सामाजिक

लेख– बढ़ती आर्थिक असमानता, समाज में बढ़ते हिंसात्मक और अराजक माहौल की जननी

संविधान हमें जीवन रक्षा का अधिकार ही नहीं देता, समानता और सामाजिक बराबरी की बात भी करता है। तो क्या आज के दौर में समावेशित विकास का स्वांग रचा जा रहा है, तो क्या यह मान ले। समाज की दिशा और दशा में समरूपता आ गई। शायद नहीं, क्योंकि गरीबी की परिभाषा संविधान अपनाने के दशकों बाद भी 32 में निर्धारित होती है। जबकि देश की लगभग 73 फ़ीसद सम्पत्ति एक फ़ीसद हाथों में सिमट चुकी है। फ़िर ऐसे में सार्वजनिक स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार के मुद्दे बड़बोलेपन वाली राजनीति के सामने शायद बौने हो जाते हैं। साथ में शायद समावेशी विकास के वादे औऱ गरीबी उन्मूलन का विषय धूलधूसरित समझ में आता है। ग़रीबी उन्मूलन, सबका साथ सबका विकास आदि बातें ऐसे वक्त भोथरी लगती है। जब पता चलता है, कि आज़ादी के 70 वर्ष बाद भी सामाजिक औऱ आर्थिक रूप से समाज का एक बहुत बड़ा तबक़ा पिछड़ेपन का शिकार होता जा रहा है। यह चिंतनीय विषय है, कि भारत तीव्र गति से आर्थिक विषमता की खाई की तरफ़ अग्रसर है।

गरीबी उन्मूलन पर कार्य करने वाली संस्था ऑक्सफैम-2018 के मुताबिक देश की एक फ़ीसद आबादी के पास 73 फ़ीसद संपत्ति सीमित हो चुकी है। मतलब देश की 99 फ़ीसद आबादी सिर्फ़ 27 फ़ीसद सम्पत्ति में जीवनयापन करती है। देश में आर्थिक असमानता को ओर विस्तार से समझना चाहें, तो पता चलता है, कि देश की 67 करोड़ आबादी सिर्फ़ 1 फ़ीसद सम्पत्ति में गुजर-बसर करती है, यानी देश की कुल सम्पत्ति के सौवें हिस्से में जीवन बसर करती है। वर्ष 2017 की रिपोर्ट के मुताबिक देश की 58 फ़ीसद सम्पत्ति सिर्फ़ एक फ़ीसद लोगों के हाथ मे थी। कहने का अर्थ यह है, कि एक ही वर्ष में अमीरों की अमीरी 15 फ़ीसद औऱ बढ़ गई। जिस हिसाब से आर्थिक असमानता देश में बढ़ रही है, उससे दुनियाभर के अर्थशास्त्री चिंतित हैं। देश में लैंगिक असमानता और आर्थिक असमानता दो समस्याएं बढ़ती ही जा रही है। जिसका ईलाज न सियासतदानों के पास है, औऱ न सामाजिक व्यवस्था इसका कोई तोड़ ढूंढ पा रहीं है। जो कि चिंता की लकीर देश के सामने खींचती है। आर्थिक विषमता की बढ़ती खाई की देन आज के समय में बदलती सामाजिक परिस्थिति है। जिसके फलस्वरूप हिंसात्मक माहौल औऱ अराजकता का बोलबाला समाज में बढ़ रहा है। बढ़ती अमिरियत सिर्फ़ कुछ हाथों में सीमित होने का एक सबसे बड़ा नुकसान यह भी है, कि सम्पत्ति का एक बड़ा हिस्सा अर्थव्यवस्था में चलन से बाहर हो रहा है। जिसके कारण देश की विकास दर भी प्रभावित होती है।

उदारीकरण और भूमंडलीकरण के कारण सरकारी व्यवस्था का अस्तित्व सिमट कर रह गया है। जिसके कारण गरीबी दूर करने की दिशा में सरकारें भी बेहतर क़दम औऱ नीति बनाने में असफ़ल हो रहीं हैं। देश की राजनीति बात हर हाथ शक्ति, हर हाथ तरक्की की करती है, पर रोजगार दिलाने में उसकी सांस फूलने लगती है। लोगों को रोजगार दिलाने के लिए मनरेगा जैसी कुछ योजनाएं चलाई भी गई। पर वे गरीबी दूर करने में नहीं बल्कि सिर्फ़ सिर्फ़ जीवन जीने में सहायक ही सिद्ध हो पा रहीं हैं। समाज में बढ़ता सामाजिक द्वंद्व, और अराजकता का मुख्य कारण बढ़ती आर्थिक असमानता है। जिसपर काबू पाने की दिशा में सार्थक नीतियों को क्रियान्वित करना होगा, नहीं समाज में बढ़ते अराजकता को दूर कर पाना लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए टेढ़ी खीर साबित होगा।

