हास्य व्यंग्य

डर है कि कहीं झोलाछाप मानकर ……..

हर किसी को जीवन में स्वांग करना होता है.हमने भी जब शुरू-शुरू में लिखना प्रारम्भ किया तो कंधे पर झोला टांगकर ही बाहर निकलते ताकि लोग हमें साहित्यकार होने की मान्यता दे दें.किसी समय यह साहित्यकार होने की निशानी हुआ करता था.एक समय था जब बड़े से बड़ा साहित्यकार भी खादी के कपडे पहने और अपने कंधे पर खादी का ही झोला रखकर अपनी अलग पहचान दिखाता था.इनके साथ बिखरे बाल और बेतरतीब दाड़ी उनके व्यक्तित्व को अलग ही पहचान देती थी.उनकी देखा-देखी हमने भी यही पैतरा आजमाया.वैसे राजनीति के क्षेत्र में भी कुछ नेताओं ने इसे अपनाया .हाँ,देशी समाजवादी –साम्यवादियों की पहचान इन झोलों से हो जाती थी.
खैर,अभी बात कलमकारों की हो रही है ,जिस तरह से माथे पर बिंदी और गले में मंगलसूत्र किसी महिला के विवाहित होने की निशानी हुआ करते थे ,ठीक उसी तरह कलमकारों की पहचान उसके पास कलम होने से ज्यादा उसके कंधे पर लटके झोले से होती थी.खासकर वामपंथ की ओर रुझान रखने वाले कलमकारों की ,लेकिन आज जब मोबाइल,लेपटॉप और टेबलेट के युग में दौड़ लगा रहे हैं और वामपंथ और दक्षिणपंथ ने आपसी घालमेल कर लिया है तब इन झोलों का क्या काम रह गया है और जिन लोगों ने समय के साथ कदम न बढ़ाते हुए अभी भी झोलों का दामन थाम रखा है ,वे झोलाछाप ही तो कहलायेंगे.
जिस तरह से आजकल कुछ लोग स्त्री के सुहाग की निशानी बिंदी ,बिछिया और मंगलसूत्र को पिछड़ेपन और गँवारपनका नाम देते हुए इनके बिना अपने आप को आधुनिक होने का परिचय कराते हैं,ठीक उसी तरह झोला भी अब कल की बात हो चला है .आजकल के साहित्यकार भी कंधे पर झोला नहीं टांगते बल्कि वे भी सूट-बूट धारी हो चुके हैं और कंधे पर लेपटॉप बेग रख अपने आधुनिक होने का परिचय कराते है.अब तो बुक क्या! ई-बुक का ज़माना है तो अब पुरातनपंथी कैसी ! यहाँ नेताओं की तो बात ही छोड़ दें,उनके वस्त्र-विन्यास को देखकर तो अभिनेता भी ईर्ष्या भाव से भर जाएं.अब उनकी पहचान लाखों के सूट से होने लगी है.तब फिर आजकल यह झोलाधारियों की बात क्यों! झोलाछाप तो कल भी थे और आज भी हैं.चिकित्सा के क्षेत्र में डिग्रीधारी डॉक्टरों और प्रशासकों की चिंता झोलाछाप डॉक्टरो से है.पहले के जमाने में कभी डिग्री की बात नहीं कही जाती थी ,व्यक्ति बगैर डिग्री के भी कई विद्याओं में निपुण हुआ करता था ,हर घर में दादी के नुस्खे से ही लोग बीमार नहीं होते थे और बीमार आदमी ठीक भी हो जाया करता था.हकीम का बेटा हकीम और वैद्य का बेटा वैद्य ,अनुभव काम आता था जनाब.वंशवाद की बोम नहीं लगती थी!चलिए मान लें की झोलाछाप से ख़तरा है लेकिन फिर भी यदि डिग्री लेकर लोगों की जान का सौदा होने लगे तब तो कहा यही जाएगा कि भाई निपटना ही है तो क्या डिग्रीधारी और क्या झोलाछाप .निपटेंगे भी तो सस्ते में ही.वैसे भी गाँव-शहरों के हाट-बाजार में ये ही झोलाछाप और संदुकधारी पैदल या साईकिल पर यहाँ वहां इलाज करते हुए मिल ही जाते थे और आज भी मिल जाते हैं.हाँ आज के दौर में इन्होंने भी अपनी दुकाने सजा ली हैं तो लोग जलने लगे हैं.
जिस तरह से चिकित्सा के क्षेत्र में मठाधीश होने की परम्परा ने जन्म ले लिया है,ठीक उसी तरह से प्रत्येक क्षेत्र में मठाधीश पनप चुके हैं,तब साहित्य का क्षेत्र कैसे अछूता रह सकता है.यहाँ भी मठाधीशों के ध्वज लहरा रहे हैं,ऐसे में कोई झोलाछाप कवि,कहानीकार,व्यंग्यकार अपनी दूकान कैसे चला सकता है ! झोलाछाप डॉक्टर की तरह उसकी भी पैठ गहरी जमी हुई हो सकती है ,तब तो मठाधीशों का सशंकित होना स्वाभाविक है. ऐसे में झोलाछापों को खदेड़ने का संकल्प चहुँओर से सुनाई दे रहा है,मैं बड़ी ही संकटपूर्ण स्थिति में आ गया हूँ क्योंकि में कैसे अपने आप को साबित करूं कि मैं झोलाछाप व्यंग्यकार नहीं हूँ.साहित्यकर्मी साहित्य का डिग्रीधारी नहीं होता ,तब क्या अपने आप को साबित करने के लिए मुझे अपना मठ स्थापित कर लेना चाहिए.लेकिन ऐसा कर पाऊँ ,इसके पूर्व ही कहीं ऐसा न हो कि मुझे व्यंग्य के क्षेत्र से झोलाछाप माना जाकर खदेड़ दिया जाए.

*डॉ. प्रदीप उपाध्याय

जन्म दिनांक-21:07:1957 जन्म स्थान-झाबुआ,म.प्र. संप्रति-म.प्र.वित्त सेवा में अतिरिक्त संचालक तथा उपसचिव,वित्त विभाग,म.प्र.शासन में रहकर विगत वर्ष स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ग्रहण की। वर्ष 1975 से सतत रूप से विविध विधाओं में लेखन। वर्तमान में मुख्य रुप से व्यंग्य विधा तथा सामाजिक, राजनीतिक विषयों पर लेखन कार्य। देश के प्रमुख समाचार पत्र-पत्रिकाओं में सतत रूप से प्रकाशन। वर्ष 2009 में एक व्यंग्य संकलन ”मौसमी भावनाऐं” प्रकाशित तथा दूसरा प्रकाशनाधीन।वर्ष 2011-2012 में कला मन्दिर, भोपाल द्वारा गद्य लेखन के क्षेत्र में पवैया सम्मान से सम्मानित। पता- 16, अम्बिका भवन, बाबुजी की कोठी, उपाध्याय नगर, मेंढ़की रोड़, देवास,म.प्र. मो 9425030009