो, फ़िर भी भूखमरी से देश पीछा नहीं छुड़ा सका है। ऐसे में होटल-रेस्त्रां आदि स्थानों पर सैकड़ों टन खाद्यान्न क्यों बर्बाद किया जाता है? आख़िर संविधान ने अधिकार दिया है, तो इसका तनिक मतलब नहीं कि लोग समाज और देश के प्रति मिले कर्तव्यों से कन्नी काट लें।

जब देश में मैनेजमेंट के माध्यम से चुनाव जीता जा सकता है, फ़िर खाद्यान्न की कितनी आवश्यकता हो सकती है, इसका पूर्वानुमान क्यों नहीं लग पाता? घरों के साथ शादी-ब्याह जैसे आयोजनों में सैकड़ों टन खाना रोज बर्बाद हो रहा है। भारत ही नहीं, समूची दुनिया का यही हाल है। एक तरफ देश के करोड़ो लोग समाज की मुख्यधारा से कटते हुए दाने-दाने को मोहताज हैं, कुपोषण से निजात पाई नहीं जा सकी है, तो कुछ जिम्मेदारी सामाजिक व्यवस्था से भी की जाती है। उस तरफ़ लेकिन सामाजिक व्यवस्था शायद देखनी नहीं चाहती। एक आंकड़े के मुताबिक अगर देश के 51.14 फ़ीसद परिवारों की आय का जरिया सिर्फ़ अस्थायी रोजगार है। इसके इतर अगर रहनुमाई व्यवस्था ग़रीबी से बाहर निकलने की लक्ष्मण रेखा 26 से 32 रुपए खींच देगी, तो फ़िर सबको दो जून आज के दौर में रोटी मिलना, आसमाँ से चांद तोड़ने से ज्यादा असंभव कार्य लगता है। जिस देश में लगभग चार लाख परिवार कूड़ा बीन कर, उसके अलावा लगभग साढ़े छह लाख परिवार भीख मांग कर अपना जीवन यापन करते हैं। तो जिम्मेदारी तो उन्हें मुख्यधारा में जोड़ने की सरकार के साथ समाज के लोगों की भी होनी चाहिए।

संयुक्त राष्ट्र के फ़ूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन ने एक रिपोर्ट जारी की है, जिसके मुताबिक देश में प्रति वर्ष 244 करोड़ रुपए का खाद्यान्न बर्बाद हो जाता है। वही देश में 19 करोड़ 40 लाख लोग भूखे रहते हैं। फ़सल कटाई के बाद का नुकसान 1 लाख करोड़ का बैठता है। देश मे कुल उत्पादित खाद्यान्न का 40 फ़ीसद हिस्सा बर्बाद हो जाता है। वर्ष 2016 में एक रिपोर्ट आई, जिसके मुताबिक इंग्लैंड में जितना खाद्यान्न की खपत होती है, प्रति वर्ष उतना हमारे देश में बर्बाद हो जाता है। देश के भीतर 25.1 करोड़ टन खाद्यान्न उत्पादन होता है, फ़िर भी देश का हर चौथा व्यक्ति भूखे सोने को विवश और लाचार होता है। औसत रूप में हर भारतीय प्रति वर्ष 6 से 11 किलो अनाज बर्बाद करता है। ऐसे में सरकार जरूरत मंद को कितना अनाज एक महीने में देती है, इन दोनों की बातों की तुलना करें, तो अगर वितरण का तरीका औऱ अन्न की बर्बादी रुक जाए, तो देश से भूखमरी औऱ कुपोषण जैसी समस्याएं छूमंतर हो सकती हैं। इसके साथ सामाजिक सरोकार में सहभागी जनता को भी बनना चाहिए, क्योंकि अगर जो अनाज देश के लोग बर्बाद करते हैं, अगर उसके एवज में पैसा सरकार को दे दे, तो इतने कोल्ड स्टोरेज खुल सकते हैं, कि अन्न सड़ सकता नहीं। या फ़िर अन्न बर्बाद करने की जगह सम्पन्न लोग इसे ग़रीबो में बांट दे, तो कुछ हद तक ग़रीबी देश से ख़त्म हो जाए, लेकिन ये हिम्मत करता कोई नजऱ आता नहीं।

व्यर्थ के वैभव प्रदर्षित करने और समाजिक दिखावे से देश विश्व परिदृश्य पर महान नहीं बनने वाला। उसके लिए देश के लोगों की सोच बड़ी होनी चाहिए, परस्पर सहयोग की भावना होनी चाहिए। सरकार मान लीजिए अभी शादी में आने वाले लोगों की संख्या तय करने लगे, भोजन के व्यर्थ बर्बाद करने पर जुर्माना वसूल करने लगे, तो समाज उद्देलित और आंदोलित हो उठेगा। ऐसे में भूखमरी औऱ अन्न की बर्बादी रोकना मात्र सरकार का काम नहीं, इसके लिए समाज के लोगों का दायित्व भी है, कि अपना योगदान दे। देश के विभिन्न धर्मों के साधु-संत बिना सिर-पैर के सामाजिक सद्भाव को क्षीण करने वाले बयान देते रहते हैं, अन्न की बर्बादी आदि रोकने के लिए अपने समाज को उपदेश क्यों नहीं देते, क्योंकि आख़िर में सब धर्मों का मूल भाव मानवता का जब कल्याण करना ही होता है। कुछ समय पहले आए एक भारतीय लोक प्रशासन के सर्वेक्षण के मुताबिक देश में शादी और अन्य आयोजनों पर लगभग 20 से 25 फ़ीसद खाद्यान्न बर्बाद हो जाते हैं। एक तरफ़ भूखे पेट सोने को मजबूर लोग, दूसरी तरफ़ अन्न की बर्बादी कहीं न कहीं देश मे रहने वाले लोगों में समाजिक उपादेयता के शून्य होने के साथ साथ अव्यवस्था और उचित प्रबंधन न होने का नतीजा है। ऐसे में क्या सरकार कुछ ऐसी तरक़ीब नहीं निकाल सकती कि अनाज लोगों तक पहुँच जाए, औऱ सड़ने से भी बच जाए। ऐसे में नज़र तो यही आता है, कि बिना इच्छशक्ति के कुछ हो नहीं सकता, जो सरकारों के पास वर्तमान में दिख नहीं रहा।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896