तत्कालीन व्यवस्था में दीगर विषय यह है, जब लोकतांत्रिक व्यवस्था जनतंत्र के साथ किसी भी तरीके से भेदभाव नहीं करती। कोई भी दल यह मानने को तैयार नहीं होता, कि वह वर्ग विशेष के हितोउद्देश्य के लिए काम करता है। फ़िर ऐसे में अमीरी औऱ ग़रीबी की खाई चौड़ी कैसे हो रहीं है? यह प्रश्न धधक उठता है। बढ़ते निजीकरण ने आय की असमानता को बढ़ाने का काम किया है। निजीकरण के कारण सरकार द्वारा तय किए गए निर्धारित वेतनमान से लोग वंचित रह जाते हैं। भूमि सुधार औऱ अन्य नीतियों को अमलीजामा न पहना पाना भी ग़रीब को औऱ ग़रीब बना रहा है। पिछले वर्ष की खाद्य एवं कृषि संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश के कृषि क्षेत्र में महिलाओं की लगभग 32 प्रतिशत हिस्सेदारी है। इसके बाद भी महिलाओं को किसान का दर्जा आज़ादी से आज तक नहीं दिया जा सका, जिसके कारण किसानों के लिए चलाई जा रहीं नीतियों से उन्हे फ़ायदा नहीं मिलता। जिस कारण से ग़रीब ग़रीब ही बना रह जाता है। आर्थिक असमानता बढ़ने का एक मुख्य कारण भ्रष्टाचार भी है। भ्रष्टाचार के कारण सरकारी जनकल्याण की नीतियों का लाभ वंचित वर्ग को नहीं सही से नही मिल पाता।

बिचौलिए खाद, बीज और अन्य सब्सिडी पर फन फ़ैलाकर बैठ जाते हैं। जिससे सरकारी योजनाएं ग़रीबी दूर करने में असफल साबित होती हैं। आर्थिक असमानता की बढती खाई के पीछे सरकार की नीतियाॅ भी कम जिम्मेदार नहीं। सामाजिक सरोकारों के प्रति हमारे नुमाइन्दे कभी भी संजीदा नजऱ नहीं आते। शायद उनके मस्तिष्क में यहीं रहता है, गरीबी दूर हो जाएंगी, तो फ़िर वे कौन से सपने बेचकर सत्ता में आएंगे। पार्टिया जनहित का मुखौटा लगाकर भी जनहित के मुद्दों से कोसोे दूर रहती है। इनका जनहित से कोई लेना देना नही। पार्टियों का मुख्य उद्देश्य सत्ता बचाना होता हैं। तभी तो आज भारत में कुटीर उद्योग, हस्तशिल्प कला आदि आर्थिक मदद न मिलने के कारण मर रहा है। ग़रीबी- अमीरी की खाई पटाने के लिए सरकार को ऐसी नीतियां बनाना होगा, जो सिर्फ़ कागजों में दम न तोड़ें। ज़मीनी धरातल तक पहुँचे। भ्रष्टाचार पर लगाम के साथ आपसी सहयोग की भावना समाज में पनपनी चाहिए। इसके साथ सरकार को स्वरोज़गार के अवसर में वृद्धि के उपाय ढूढ़ने के साथ सरकारी नौकरी तो लोगों को उपलब्ध करानी होगी। ऐसा भी नहीं सरकार ग़रीबी दूर करने को प्रयासरत नहीं, लेकिन उम्मीदों पर खरे उतरने लायक परिणाम मिल नहीं रहे। स्टार्टअप योजना और मेक इन इंडिया जैसे आधुनिक सरकारी उपाय रोजगार सृजन के लिए ही चलाए जा रहें हैं। इसके साथ अगर सरकार सस्ती तकनीक और प्राधौगिकी के विकास के साथ कुछ लोगों को लाभ पहुचाने वाली नीतियों में फेरबदल के साथ अधिक कमाई करने वालों पर टैक्स की दर बढाकर उससे सामाजिक व्यवस्था में व्याप्त आर्थिक असामनता दूर करने की इच्छाशक्ति व्यक्त करें। साथ में देश की एक फ़ीसद धनाढ्य जनसंख्या भी ग़रीबो की मदद के लिए सामाजिक सरोकार में योगदान दे। तो देश से गरीबी- अमीरी की खाई कुछ हद तक कम की जा सकती है। बशर्ते कि ऐसा करने की हिमाक़त धनाढ्य वर्ग औऱ लोकतांत्रिक व्यवस्था करें। सरकार आर्थिक असमानता दूर करने के लिए आने वाले बजट में यूनिवर्सल बेसिक इनकम पर अमल कर के भी कर सकती है, जो कि एक सार्थक कदम हो सकता है, हां इसके लिए सरकार को आर्थिक रूप से मजबूत होना पड़ेगा, तो क्यों न सरकार धनाढ्य वर्ग से अधिक कर वसूलने की दृढ़ता आने वाले बजट में व्यक्त करें।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896