राजनीति

लेख–चुनावी बयार में ही बहेगा देश, या समाज सुधार का वाहक भी बनेगा चुनावी लोकतंत्र

भारतीय लोकतंत्र का पर्याय चुनाव बन बैठा है। एक राज्य में चुनाव ख़त्म होता नहीं, कि दूसरे राज्य में बिगुल बज जाता है। जिसका सबसे बड़ा जोखिम प्रजातांत्रिक व्यवस्था को वहन करना पड़ता है। केंद्रीय नेतृत्व सामाजिक विकास पर ध्यान न देकर सिर्फ़ अपनी पार्टी की राजनीतिक गतिविधियों में ज्यादा मशगूल रहता है। चुनावी तंत्र लोकतंत्र का पैमाना बनता जा रहा है, लेकिन अगर सामाजिक सरोकार की भावना लोकतांत्रिक साए में दुर्बल और शिथिल पड़ती जा रहीं है, तो यह आवाम के प्रति न्याय नहीं हो रहा। बेरोजगारी बढ़ती जा रहीं है, जिसके कारण छात्र और बेरोजगार युवा मौत के फंदे पर लटकने को मजबूर हैं, औऱ देश का भविष्य सड़कों पर भीख मांगने जैसी स्थिति में पहुँच रहें हैं। किसान आत्महत्या कर रहा है, लेकिन इन बातों का सियासी प्रणाली को मलाल कहाँ? वह तो चुनाव जीतने की हर संभव कोशिश में लगा रहता है। फ़िर चाहें दागी उम्मीदवार को टिकट देना हो, या अन्य कोई तरक़ीब। वह हरसंभव कोशिश करता है। चुनावी लोकतंत्र में हर वर्ष चुनावी बारात निकलती है, जिसमें हिस्सेदारी लेकर राजनीतिक दल सियासी सत्ता में काबिज होने की कोशिश करते हैं। 2019 के आम चुनाव के पूर्व आठ राज्यों में चुनाव होने हैं, जिसकी शुरुआत तीन राज्यों में चुनावी ढुगढुगी बजने के साथ शुरू हो गई है।

चुनाव आयोग ने पूर्वोत्तर के तीन राज्यों मेघालय, त्रिपुरा और नगालैंड में चुनाव की तारीखों का एलान कर दिया है। इन तीनों राज्यों में दो चरणों में मतदान होगा। पहले चरण में 18 फरवरी को त्रिपुरा में चुनाव होगा औऱ दूसरे चरण में 27 फ़रवरी को मेघालय और नगालैंड में मत डाले जाएगें। ऐसे में देखने वाला होगा, कि तवारीख़ में भी बदलाव देखने को मिलता है, कि नहीं। देश का भला मात्र चुनावी गणतंत्र की पूजा से ही संभव नहीं। यह साबित हो चुका है, जब तक सामाजिक सरोकार की भावना राजनीति में पनपेगी नहीं, औऱ दूषित मानसिकता को लोकतांत्रिक व्यवस्था में तिलांजलि नहीं दी जाती। लोकतांत्रिक व्यवस्था को सफ़ल माना जा नहीं सकता। इन राज्यों में चुनावी बिगुल के साथ कुछ बातें उठाकर सामने आ रहीं है, कि क्या राजनीति उससे छुटकारा पाने का प्रयास करेंगी। लोकतांत्रिक व्यवस्था पर दागी उम्मीदवार ख़ड़े करना किसी धब्बे से कम नहीं। तो क्या राजनीतिक दल इन राज्यों के चुनावों से नई राजनीतिक प्रणाली को शह देने की तरफ़ बढ़ेंगी? यह लाख टके का सवाल है, क्योंकि सियासत एक ऐसी व्यवस्था बनती जा रही है, जिसकी कथनी और करनी में जमीं आसमाँ का फ़र्क़ देखने को मिल रहा है। बीते कुछ राज्यों के चुनावों में राजनीतिक दलों ने दागी उम्मीदवारों से काफ़ी यारी दिखाई है। यह ऐसे वक्त में हो रहा है, जब सभी सियासी दल लोकतंत्र की हिमायती बनने की दलीले पेश कर रहीं हैं। फ़िर लोकतंत्र की छाया में राजनीतिक दलों की बातें सिर्फ़ व्यर्थ का चुनावी मुलम्मा खड़ा करने से ज़्यादा कुछ समझ आती नहीं।

