सामाजिक

लेख– बजट में क्या बहुरेंगे किसान और बेरोजगारों के अच्छे दिन?

एक कहावत है, उत्तम खेती, मध्यम व्यापार, वर्तमान में खेती भी खतरे से खाली नहीं है। कुशल जीवन व्यतीत करने की महत्वपूर्ण आवश्यकताओं में रोटी, कपड़ा, और मकान होता है। आजादी के समय से इन समस्याओं को उड़न- छू करने की तमाम योजनाएं चलाई गई, लेकिन गरीबी बढ़ती गई। गरीबी उन्मूलन पर कार्य करने वाली संस्था ऑक्सफैम-2018 के मुताबिक देश की एक फ़ीसद आबादी के पास 73 फ़ीसद संपत्ति सीमित हो चुकी है। मतलब देश की 99 फ़ीसद आबादी सिर्फ़ 27 फ़ीसद सम्पत्ति में जीवनयापन करती है। देश में आर्थिक असमानता को ओर विस्तार से समझना चाहें, तो पता चलता है, कि देश की 67 करोड़ आबादी सिर्फ़ 1 फ़ीसद सम्पत्ति में गुजर-बसर करती है, यानी देश की कुल सम्पत्ति के सौवें हिस्से में जीवन बसर करती है। इसका अर्थ ग्रामीण अधोसंरचना का पूर्ण विकास अभी तक नहीं हो सका। हाल में आई आॅक्सफैम की रिपोर्ट दर्शाती है, कि गरीब की थाली खाली-खाली। जिस देश में भूखमरी, गरीबी, कुपोषण और कृषि के लिए सिंचाई जैसी मूलभूत समस्याएं आजादी के सात दशक में न सुधर सकी हो।

उस देश के बजट में पहला ज़िक्र गरीब और किसान का होना चाहिए। बीते दिनों में वित्त मंत्री ने जो आर्थिक सर्वेक्षण प्रस्तुत किया। उसने एक बार पुनः जनमानस के दिलों में अच्छे दिनों की आस आंकड़ों के माध्यम से जगाने का काम किया है। लेकिन उसे आभासी दुनिया से हकीकत की दुनिया मे कैसे लाया जाएगा, यह ज़िक्र वित्तमंत्री भी न कर सकें। इससे संशय उत्पन्न होता है, कहीं दूर के ढ़ोल सुहावने होते हैं, बजट के बाद यह स्थिति समझ में न आए। आर्थिक सर्वेक्षण में बीते वर्षों में कृषि उपज का दाम घटने के ठीकरा कम वर्षा और तापमान पर फोड़ा गया, लेकिन यह नहीं बताया गया, कि क्या कारण रहा। जिसके कारण किसानों को उपज का सही मूल्य नहीं मिल सका। आर्थिक सर्वेक्षण में ज़िक्र किया गया, कि 2022 तक विनिर्माण और रियल एस्टेट के माध्यम से प्रति वर्ष 30 लाख नौकरियां उत्पन्न की जाएंगी, जो युवाओं को 2019 में अपनी तरफ़ आकर्षित करने के उद्देश्य से जाल बिछाया जाना समझ आता है, क्योंकि सरकार ने यह ज़िक्र करना उचित नहीं समझा कि बीते साढ़े तीन वर्षों से अधिक समय में उसने कितने रोजगार के अवसर उपलब्ध कराएं। आर्थिक सर्वेक्षण में युवाओं, महिलाओं के लिए रोजगार उपलब्ध कराने और स्वास्थ्य सुविधाओं में सुधार के साथ कृषि उत्पादकता बढ़ाने की बात की गई है, लेकिन यह लक्ष्य प्राप्त कैसे होगा। इसकी कार्ययोजना नहीं व्यक्त की गई। जो असमंजस की स्थिति उत्पन्न करती है। किसानों की आय दुगनी करने का कोई सार्थक क़दम सरकार के पास दिख नहीं रहा। इसके अलावा जब रियल एस्टेट और विनिर्माण क्षेत्र नोटबन्दी और जीएसटी के कारण मंदी झेल रहा है, फ़िर प्रतिवर्ष 30 लाख रोजगार उत्पन्न कैसे होंगे, इसमें भी संशय नजऱ आता है। महंगाई की मार के लपेटे में देश खड़ा है, उससे निपटने की भी कोई जादुई छड़ी सरकार के पास दिखी नहीं, जिस महंगाई को मुद्दा बनाकर सरकार सत्ता तक पहुंची थी।

