सामाजिक

लेख : कंजूसी

ये कंजूस भी अजीब ही लोग होते हैं। इसे मानसिक रुग्णता ही कहा जाना चाहिए। आखिर क्यों कोई कंजूस होता है, कुछ भी देने में हिचकता क्यों है, कुछ भी छूटता क्यों नहीं हैं, जो आ जाये, जो मिल जाये उसे पकड़ने की इतनी जिद्द क्यों? औैर ऐसा नहीं है कि कंजूस कोई-कोई होता है, बहुतायत में होते हैं…क्या इतनी-सी बात नहीं दिखाई देती कि एक दिन आयेगा और पक्का आयेगा जब शरीर चला जायेगा, शरीर से जुड़ी हर चीज चली जायेगी…और यह होना तय है, और कुछ हो न हो, यह तो होगा ही…फिर भी इतनी पकड़?

असल में पकड़ होती ही इसलिए है क्योंकि कहीं पता है कि सब छूट जायेगा और जितना यह छूट जाना याद आता है, उतनी ही पकड़ बढ़ती जाती है…और यही घबराहट, भय, विकृति अंतिम पलों में अधिकांश के चेहरों पर दिखाई देती है, इसी कारण अधिकांश मृत लोगों के चेहरे बहुत रुग्ण होते हैं, भयभीत, आतंकित…पूरा जीवन हर चीज को पकड़ा, बुरी तरह से पकड़ा फिर भी यह पल आ ही गया…अब तो सब गया…और इस जाने में सब कुछ कंप जाता है।

मुझे लगता है कि कंजूसी की आदत या मानसिक रोग से बाहर आना चाहिए, जिन्हें भी लगता है कि उनसे कुछ छूटता नहीं है तो इस पर जरूर ध्यान करना चाहिए, थैरेपी़ज करनी चाहिए…अपनी समझ को विकसित करना चाहिए…इस तथ्य को खुली आंख खूब-खूब देखना चाहिए कि एक दिन आयेगा जब सब छूट जायेगा, जब छूट ही जायेगा तो अपने हाथों से क्यों नहीं छोड़ा जाये, छोड़ने का, देने का आनंद क्यों नहीं लिया जाये।

थोड़ी-सी समझ और कंजूसी या पकड़ से मुक्ति मिल सकती है। और यह बीमारी हमारे देश में सर्वाधिक पाई जाती है। मैंने विदेशियों को इतना कंजूस नहीं देखा…पर भारतीय मानसिकता तो गजब की कंजूसी से भरी है…कुछ भी नहीं छूटता…और एक बार देने का, छोड़ने का आनंद का स्वाद मिल जाये तो पता चलता है कि पकड़ने की आदत में कितना कुछ अमूल्य छूटा जा रहा था…!

जीयो, जी भर के…और एक दिन मर जाओ मन भर के…जीवन भर यदि छोड़ने में सहजता रही तो अंतिम पल में देह भी आसानी से छूट जायेगी, कोई भय नहीं, कोई आतंक नहीं…जीये, खूब जीये, अब खूब मर जाते हैं…!

संतोष भारती (बनवारी)

स्वतंत्र विचारक, लेखक एवं ब्लॉगर निवासी पुणे