राजनीति में स्वच्छ औऱ साफ़-सुथरी राजनीति की दलील काफ़ी समय से दी जा रहीं है, लेकिन सियासतदानों की मनोदशा औऱ सोच में परिवर्तन न आने के कारण दागी उम्मीदवारों का जो दाग हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के दामन पर लगा है, वह अभी तक धुला नहीं जा सका है। सिर्फ़ फास्टट्रैक कोर्ट का गठन समस्या का हल नहीं, जब तक राजनीतिक दलों की सोच में परिवर्तन आने वाला नहीं, क्योंकि देश के वर्तमान प्रधानसेवक ने स्वच्छ संसद बनाने की बात 2014 के आम चुनाव के पूर्व ही की थी, लेकिन वह विचार सकारात्मक रूप से धरातल पर आज तक लागू नहीं किया जा सका। वैसे आज हमारा लोकतंत्र जो चुनावी तंत्र में तब्दील होता जा रहा है, वह मात्र दागियों से पीड़ित नहीं, वादाखिलाफी, झूठे वादे और अन्य रोगाणुओं से भी ग्रषित हो चुका है, लेकिन शायद इन सब की जननी लोकतंत्र में जननेता और अच्छे नेताओं की बढ़ती कमी है। चुनाव में देश की जनता आए दिन उलझी रहती है, लेकिन उसको आखिर में मिलता क्या है, कह पाना कभी कभी मुश्किल हो जाता है। चुनावी लोकतंत्र की कामयाबी में अरबों रुपए की आहुति दे दी जाती है, जो जनता की कमाई का हिस्सा होता है, लेकिन उसी आवाम को अगर ये सियासत के हैसियतदार दो जून की रोटी, सिर ढकने के लिए छत औऱ युवाओं को रोजगार दिलाने में सफ़ल नहीं हो पाते। फ़िर बार बार चुनावी स्वांग रचने का कोई अर्थ निकलता नहीं।

चुनाव होता क्यों है, शायद इसकी परिभाषा भी सियासत की बिसात पर फन फ़ैलाकर बैठे नेतृत्वकर्ता भूल गए हैं। चुनाव का सीधा अर्थ अपने पिछले कार्य का लेखा-जोखा जनता के सापेक्ष रखना और अपनी कार्यप्रणाली और नीतियों के बारे में जनता को अवगत कराना होता है। इसके साथ आगामी वर्ष में चुनाव जीतकर जनता के विकास के लिए और जीवन स्तर को सुधारने के लिए कार्य करना होता है। लेकिन राजनीति तो इस राह पर चलना भूलती जा रहीं है। आज चुनाव का मतलब किसी भी तरह सत्ता तक पहुँच बनाना भर रह गया है। फ़िर उसके लिए धनबल, बाहुबल औऱ अन्य सियासी तिकड़म किए जाते हैं, जो लोकतंत्र की आत्मा को तार-तार करने के लिए काफ़ी होता है। देश में नब्बे के दशक में ही राजनीति को दागियों की शरणस्थली बनने से बचाने की बात उठी, लेकिन दुर्भाग्य आज़तक उस पर अमल नहीं हो पाया। ऐसे में सवाल यहीं कहीं राजनीति बाहुबल, धनबल औऱ जातीयता की जकड़न की बंधक तो बनकर नहीं रह गई है? एक रिपोर्ट के मुताबिक 1996 के चुनाव में कुल उतरे उम्मीदवारों में से 1500 से अधिक उम्मीदवार दागी थे, जो व्यवस्था समानांतर चलती आ रहीं है। ग्यारहवीं लोकसभा में 40 सांसदो पर आपराधिक कृत्यों का ज़िक्र था। अर्से से राजनीति में यह बात उठती रहीं है, कि दागियों को राजनीति से दूर किया जाए, लेकिन ऐसा होता दिखता नहीं। अब केंद्र सरकार ने दागी नेताओं से निपटने के लिए 12 फास्टट्रैक कोर्ट के गठन की बात करके इस दिशा में सार्थक क़दम बढ़ाया है। इस मुद्दे पर सरकार की गोलमोल स्थिति असमंजस्य की घड़ी भले उत्पन्न कर देती है, क्योंकि जब चुनाव आयोग ने दागी नेताओं पर आजीवन प्रतिबंध की बात कही, तो उससे सरकार मुकरकर छह वर्ष के प्रतिबंध की बात कही। राजनीतिक दलों की कमजोर इच्छशक्ति औऱ मनोदशा का परिणाम ही है, कि लोकतंत्र दागी नेताओं को ढोने को विवश है।