ऐसे में अगर भारत को वास्तव में विकसित देश की श्रेणी में खड़ा करना है। तो चिकित्सीय सुविधाओं पर भी बजट में विशेष प्रावधान होने चाहिए, क्योंकि जिसे भारत आर्थिक सहायता प्रदान करता है, वह श्रीलंका मलेरिया जैसे रोगों से मुक्त देश घोषित हो चुका है। यह देश की लोकव्यवस्था के लिए शर्म का विषय होना चाहिए । देश में 19.4 करोड़ लोग भूखमरी के शिकार है। एनीमिया, कुपोषण देश के लिए खतरे की घंटी साबित हो रहे है। बेरोजगारी की खान देश में बढ़ती जा रहीं है। डिजिटल इंडिया औऱ स्किल इंडिया रोजगार सृजन के स्रोत्र साबित नहीं हो पा रहे। तो सरकार पर सवाल उठने भी लाज़मी है, क्योंकि सरकार अब नई रही नहीं। पर्यावरणीय संरक्षण के लिए भी कुछ प्रावधान बजट के अंतर्गत होने चाहिए। कृषि सिंचाई और किसानों की दशा सुधारने का प्रयास होना भी लाजिमी है। कृषि देश की अर्थव्यवस्था में रीढ़ की हड्डी का काम करती है। समावेशित रूप में कहा जाएं, तो बजट में ग्रामीण, गरीब, और किसानों की भलाई केन्द्रित हो। बिचौलिए खाद, बीज और अन्य सब्सिडी पर फन फ़ैलाकर बैठ जाते हैं। जिससे सरकारी योजनाएं ग़रीबी दूर करने में असफल साबित होती हैं। आर्थिक असमानता की बढती खाई के पीछे सरकार की नीतियाॅ भी कम जिम्मेदार नहीं। सामाजिक सरोकारों के प्रति हमारे नुमाइन्दे को संजीदा होना पड़ेगा।

राष्ट्रपति ने बजट सत्र के शुरुआत में अपने अभिभाषण में सरकार को संविधान में निहित भावना के अनुसार चलती हुई देश मे सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र को मजबूत करने वाली तथा आम नागरिकों का जीवन बनाने वाली सरकार के वक्तव्य से नवाजा। पर अगर कानूनों में बदलाव, जीएसटी और अन्य जोख़िम भरे निर्णयों के नुकसान का सही अनुमान नहीं लगाया गया, तो फिर यह सरकार की नीति पर सवाल खड़ा जरूर करता है। ऐसे में अगर सच्चे अर्थों में गरीबी दूर करने की दिशा में बढ़ना है, तो कृषि, रोजगार औऱ ग्रामीण अधोसंरचना को विकसित करने का संकल्प बजट में रखने के साथ सरकार आर्थिक असमानता दूर करने के लिए आने वाले बजट में यूनिवर्सल बेसिक इनकम पर अमल करने पर विचार करें । हां इसके लिए सरकार को आर्थिक रूप से मजबूत होना पड़ेगा, तो क्यों न सरकार धनाढ्य वर्ग से अधिक कर वसूलने की दृढ़ता आने वाले बजट में व्यक्त करें। बहरहाल संसद में बजट प्रस्तुत होने के बाद और नीतियों के क्रियान्वयन के बाद पता चलेगा, कि अच्छे दिन बहुरने वाले हैं, कि नहीं। वैसे बजट सत्र में एक बात पर सत्ता पक्ष औऱ विपक्ष दोनों को ध्यान देना चाहिए, कि संसद में गहन विचार-विमर्श की परिपाटी ख़त्म हो रही है, उसे कैसे निर्मित किया जाए। दोनों पक्षों को समझना होगा, हठधर्मिता औऱ हंगामे के बीच देश की नीतियां नहीं बनाई जा सकती। इसलिए यह आशा करनी चाहिए कि बजट तो ग़रीब, किसान की दृष्टि में सार्थक होगा ही। साथ में बजट सत्र भी उत्पादक होगा, और पक्ष-विपक्ष अपनी लोकतांत्रिक जिम्मेदारी समझेंगे।

महेश तिवारी

मैं पेशे से एक स्वतंत्र लेखक हूँ मेरे लेख देश के प्रतिष्ठित अखबारों में छपते रहते हैं। लेखन- समसामयिक विषयों के साथ अन्य सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर संपर्क सूत्र--9457560896