हास्य व्यंग्य

आशीर्वाद पाना सबसे बड़ी योग्यता

आशीर्वाद खूब फलता-फूलता है।बस यह इस बात पर निर्भर करता है कि देने वाला कौन है और ग्रहण करने वाला कौन है। आशीर्वाद पाकर लोग-बाग भी अच्छे खासे फलते-फूलते हैं।इस बात पर बड़े ही आरोप प्रत्यारोप लगते रहे हैं कि अमुक-अमुक पर अमुक साहब का आशीर्वाद रहा तभी तो वे कहाँ से कहाँ पहुँच गये यानी अगर आशीर्वाद मिल जाए तो आदमी फर्श से अर्श पर पहुँच जाए।
एक प्रदेश के विधानसभा सचिवालय में हुई नियुक्तियों में राजनेताओं,अधिकारियों के रिश्तेदारों का चयन हो गया और इसमें योग्यता से ज्यादा आशीर्वाद ने काम किया।इस बात पर लोगों को आपत्ति है लेकिन क्या यह उचित है,नहीं न!क्या आशीर्वाद पाना अपने आप में किसी योग्यता से कम है!बल्कि मेरा मानना है कि आशीर्वाद पाने की कला होना अपने आप में एक विशिष्ट योग्यता है।जिस किसी में यह योग्यता आ गई समझो उसने जीवन की कठिन डगर को सरलता से पार कर लिया।
स्कूल-कॉलेज के दिनों में छात्र-छात्राएँ पढ़ाई से ज्यादा गुरू-गुरूआईन के आशीर्वाद प्राप्त करने पर ध्यान देते हैं।गुरूजन को खुश कर दिया तो सफलता का डंका बज गया समझो वरना डिग्री पर कालिख पुत जाती है और अयोग्य करार होने में देर नहीं लगती।प्रेक्टिकल में पास होना है या अच्छे नम्बर की बात हो या फिर शोध प्रबन्ध प्रस्तुत कर पीएचडी अवार्ड करवाना हो,यह सब बिना गुरुवर के आशीर्वाद के कहाँ संभव है।मनोवांछित फल पाने के लिए आशीर्वाद दाता का भी ध्यान रखना पड़ता है।भगवान को मनाने के लिए भी तो कितनी मान-मनौव्वल करना पड़ती है।ऐसा ही इनका यानी आशीर्वाद दाता का भी है।इतनी आसानी से खुश भी नहीं होते और इतनी आसानी से मानते भी नहीं।
बच्चों को बचपन से ही यह पाठ पढ़ाया जाता है कि जीवन में सफलता पाना है तो अपने बड़े-बुढ़े,बुजुर्गों का आशीर्वाद सबसे पहले लेना चाहिए।यही ज्ञान जीवनभर काम आता है।जबतक माता-पिता आशीर्वाद देने की स्थिति में रहते हैं तबतक तो उनका बोलबाला रहता है, बाद में तो वे सब तरह से अर्थहीन हो जाते हैं और कई लोग तो वृद्धाश्रम की राह दिखा दिये जाते हैं।खैर,माता-पिता और बुजुर्गों की उपयोगिता जब तक रहती है तब तक रहती है इसके बाद जीवन में अति-रथी और महारथी आशीर्वाद दाताओं का आविर्भाव हो जाता है तो बाकी रिश्ते-नाते फिजूल हो जाते हैं।तब फिर खून के रिश्तों की जगह जरूरत पूरी करने वाले रिश्ते यानी आशीर्वाद देने की क्षमता रखने वाले रिश्ते ही अहमियत रखते हैं।ऐसे रिश्ते आसानी से बनते भी नहीं है, कई बार उन्हें अन्नदाता या माई-बाप होने का आभास कराना होता है ,सार्वजनिक मंच पर जूते के लैस बांधने में भी शर्म या झिझक महसुस नहीं करना होती है या फिर साहब के जूते या मेम साहिबा के सेण्डिल भी उठाकर चलना पड़े तो क्या आदमी छोटा हो जाता है ।उनके कुत्ते की साज-संभाल भी आशीर्वाद पाने का जरिया है। ऐसे रिश्ते बनाना एक आर्ट है और जिसने बना लिये,समझो जिन्दगी की जंग ही जीत ली।
आशीर्वाद पाकर ही पद,प्रतिष्ठा और दौलत हांसिल हो रही है और लोग लगे हुए हैं, इसमें मान-अपमान कैसा!यदि ऊपर वाले का आशीर्वाद है तो सत्ता है ,कुर्सी है,पद है,यदि आशीर्वाद पाने में असफल हुए तो किसी काम के नहीं।आजकल ऊपर वाले से ज्यादा लोगों को हाईकमान के आशीर्वाद पर भरोसा है तभी तो उनकी भक्ति करने के लिए व्यक्ति हर स्तर तक जा सकता है।आखिर आशीर्वाद जो पाना रहता है।वैसे कुछ पाने के लिए बहुत कुछ खोना पड़ता है और कुछ खो कर यदि बहुत कुछ पा जाते हैं तो जीवन धन्य समझो।आशीर्वाद से ही जीवन बनता है और संवरता है।आशीर्वाद यदि योग्यता है तो सफलता की कुंजी भी है।

*डॉ. प्रदीप उपाध्याय

जन्म दिनांक-21:07:1957 जन्म स्थान-झाबुआ,म.प्र. संप्रति-म.प्र.वित्त सेवा में अतिरिक्त संचालक तथा उपसचिव,वित्त विभाग,म.प्र.शासन में रहकर विगत वर्ष स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ग्रहण की। वर्ष 1975 से सतत रूप से विविध विधाओं में लेखन। वर्तमान में मुख्य रुप से व्यंग्य विधा तथा सामाजिक, राजनीतिक विषयों पर लेखन कार्य। देश के प्रमुख समाचार पत्र-पत्रिकाओं में सतत रूप से प्रकाशन। वर्ष 2009 में एक व्यंग्य संकलन ”मौसमी भावनाऐं” प्रकाशित तथा दूसरा प्रकाशनाधीन।वर्ष 2011-2012 में कला मन्दिर, भोपाल द्वारा गद्य लेखन के क्षेत्र में पवैया सम्मान से सम्मानित। पता- 16, अम्बिका भवन, बाबुजी की कोठी, उपाध्याय नगर, मेंढ़की रोड़, देवास,म.प्र. मो 9425030009