कितना भी राजनीतिक दल स्वच्छ राजनीति की बात करें, लेकिन चुनावों में जब जीत दांव पर लगी होती है, तो राजनीतिक पार्टियां कोई जोखिम लेना नहीं चाहती। फ़िर सिर्फ़ कौन उम्मीदवार जीत सकता है, वह एकमात्र पैमाना बचता है। फ़िर चाहें उम्मीदवार दागी हों, या कुछ भी। उस वक्त सभी नैतिकता औऱ राजनीतिक मूल्य धरे के धरे रह जाते हैं, औऱ राजनीतिक पार्टियां दागी उम्मीदवार को भी प्रत्याशी बनाने से गुरेज़ नहीं करती। दागियों पर दांव खेलने का भी अपना राजनीतिक गणित होता है। विपक्ष इस दांव का उपयोग सत्ता पक्ष को बेदखल करने के लिए करता है। उत्तर प्रदेश में हुए चुनाव में अलग-अलग दलों ने गंभीर अपराधों के 704 आरोपियों पर दांव लगाया था। जिनपर बलात्कार, हत्या, हत्या की कोशिश, अपहरण, सांप्रदायिक दंगे भड़काने आदि के मामले चल रहें थे। यहीं हाल गुजरात का अभी रहा। एसोशिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म और गुजरात इलैक्शन वॉच की रिपोर्ट के मुताबिक भाजपा के 23 और कांग्रेस के 38 प्रत्याशियों पर आपराधिक मुकदमे चल रहे थे, चुनाव के वक्त। जो कि 2012 के राज्य चुनाव से अधिक था। निहितार्थ यह बढ़ोतरी ऐसे समय दर्ज की जा रहीं है, जब सभी दल सामाजिक सरोकार और अपराध मुक्त राजनीति की बात करते हैं।

यह सही है, लोकतंत्र की बागडोर जनता के हाथ में होती है, फ़िर जनकल्याण की भावना अगर धरातल पर दिखती नहीं, तो मतलब यह परिभाषा भी इन आपराधिक प्रवृत्ति के नेताओं के कारण भोथरी साबित हो रही है। लोकतांत्रिक व्यवस्था का यह दुर्भाग्य है, कि वह जाति, धर्म के बंधन को तोड़ नही पा रही, और अनपढों के साथ आपराधिक प्रवृत्ति के रोगाणुओं से पीड़ित है। राजनीति लोकतंत्र की बुनियाद है, और इसकी जनता के आँखों में पारदर्शिता होनी चाहिए। पर राजनीति ने तो इतने मुखोटे पहन रखें है, कि जनता के लिए असली औऱ नक़ली में फ़र्क़ करना मुश्किल हो रहा है। सच कहें तो जनता भी बदलनी नहीं चाहती, वह बनाई धुरी पर ही चलना चाहती है, या उसे उस पर चलने को विवश कर दिया गया है, जो स्वस्थ लोकतंत्र के लिए सही नहीं। नही तो अगर जनता एक बार दागी नेताओं को नकार दे, तो किसी की मजाल नहीं कि सुधार की हवा में न बहे, लेकिन धन औऱ बाहुबल जिस समाज में हावी हो, उसमें निर्बल का क्या अस्तित्व। इसलिए राजनीति औऱ न्यायिक तंत्र को ही स्वच्छ राजनीति की बयार देश में बहाने के लिए प्रयास करने होगें। इसके साथ अगर एकसाथ चुनाव की बात पर अमल हो, तो देश का कुछ भला हो सकता है, भले ही व्यवस्था को कुछ ज़्यादा मशक्कत करनी पड़े। पर एकसाथ चुनाव करवाने में भी राजनीतिक दलो को स्वयं का नुकसान दिखता है, कि चुनाव एक व्यक्ति केंद्रित हो जाएगा, ऐसे में क्षेत्रीय दलों को नुकसान उठाना पड़ सकता है। मतलब साफ़ है, स्वार्थ हर तरफ़ देखा जाता है, तो वह राजनीतिक ही होता है, जनहितार्थ औऱ समाज कल्याण तो दिखावा है। तो क्या राजनीतिकार अपने ढ़र्रे में इन राज्यों के चुनाव के साथ कुछ बदलाव करेंगे, राजनीतिक शुद्धिकरण की तरफ़ देश की राजनीति बढ़ेंगी, और जनमहत्व का विषय चुनाव का हिस्सा बनेगा, या राजनीति बनी बनाई राह पर ही चलेगी, यह तो भविष्य ही बताएगा, अभी तो चुनावी मौसम की बयार चल रही है, उसी को देखकर ख़ुश होते रहिए, कभी तो दिन बहुरेंगे। हम भी इसी का इंतजार करते हैं।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896